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विद्यापति के पद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 9 Summary
विद्यापति के पद – विद्यापति – कवि परिचय
कवि-परिचय :
जीवन-परिच्चय – मैथिल कोकिल विद्यापति का जन्म बिहार राज्य के मधुबनी ज़िले में पूर्वोत्तर रेलवे के कमतौल स्टेशन के पास ‘विसपी’ नामक गाँव में सन 1380 में श्री गणपति ठाकुर के घर हुआ था। इनकी माता का नाम गंगा देवी था। इनके पिता संस्कृत के विद्वान थे। इनके गुरु शिरोमणिभूत पंडित हरि मिश्र थे। विद्यापति का देहांत सन 1460 में माना जाता है।
विद्यापति ने संस्कृत, अवहट्ठ और मैधिली में साहित्य की रचना की थीं।
रचनाएँ – विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
संस्कृत – भू-परिक्रमा, पुरुष-परीक्षा, लिखनावली, शैव सर्वस्व सार, प्रमाणभूत, पुराण, गंगावाक्यावली, दुर्गा भक्ति तरंगिणी, गया पत्तलक, वर्षकृत्य आदि।
अवहद्ठ – कीर्तिलता, कीर्ति पताका।
मैथिली – पदावली।
एकांकी – गोरक्ष विजय।
हिंदी-साहित्य में विद्यापति की कीर्ति का आधार उनके द्वारा रचित पदावली है। पदावली कोई पृथक् ग्रंथ के रूप में नहीं है, बल्कि कवि के बाल्यकाल से मृत्युपयंत रचित कविताओं का संग्रह है जो ‘विद्यापति की पदावली’ के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इसका संग्रह विद्यापति के प्रपौत्र ने किया था। इस पुस्तक का 90 प्रतिशत से भी अधिक भाग भृंगार रस से संबंधित है।
कुछ विद्वान इसमें रहस्यवाद और अध्यात्मवाद को भी विद्यमान मानते हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। इन्होंने संयोग और वियोग शृंगार का वर्णन किया है। राधा-कृष्ण की सुंदरता और उनके परस्पर प्रेम को ही उन्होंने महत्ता दी थी। उनके द्वारा नायिका को उतना सुंदर माना गया है जितना कि करोड़ों कामदेवों के सौँदर्य को लज्जित करने वाले कृष्ण भी नहीं हैं। इन्होंने माधुर्य भाव की भक्ति संबंधी कुछ पद भी लिखे हैं।
काव्य की विशेषताएँ – विद्यापति के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
i. शृंगारिकता – विद्यापति की पदावली में कवि का शृंगारिक रूप पूरी तरह से उभर कर सामने आया है। यद्यपि उन्होंने शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों को उजागर किया है, पर संयोग वर्णन करने में इनका मन अधिक लगा है। विद्यापति का सिद्धांत वाक्य है कि ‘यौवन के दिन ही गौरव के दिन हैं।’ विद्यापति के राधा-कृष्ण अपार साँदर्य के स्वामी हैं। राधा तो इतनी सुंदर है कि करोड़ों कामदेवों की सुंदरता भी उसके सामने लंज्ञित हो जाती है। कवि नायिका के रूप-सँदर्य का वर्णन करते हुए लिखता है –
देख-देख राधा रूप अपार।
अपरूप के विहि आनि मिला ओल, खितितल लाबनि-सार॥
नायक के साँदर्य के संबंध में कवि का कथन है –
ए सखि देखलि एक अपरूप।
सुनइत मानबि सपन सरूप॥
ii. सँददर्य-चित्रण-विद्यापति साँदर्य के कवि थे। उन्हें साँदर्य का चित्रण करना ही सबसे अधिक प्रिय था। उन्होंने साँदर्य का चित्रण करने में चमत्कार को उत्पन्न किया। नायिका के पास से नायक गुज़ा। नायिका को लगा, मानो साक्षात् साँदर्य ही उसके पास से निकल गया –
ए सखि देखलि एक अपरूप।
सुनइत मानबि सपन सरूप॥
राधा की सुंदरता के विषय में उसकी सखी कृष्ण से कहती है –
ए कान्ह ए कान्हु तोर दोहाई।
अति अपूरब देखल साई ॥
कवि ने साँदर्य के लिए अपरूप, अपूरब आदि शब्दों का प्रयोग किया है। उसकी मान्यता है कि साँदर्य शाश्वत और सत्य है। वह मंगलकारी है। उसमें ऐसी शक्ति है कि वह मन में पुलक, प्राणों में शक्ति और शरीर में रोमांच भर दे। साँदर्य तो सारे संसार के कण-कण में चेतना का संचार कर देता है।
