In this post, we have given Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Summary, Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata Mein Summary. This Hindi Antral Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.

अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Summary

पाठ का सार :

‘अपना मालवा’ पाठ प्रभाष जोशी के ‘जनसत्ता’ में छपे स्तंभ ‘कागद कारे’ में 1 अक्टूबर, 2006 को प्रकाशित हुआ था। यह पाठ यात्रा-वृत्तांत विधा के अंतर्गंत आता है। पाठ के अनुसार प्रभाष जोशी और उनका परिवार रेल द्वारा उग्जैन से इंदौर की यात्रा करता है। प्रभाष जोशी चूँकि मालवा क्षेत्र के निवासी हैं, इसलिए वे वहाँ के प्राकृतिक परिवेश, वनस्पतियों, तालाबों, नदियों, नालों आदि से अच्छी तरह से परिचित हैं। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान रास्ते में मिलने वाली नदियों के जल-भराव और बाढ़ संबंधी वर्णन प्रस्तुत किए हैं। नबरार्ने शुरू होने के बाद भी बादल अभी छँटे नहीं हैं।

आसमान बादलों से भरा हुआ है। प्रभाष जोशी जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, वहाँ बीच-बीच में दोनों ओर उजली-चटक धूप निकल आती है। लहलहाती ज्वार, बाजरे और सोयाबीन की फसलें; पीले फूलों वाली बेलें और दमकते घर-आँगन दिखाई पड़ते हैं। बादलों का जमावड़ा निरंतर साथ-साथ चल रहा है। रास्ते में नागदा स्टेशन पर उन्होंने बिना चीनी की चाय पिलाने वाले मीणा से चाय लेकर पी और वहाँ के मौसम व फसलों का हाल-चाल पूछा।

मीणा लेखक को बताता है कि लगातार बारिश होने के कारण सोयाब्बीन की फसल तो खराब हो गई, परंतु गेहूँ और चने की फसल अच्छी हो जाएगी। फिर सफ़र शुरू हुआ, तो रास्ते में शिप्रा नदी मिली। प्रभाष जोशी के लिए शिप्रा केवल नदी नहीं है, बल्कि वे उसे अपनी मैया मानते हैं। वैसे तो शिप्रा छोटी नदी है, परंतु उन्जैन में उसने महाकालेश्वर के चरण धोए थे इसलिए वह पवित्र हो गई है। आज शिप्रा भरपूर बह रही है। टी॰वी० में यह भी खबर थी कि शिप्रा का पानी उज्जैन के घरों में घुस गया है। भोपाल, देवास, धार और इदौर में अभी भी झड़ी लगी हुई थी।

पहले मालवा में खूब पानी बरसता था, परंतु अब पिछले कुछ वर्षों से औसत पानी ही बरसता है। उग्जैन से देवास के रास्ते इंदौर जाना मालवा के आँगन में से गुज्तरना माना जाता है। अव्टूबर के महीने में जब धूप खिली होती है, तो चारों तरफ हरियाली खूबसूरत लगती है। रास्ते से गुजरते हुए लेखक को कुएँ-बावड़ी और तालाब-तलैया लबालब भरे दिखाई देते हैं। पानी से भरे नदी-नालों और लहलहाती फसलों को देखकर लेखक को एक अजीब किस्म की समृद्धि का अनुभव होता है। वह सोचता है कि अब की बार मालवा में खूब फसल पकेगी और दीवाली दशहरे पर खूब धूम होगी।

इंदौर पहुँचते ही लेखक ने वहाँ के पहाड़, नदियाँ, ताल-तलैया, जलाशय आदि देखने की इच्छा व्यक्त की। वृद्धावस्था के कारण लेखक को पहाड़ चढ़ना, नदी-नाले पार करना कठिन लग रहा था; परंतु फिर भी वह इन सबका आनंद लेने के लिए तैयार था। उसे रास्ते में नर्मदा नदी के दो बार दर्शन होते हैं। ओंकोरेश्वर में अब नर्मदा पर सीमेंट कंक्रीट का एक विशाल राक्षसी बाँध बना दिया गया है। नर्मदा कहीं मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती और कही-कहीं अथाह गहरी दिखाई देती है। नर्मदा में बाढ़ के निशान साफ़ दिखाई दे रहे थे।

