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बारहमासा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary

बारहमासा – मलिक मुहम्मद जायसी – कवि परिचय

जीवन-परिचय – जायसी निर्गुण भक्ति-धारा की प्रेममार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। जायसी जाति के मुसलमान होते हुए भी साहित्य में सुर एवं तुलसी के समान ही महत्व रखते हैं। इसका कारण जायसी की भारतीय संस्कृति में निष्ठा, धर्म के प्रति आस्था एवं हिंदू-मुस्लिम संस्कृति के समन्वय पर बल देना है। उनका जन्म रायबरेली ज़िले के जायस नामक ग्राम में सन 1492 ई० में हुआ था, इसीलिए वे जायसी नाम से प्रसिद्ध हुए। चेचक के प्रकोप ने जायसी को कुरूप बना दिया था। कहते हैं कि उनकी कुरूपता को देखकर दिल्ली का पठान बादशाह हैंस पड़ा था। जायसी ने यह देखकर बादशाह को संबोधित करते हुए कहा –

मोहि का हँससि कि कोहारहिं

अर्थात मुझ्श पर क्या हँसते हो, मेरे उस बनाने वाले कुम्हार पर हँसो । जायसी उच्चकोटि के विद्वान थे। इस विद्वान का कारण उनका बहु श्रुत होना था। वे ज्योतिष विद्या, वेदांत एवं हठयोग में निपुण थे। उनकी रचनाओं को देखने से विदित होता है कि जायसी के ऊपर तत्कालीन मत-मतांतरों का गहरा प्रभाव था। अमेठी के दरबार में उनका बड़ा सम्मान था। वहीं उनकी मृत्यु सन 1542 ई० में हुई। रचनाएँ-जायसी की तीन रचनाएँ उपलब्ध होती हैं –

1. पद्मावत, 2. अखरावट और 3. आखिरी कलाम।

पद्मावत जायसी की कीर्ति का आलोक स्तंभ है। इस रचना का हिंदी-साहित्य में बड़ा महत्व है। महाकाव्यत्व की दृष्टि से भी यह एक सफल रचना है। इसमें राजा रत्सेन तथा पद्मावती के प्रेम की कहानी अंकित है। इसमें शृंगार रस की सुंदर अभिव्यक्ति है। जायसी प्रेम, विरह तथा मिलन के चित्र उतारने में सफल रहे हैं। इस ग्रंथ की भाषा अवधी, छंद दोहा-चौपाई तथा शैली मसनवी है। इस महाकाव्य को आध्यात्मिकता के रंग ने अत्तधिक आकर्षक बना दिया है।

अखरावट में वर्णमाला के अक्षरों में चौपाइयों की रचना है। इसमें जायसी के सिद्धांतों का वर्णन है। आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है।

काव्यगत विशेषताएँ – जायसी के काव्य में भाव पक्ष एवं कला पक्ष दोनों का सफल निर्वाह है। उनके काव्य का मुख्य रस शृंगार रस है। शृंगार रस के दोनों पक्षों का बड़ा सफल चित्रण है। संयोग भृंगार के अंतर्गत वसंत खंड, पद्मावती तथा रत्नसेन भेंट खंड, षड़त्रतु वर्णन आदि स्थल आते हैं। काव्य में पद्मावती अद्भुत सँददर्य की प्रतीक बनकर आई है। रलसेन पद्मावती के अद्भुत साँदर्य को देखते ही मूर्छित हो जाते हैं। मानसरोदक खंड में कवि पद्मावती के सॉदर्य का प्रभाव दिखाते हुए लिखते हैं –

नयन जो देखा कंवल भा, निरमल नीर सरीर।
हंसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर॥

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जायसी संयोग शृंगार के चित्रण की अपेक्षा वियोग चित्रण में अधिक सफल रहे हैं। नागमती का वियोग वर्णन बड़ा ही अनूठा बन पड़ा है। उनके विरह में व्यापकता, मार्मिकता तथा गंभीरता का उत्कृष्ट वर्णन है, जैसे नायिका प्रियतम के वियोग में स्वयं को बलिदान कर देना चाहती है –

यह तन जारौ छार कै कहौँ कि पवन उड़ाऊ।
मकु तेहि मारग होइ पर कंत धर जहँ पाउ॥

प्रेममार्गी शाखा में प्रेम की पीड़ा को बड़ा महत्व दिया जाता है। जायसी ने उसी पीड़ा का वर्णन नागमती के विरह-वर्णन के माध्यम से किया है। शृंगार रस के साथ-साथ करुण रस, वात्सल्य रस, भयानक रस, वीर रस एवं अद्भुत रस आदि का भी प्रसंगानुकूल चित्रण है। छंद एवं अलंकार – छंद एवं अलंकार प्रयोग की दृष्टि से भी जायसी एक सफल कवि हैं। जायसी ने दोहा, चौपाई और छंद को ही विशेष महत्व दिया है। अलंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, तद्युण, दृष्टांत आदि का विशेष प्रयोग है। सांगरूपक का एक उदाहरण प्रस्तुत है –

जोबन-जल-दिन-दिन जस घटा। भंवर छपा न हंस परगटा।

जायसी के काव्य में रहस्यवाद की भी सफल अभिव्यक्ति है। उनका रहस्यवाद प्रेममूलक होने के कारण अधिक आकर्षक है। उनकी यह धारणा रही है कि प्रेम के सहारे आत्मा परमात्मा की निकटता प्राप्त कर सकती है। लॉकिकता एवं अलॉककिकता के समन्वय ने रहस्यवादी भावना को और भी प्रभावशाली बना दिया है। जायसी की सरसता से प्रभावित होकर शुक्ल जी ने कहा है, ‘जायसी का ह्यदय कोमल और प्रेम की पीड़ा से भरा हुआ था। क्या लोक पक्ष में, क्या आध्यात्मिक पक्ष में दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है।’
भाषा-शैली-जायसी ने अपने काव्य में ठेठ अवधी भाषा का प्रयोग किया है, जो अपनी सरलता के लिए प्रसिद्ध है।