iii. प्रकृति चित्रण – विद्यापति ने केवल मानवी साँदर्य का चित्रण ही नहीं किया, बस्कि प्रकृति के सँददर्य को भी निहारा है। कवि ने वसंत और शरद ऋतुओं का बहुत सुंदर चित्रण किया है। यद्यपि कवि ने आलंबन और उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण किया है, पर इनका अधिक मन तो उद्दीपन में ही रमा है। वसंत ऋतु का इन्होंने मानवीकरण किया है और नवजात बच्चे के समान उसको माना है –
नाचए जुवतिगन हरखित जनमल बाला मघाइ है।
मधुर महारस मंगल गावए मानिनि मान उड़ाइ है।
कवि ने पशु-पक्षियों, वन-उपवनों, सर-सरिताओं, उत्सव-महोत्सवों का सुंदर चित्रण किया है।
iv. गीति काव्य – विद्यापति ने गीति काव्य की परंपरा की धूमिल होती छवि को जीवन प्रदान किया था, इसलिए अनेक विद्वानों का मानना है कि हिंदी गीति-काव्य परंपरा के वास्तविक प्रवर्तक विद्यापति ही हैं। उनके द्वारा रचित सारे पद संगीत के शास्त्र-सम्मत रागों में पाए जा सकते हैं। इसी आधार पर उन्हें संगीत विद्या का आचार्य माना जा सकता है। इनके गीतों में आत्माभिव्यंजना, रागात्मकता, कल्पना, भावात्मकता, संक्षिप्तता, सुकुमारता और संगीतात्मकता सर्वत्र विद्यमान है।
v. भक्तिकाष्य – विद्यापति ने शिव-गौरी, गंगा तथा कुछ अन्य देवी-देवताओं की भक्ति-भाव से स्तुति की है। विद्यापति संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और उन्हें भारतीय संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। वह हिंदू देवी-देवताओं के स्वरूप और महिमा को भली-भौँति जानते थे। उन्होंने बड़े दीन-स्वर में शिव से प्रार्थना करते हुए कहा –
हर जन विसरब मो ममिता, हम नर अधम परम पतिता।
तुझ सम अधम उधार न दोसर, हम सन जग नहीं पतिता॥
इस आधार पर विद्यापति भक्त कवि तो नहीं स्वीकार किए जा सकते पर किसी सामान्य व्यक्ति की भौँति उन्होंने शिव के प्रति अपनी भक्ति-भावना अवश्य व्यक्त की है।
vi. भाषा – कविता का वास्तविक सौँदर्य उसकी भाषा में है। भाषा ही कविता को सजाती है, सँवारती है और भावों को आकार प्रदान करती है। विद्यापति ने काव्य-रचना के लिए संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली भाषाओं को अपनाया था। उनकी अक्षय कीर्ति और यश का आधार मैथिली भाषा में रचा हुआ साहित्य ही है। इनकी कविता में तत्सम शब्दों की भरमार है। कहीं-कहीं तो यह मैथिली की न होकर संस्कृत के श्लोक जैसी ही प्रतीत होती है। इन्होंने तद्भव और देशी शब्दों का प्रयोग अवश्य किया है, पर विदेशी शब्दों का प्रयोग बिलकुल भी नहीं किया है। इन्होंने भावों को सुंदर ढंग से प्रकट करने के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों का अच्छा प्रयोग किया है।
विद्यापति चमत्कारवादी कवि थे। ऐसा होना स्वाभाविक था। दरबार में रहकर कविता की रचना करने वाला चमत्कार से नहीं बच सकता था। विद्यापति ने अपनी कविता में जाने-अनजाने सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। उन्होंने शब्द-अर्थ संबंधी अलंकारों के साथ-साथ मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय, प्रेयस, भावसबलता जैसे आधुनिक समझे जाने वाले अलंकारों का भी सहज प्रयोग किया है। इनके प्रिय अलंकार उपमा, उत्र्रेका, श्लेष, यमक, अविशयोक्ति, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश, वीप्सा आदि है।
वास्तव में विद्यापति दरबारी होते हुए भी जन-कवि हैं; भृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं; शैव, शाक्त या वैष्गव होते हुए भी धर्म-निरपेक्ष हैं और संस्कारी-ब्राह्मण वंश के होते हुए भी मर्यादावादी नहीं हैं। उनकी कविता अनेक प्रकार के फूलों की क्यारी है।