नेमावर के पास बजबाड़ा में नर्मदा शांत, गंभीर और पानी से लबालब है। चतुर्थी का चाँद उसके पानी के ऊपर लटका प्रतीत हो रहा है। सभी नर्मदा को प्रणाम करते हैं। लेखक कहता है कि हम नदी को नदी नहीं माँ मानते हैं; नर्मदा मैया कहते हैं। हमारा निर्माण नर्मदा के माध्यम से हुआ है। उसके किनारे बैठने से माँ की गोद में बैठने जैसा आनंद मिलता है। ओंकारेश्वर और नेमावर के बीच विंध्य के घाट छोटे होने लगते हैं। सिमरोल और बिजवाड़ के घाटों के बीच सागौन के जंगल भरे पड़े थे।

पेड़ों से टूटे प्तों के ढेर लगे पड़े थे। सिमरोल के बीच में चौरल नदी पानी से भरी मिली। रास्ते के सभी नदी-नाले पानी से लबालब भरे हुए थे। इन नदी-नालों का पानी धरती माँ को फूल, फलों और अन्न से भर देता है। नेमावर के रास्ते में ही केवडेश्वर नामक स्थान है, जहाँ से शिप्रा नदी निकलती है। चंबल नदी विंध्य के जानापाव पर्वत से निकलकर निमाड़, मालवा, बुंदेलखंड और ग्वालियर होती हुई इटावा के पास यमुना नदी में मिल जाती है।

चंबल नदी में भी खूब पार्नी है। इसके साथ मालवा की सभी छोटी-बड़ी नदियों में लबालब पानी बह रहा है। रास्ते में सभी नदियों के दर्शन हुए। इन नदियों का खूब पानी, पानी का खूब बहाव और नदियों की खूब कृपा लेखक को अभिभूत कर देती है। लेखक की मान्यता है कि नदी का सदानीरा रहना जीवन के सोत का सदा जीवित रहना है।

नदियों के वर्णन के बाद लेखक तालाबों का वर्णन करता है। वह आधुनिक इंजीनियरों पर कटाक्ष करते हुए कहता है कि हमारे आज के इंजीनियर समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध करना जानते हैं। पहले जमाने में लोग कुछ नहीं जानते थे। वे शायद यह भूल जाते हैं कि विक्रमादित्य, भोज और राजा भुंज पश्चिमी वैज्ञानिकों की खोज से पहले पानी का ठीक प्रयंध कर चुके थे। उनकी जल-योजना आधुनिक योजनाओं से कहीं बेहतर और सुव्यवस्थित थी। राजाओं ने अनेक तालाब बनवाए।

बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई, जिससे पहाड़ों पर बरसने वाले पानी को वहीं रोका जा सके। आज की योजनाओं के फलस्वरूप तालाब गाद और कूड़े-कचरे से भर गए हैं; नदी-नाले सूख गए हैं। वह मालवा जो पग-पग पर नीर भरा होता था, अब सूख चुका है। लेखक देखता है कि इंदौर के पास खान और सरस्वती नदियों में अब इतना पानी नहीं बचा है, जितना उसने बचपन में देखा था; जिसमें वह नहाया और नाव पर सैर करता था।

इंदौर और आस-पास से गुज़रने वाली लगभग सभी नदियाँ; जो कभी सदानीरा और हरी-भरी रहती थीं; अब सड़े नालों में तबदील हो चुकी हैं। लगभग सभी नदियों का यही हाल है। अब वे केवल बरसात के दिनों में बहती हैं। उसके बाद सारा साल उनमें उनके किनारे बसी बस्तियों और नगरों का सड़ाँध भरा पानी भरा होता है। नदियों ने सभ्यताओं को जन्म दिया और सभ्यताओं ने इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना दिए हैं।

लेखक ‘नई दुनिया’ की लाइब्रेरी से मिले रिकॉर्ड के आधार पर 1878 से अब तक के 128 वष्षों में से दो सालों 1899 और 1973 का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहता है कि पहले अगर पानी कम भी बरस जाता था, फिर भी सूखा नहीं पड़ता था। परंतु आज हमारे पास जल योजना ठीक और सुचारु न होने के कारण नदियों का पानी बेकार बह जाता है। पहले 15 इंच भी फसलों के लिए पर्याप्त था, अब 28 इंच बारिश वाला साल भी सूखे का साल होता है।

पहले 77 इंच बारिश होने पर भी बाढ़ नहीं आती थी, अब थोड़ी बारिश में ही बाढ़ अपना रंग दिखा जाती है। पहले अगर एक वर्ष बारिश न पड़े तो भी सूखा नहीं पड़ता था, परंतु अब सूखे की स्थिति हर साल की बात है। इसलिए लेखक मानता है कि अगर हम अपने नदी, नाले, तालाब सँभालकर रखें तो सुखे का समय भी मज़े से निकल सकता है। आज जिसे हम औद्योगिक सभ्यता कहते हैं, वह उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है।

‘नई दुनिया’ की लाइन्रेरी से कमलेश सेन और अशोक जोशी की कतरनों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लेखक कहता है कि अब मालवा की धरती गइन गंभीर क्यों नहीं है ? यहाँ अब पग-पग पर रोटी और डग-डग पर नीर क्यों नहीं है ? अब समुद्रों का पानी गर्म क्यों हो रहा है? ध्रुवों पर बर्फ़ क्यों पिघल रही है ? मौसम का चक्र क्यों बिगड़ रहा है? अमेरिका और यूरोप में इतनी गरमी क्यों पड़ रही है? वातावरण लगातार गैसों से भरकर गर्म हो रहा है।

ये गैसें अमेरिका और यूरोप स्थित विकसित देशों की औद्योगिक इकाइयों से निकलती हैं। अमेरिका इसके लिए समझौता करने के लिए तैयार नहीं है अर्थात मौसम चक्र चाहे कितना भी बिगड़ क्यों न जाए, पंतु अमेरिका और यूरोपीय देश अपने उद्योगों से निकलने वाली गैसों को नहीं रोकेंगे। इसलिए हमारा मालवा अब गहन गंभीर और पग-पग व डग-डग नीर वाला नहीं रहा। वस्तुत: हमें अपनी जीवन-पद्धति के बारे में एक बार फिर सोचना पड़ेगा।

Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Summary - Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata Mein Summary

कठिन शब्दों के अर्थ :

  • निथरी – फैली, चमकीली
  • दमकते – उजले/चमकते
  • धऊँ-धऊँ – बादलों के गरज्ञने की आवाज़
  • फ़सल तो पष गली गई – फ़सल पानी में डूब गई
  • रड़का – लटका
  • डग-डग – डगर-डगर पर
  • पसारे – धोये
  • गाद – कूड़ा-कचरा
  • अतिवृष्टि – अत्यधिक वर्षा
  • दुष्टकाल – अकाल, बुरा काल
  • पद्धति – प्रणाली
  • चौमासा – वर्षा उ्रश्तु के चार महीने
  • ओटले – मुख्य द्वार
  • पानी बहुत गिरयो – बरसात बहुत हुई
  • पेले – पहले
  • पग-पग – कदम-कद्म पर
  • स्रोत – उद्गम स्थल
  • सदानीरा – सदा जल से भरी हुई
  • चैतन्य – जीवित होना
  • छण्पन का काल – 1956 का दौर/समय
  • अपसभ्यता – बुरी सभ्यता