Vidyapati Ke Pad Class 12 Hindi Summary
पाठ्यक्रम में विद्यापति द्वारा रचित तीन पद लिए गए हैं। प्रथम पद में कवि ने नायक के वियोग में संतप्त नायिका का चित्रण किया है, जो गोकुल छोड़कर मथुरा में रहने लगा है। श्रावण मास के आने से उसका मन प्रियतम से मिलने के लिए और भी अधिक व्याकुल हो उठा है। उसकी विरह-व्यथा को कोई भी नहीं समझ पा रहा। वह अपनी विरह-व्यथा पत्र द्वारा अपने प्रियतम तक भेजना चाइती है परंतु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता जो उसका पत्र उसके प्रियतम तक पहुँचा दे।
द्वितीय पद में कवि ने ऐसी नायिका का वर्णन किया है जो जन्म-जन्मांतर से अपने प्रियतम के रूप का पान करके भी स्वयं को अतुप्त ही अनुभव करती है। उसे प्रेमानुभूति नित नवीन प्रतीत होती है। प्रेम-क्रीड़ाओं का आनंद उसकी अतृप्ति को और भी अधिक तीव्र कर देता है। प्रेमानंद प्राप्त करने से उसके प्राण और अधिक प्रेम प्राप्त करने की कामना करते हैं।
तृतीय पद में कवि ने नायक के वियोग में संतप्त ऐसी विरहिणी का चित्रण किया है जिसे नायक के वियोग में प्रकृति के आनंददायक दुश्य भी कष्टकारक प्रतीत होते हैं। वह नायक के विरह में प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही है।
विद्यापति के पद सप्रसंग व्याख्या
1. के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास॥
एकसिर भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥
शब्दार्थ : के – कौन। पतिआ – पत्र। लए – ले। जाएत – जाए। हिए – हृदय। लेल – ले लिया। साओन – सावन, श्रावण। एकसरि – अकेली। अनकर – दूसरे का। दारुन – कठिन, भयंकर। पतिआए – विश्वास करना। गेल – साथ। तेजि – छोड़कर। मधुपुर – मथुरा। कन – कितना। धनि – स्त्री। आओत – आएगा। मनभावन – मन को अच्छा लगने वाला।
प्रसंग : प्रस्तुत पद विद्यापति द्वारा रचित है। इस पद में नायिका की विरहावस्था का वर्णन है। कृष्ण राधा को छोड़कर मथुरा चले गए हैं। राधा उनके विरह में व्यथित होती रही। वर्षा ऋतु का श्रावण मास और उसका कामोद्दीपक वातावरण राधा की विरह-व्यथा को और भी अधिक बढ़ाता हुआ प्रतीत होता है। राधा पत्र द्वारा कृष्ण तक अपनी विरह-व्यथा का संदेश भेजना चाहती है परंतु कोई पत्रवाहक नही दूँढ़ पाती।
व्याख्या : इन पंक्तियों में नायिका अपनी विरहावस्था की दयनीय दशा और प्रिय को पत्र न भेज सकने की अपनी विवशता का वर्णन अपनी किसी सखी से करते हुए कहती है कि ऐसा कौन है, जो मेरे प्रियतम के पास मेरा पत्र ले जा सके ? मेरा हदयय विरह के इस असहनीय दुख को सहन नहीं कर पाता। अब तो सावन का महीना है, जिसमें प्रिय-मिलन की अभिलाषा और भी अधिक बढ़ जाती है। प्रिय के अभाव में मुझसे अपने भवन में अकेले नहीं रहा जाता। हे सखि।
इस संसार में दूसरे के भयंकर दुख पर भला कौन विश्वास करेगा ? यही कारण है कि मेरे विरह के दुख का अनुमान मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता। मेंरे मन को तो कृष्ण हरण करके अपने मन के साथ ले गए और गोकुल को छोड़कर मथुरा जा बसे हैं इसी कारण मेरा मन अभी तक उनसे लगा हुआ है। गोकुल छोड़कर मथुरा में बसकर उन्होंने कितना ही अपयश से लिया है ! नायिका राधा को सांत्वना देते हुए कवि विद्यापति कहते हैं कि हे सुंदरी ! अपने प्रिय के आने की आशा अपने मन में रखो। तुम्हारा मनभावन प्रिय इसी कार्तिक मास में तुम्हारे पास लौट आएगा।
विशेष :
- विरहिणी राधा के माध्यम से कवि ने यहाँ नारी-मन की प्रियतम से वियोग की दशा की मार्मिक चित्रण किया है।
- विरह की उत्कृष्टावस्था के अंतर्गत औत्सुक्य, अभिलाषा, स्मृति और उपालंभ आदि स्थितियों को व्यक्त किया गया है।
- अनुप्रास, यमक तथा अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है।
- काव्यरूढ़़ में श्रावण मास को विरह बढ़ाने वाला माना जाता है।
- मैधिली भाषा का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
- करुण रस और प्रसाद गुण है।
- स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।
- लाक्षणिकता के प्रयोग ने कवि के कथन को गहनता-गंभीरता प्रदान की है।
- वैयक्तिकता का भाव अभिव्यक्त हुआ है।
2. सरिल हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए॥
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ॥
सेहो मधुर बोल स्तवनहि सूनल सुति पथ परस न गेल॥
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि॥
लाख लाख जुग हिख हिअ राखत तइओ हिओ जरनि न गेल।।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख॥
विद्यापति कठ प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।
शब्दार्थ : कि – क्या। पुछसि – पूछती है। सेह – उस। पिरिति – प्रेम। तिल-तिल – थोड़ा-थोड़ा। तिरपित – तृप्त, संतुष्ट। निहारल – देखा। भेल – हुए। स्रवनहि – कानों में। स्रतिपथ – कान। कत – कितनी। मधु – मधुर। जामिनि – रातें। रभस – कामक्रीड़ा। गमाओलि – बिता दीं। कइसन – कैसा। केलि – मिलन का आनंद। जरनि – जलन। विदगध – दुःखी। अनुमोदए – अनुमोदन करना। पेख – किया, देख। जुझाहते – जुड़ाने के लिए।
प्रसंग : प्रस्तुत पद विद्यापति द्वारा रचित है। इस पद में नायिका अपने प्रियतम को जन्म-जन्म से देखकर भी तृप्त न होने की बात अपनी सखी को बताते हुए नायक के प्रति अपने अनन्य प्रेम को व्यक्त करती है।
व्याख्या : नायिका नायक से प्रेम करने में पूर्ण रूप से कुशल है। वह बहुत समय से नायक से प्रेम कर रही है। उसकी सखी उसके इस प्रेम-ख्यवहार को जानती है और उत्मुकतावश उसकी प्रेमानुभूति के विषय में जानना चाहती है। उसे समझाते हुए नायिका कहती है कि हे सखि मेरी प्रेमानुभूति के विषय में किए गए मेर अनुभव को क्या पूहती है? इस प्रेमानुभूति का वर्णन तो प्रतिक्षण नूतन होता है। प्रेम तो क्षण-क्षण रूप बदलने वाला होता है, इसलिए यह अवर्णनीय है। आजीवन में प्रिय के रूप को देखती रही मगर फिर भी मेर नेत्र तृप्त नहीं हुए हैं। उनकी प्रेममय वाणी को कानों से निरंतर सुनती रही परंतु कानों को संतुष्टि नहीं हुई है।
न जाने कितनी मिलन-रात्रियाँ मैने प्रियतम के साथ काम-क्रीड़ाओं में व्यतीत कर दी हैं परंतु फिर भी यह न समझ सकी कि केलि क्या और कैसी होती है? लाखों युगों तक मैने प्रिय को हुदय में धारण किए रखा किंतु फिर भी हुदय में स्थित प्रेमानुभूति की जलन नही गई। प्रेमानुभूति तो प्रतिक्षण रूप परिवर्तित करने वाली, अतृप्ति को बढ़ने वाली और अवर्णनीय-अकथनीय होती है। यही कारण है कि प्रेम-रस का पान करके विद्ध होने वाले न जाने कितने व्यक्तियों ने इसका अनुभव किया है किंतु सच्चा-पूरा अनुभव कोई भी नहीं कर पाया है। विद्यापति कवि कहते हैं कि प्रार्णों को शांति प्रदान करने वाला लाखों में एक भी नहीं मिला है।
विशेष :
- कवि ने प्रेमानुभूति को व्यक्तिगत अनुभव बताया है, जो अलौकिक, स्वयं अनुभव करने योग्य तथा अनिर्वचनीय होता है।
- अतिशयोक्ति, वीप्सा, विरोधाभास, अनुप्रास और विशेषोक्ति अलंकार हैं।
- प्रृगार रस का उत्कृष्ट वर्णन किया गया है।
- माधुर्य गुण से मैधिली भाषा का युक्त प्रयोग किया गया है।
- गेयता का गुण विद्यमान है।
- माधुर्य गुण विद्यमान है।
- अभिधात्मकता ने कथन को सहजता और सरसता प्रदान की है।
- स्वरमैत्री विद्यमान है।
3. कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूँदि रहल दु नयान।
कोकिल-कलरख, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपड कान।।
माधय, सुन-सुन बचन हमारा।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूषरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा ॥
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल-धारा ॥
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन-
चौदसि-चाँंद समान।
भनड विद्यापति सिथसिंह नर-पति
लिखिमादेइ-रमान ॥
शब्दार्थ : कुसुमित – पुष्पों से भरे हुए। कानन – वन। हेरि – देखकर। दु – दोनों। कलरव – ध्वनि। धुनि – ध्वनि। झाँपइ – छकना, बंद करना। तुअ – तुम्हारे। भेल – हो गई। दूबरि – दुर्बल। गुनि – स्मरण करना। तोहारा – तुम्हारा। धरनी – भूमि। धनि – धन्या, स्त्री, नायिका राधा। बइसइड – बैठ जाती है। पारा – प्रयासपूर्वक। कातर – दुख-भरी। दिठि – दृष्टि। चौदसि – चारों ओर। हेरि – देखना। गरए – गिरती है। तनु – शरीर। छिन – क्षीण। भनइ – कहते हैं। नरपति – राजा। रमान – रमाने वाले, रमण करने वाला।
प्रसंग : प्रस्तुत पद विद्यापति द्वारा रचित है। इस पद में कवि ने नायक के वियोग में संतप्त नायिका के दिन-प्रतिदिन दुर्बल होने तथा ऋतु-परिवर्तन पर उसकी विरहाग्नि के और भी अधिक प्रदीप्त हो जाने पर उसकी सखी के द्वारा नायक को जाकर नायिका की दशा बताकर उसे नायिका से मिलने के लिए प्रेरित करने का वर्णन किया है।
व्याख्या : नायिका की सखी नायक को नायिका की दयनीय दशा का वर्णन करते हुए बताती है कि-हे माधव! कमल जैसे सुंदर मुख वाली राधा पुष्प से भरे वन को देख अपने दोनों नयन बंद कर लेती है। कोयल का कलरव और श्रमर के मैंडराने की ध्वनि को सुनते ही अपने कानों में हार्थों की अँगुलियाँ देकर अथवा हाथों से अपने कान बंद कर लेती है। हे कृष्ण हमारी बात ध्यानपूर्वक सुनो, तुम्हारी वह सर्वगुण संपन्न सुंदरी तुम्हारे वियोग में अत्यंत दुर्बल हो गई है और बार-बार तुम्होरे प्रेम का स्मरण करती है। विरह-ग्रस्ता नायिका राधा प्रकृति-प्रदत्त उद्दीपक तत्वों की उपेक्षा करते हुए, विरहवश अत्यंत दुर्बल होकर भी तुम्हारी स्मृतियों में खोई रहती है।
उसकी दुर्बलता का तो कहना ही क्या है क्योंकि वह इतनी अधिक कमज्यर हो चुकी है कि वह यदि एक बार भूमि पर बैठ जाती है तो फिर बार-बार भूमि को पकड़कर ही बैठ जाती है और फिर उठने का प्रयास करने पर भी उठ नहीं पाती। वह तो बैठी-बैठी कातरता-भरी दृष्टि से चारों ओर देखती हैं कि तुम कहीं से भी आ न जाओ। वह नेत्रों से जलधारा बहाने लगती है क्योंकि तुम्हें आया हुआ न पाकर उसकी आँखों से निरंतर अश्रुधारा बहने लगती है। तुम्होरे विरह में दिन-प्रतिदिन और हरक्षण उसका शरीर दुर्बल हो रहा है, जैसे कि चतुर्दशी का चंद्रमा होता है। विद्यापति कहते हैं कि राजा शिवसिंह जो लखिमा देवी से रमण करने वाले और उन्हे प्रसन्न करने वाले हैं, राधा के इस विरह की स्थिति को भली-भाँति जानते-समझते हैं।
विशेष :
- नायक के वियोग में विद्ग नायिका की दयनीय दशा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
- विप्रलंभ भृंगार के अंतर्गत विभिन्न अनुभवों का सजीव अंकन किया गया है।
- अनुप्रास, अतिशयोक्ति, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश, परिकर तथा उपमा अलंकार हैं।
- मैथिली भाषा का स्वाभाविक प्रयोग प्राप्त होता है।
- गेयात्मकता का गुण विद्यमान है।
- तत्सम और तद्भव शब्दावली का सहज-समन्वित प्रयोग किया गया है।
- अधिधात्मकता ने कथन को सरसता प्रदान की है।
- माधुर्य गुण विद्यमान है।