कवि ने व्यावहारिक अवधी भाषा का प्रयोग किया है। तत्सम तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने पर्याप्त मात्रा में किया है। मुहावरे तथा लोकोक्तियाँ उनके काव्य का सहज धृंगार करती हैं। जायसी की भाषा अधिकतर प्रसाद तथा माधुर्य गुण से भरपूर है। प्रेम एवं भृंगार की अधिकता उनके काव्य में है क्योंकि सूफी साधना में प्रेम को सव्वोपरि स्थान दिया गया है। जायसी का साँदर्य चित्रण मार्मिक है। विरह-वर्णन में उन्हें अद्भुत कौशल प्राप्त है। जायसी के काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति जैसे अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जायसी के उत्रेक्षा अलंकार सर्वाधिक प्रिय है। ‘जनु फुलवारि सबै चलि आई’, ‘ससि के सरन लीन्ह जनु राहां’, ‘जानौ मोति गिरहिं सब ढौ’ आदि में उत्त्रेक्षा अलंकार है।

वस्तुत: हिंदी काव्य में जायसी का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने अपने काव्य में प्रेम की जिस स्निग्ध धारा को प्रवाहित किया है, वह संतप्त, पीड़ित एवं दग्ध हुदयों को शांत करने में समर्थ है। भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि की छाप ने उनके काव्य को स्थायी संपत्ति बना दिया है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary - Barahmasa Summary Vyakhya

Barahmasa Class 12 Hindi Summary

‘बारहमासा’ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ का एक अंश है। इस खंड में राजा रत्नसेन के वियोग में संतृप्त रानी नागमती की विरह-व्यथा का वर्णन किया गया है। ‘बारहमासा’ के अंतर्गत विभिन्न महीनों में नागमती के विरहावस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का चित्रण प्राप्त होता है। पाठ्यक्रम में निर्धारित चार छंदों में अगहन, पूस, माष और फागुन मास का नागमती की विरहावस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन किया गया है।

अगहन माह की शीतलता नायिका के विरह को और अधिक बढ़ा देती है। दिन का छोटा और रात का लंबा होना उसे पति वियोग से और अधिक व्यथित कर देता है। वह प्रियतम के वियोग में तिल-तिल कर विरहाग्नि में जल रही है। पूस महीने की ठंडक तथा सूर्य का दक्षिणायन होना उसे और भी अधिक कँपा-कँपा कर मरणासन्न बना रहा है, क्योंकि उसे सूर्य के समान ऊर्जा प्रदान करने वाला प्रियतम उसके पास नहीं है। माघ के महीने में पाला पड़ने के साथ-साथ वर्षा और ओले भी पड़ने लग गए हैं।

प्रियतम की जुदाई में उसकी आँखों से निरंतर आँसू बहते रहते हैं। वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही है। उसे लगता है कि विरहारूपी अगिन उसे जलाकर राख ही कर देगी। फागुन के तीव्र हवा के झोंके शीत के प्रकोप को चौगुना कर रहे हैं। इससे नागमती की काया पीली पड़ गई है। उसे लगता है कि वह भी पेड़ों के सूखे पीले पत्तों के समान झड़ जाएगी। उसका भी प्राणांत हो जाएगा। वह चाहती है कि वह वियोग्नि में अपने शरीर को जलाकर राख कर दे तथा पवन उसकी राख को उड़ाकर उसके पति के चरणों में गिरा दे।

बारहमासा सप्रसंग व्याख्या

1. अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काड़ी।
अब धनि देवस बिरह भा राती। जरे बिरह ज्यों दीपक बाती।
काँपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।।
घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग लै गा नाहू ॥
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई ॥
सियरि अगिनि बिरहिनि छिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।।
यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जरम करै भसमंतू॥
पिय सौं कहेहु संदेसरा, ऐ भैवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुओं हम लाग॥

शब्दार्थ : देवस – दिन। घटा – कम, छोटा। निसि – रात। बाढ़ी – लंबी, बढ़ना। दूभर – असहनीय, कठिन। किमि – कैसे, किस प्रकार। काढ़ी – निकालना, गुज्ञारना। धनि – स्ती। सीक – शीत, ठंड। चीर – वस्त्र। नाहू – नाथ, स्वामी, प्रियतम। पलटि न बहुरा – लौटकर नहीं आया। गा – गया। बिछोई – बिद्छड़कर। सियरि – ठंडी। दगधै – जलना। छारा – राख। कंतू – स्वामी, प्रियतम। जोबन – यौवन, जवानी। जरम – जीवन। तेहिक – उसका।

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प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ के ‘बारहमासा’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने राजा रत्लसेन के वियोग में संतप्त उसकी पत्नी रानी नागमती की विरह-वेदना का वर्णन किया है।

व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि विरह संतप्त नागमती की दशा का वर्णन किया है। वह लिखता है कि अगहन के महीने में जब दिन छोटे और रातें लंबी हो गई हैं तब विरहिनी नागमती की व्यथा और भी अधिक बढ़ गई, क्योंकि वह समझ नही पाती थी कि पति के विछोह के असह्य दुख को कैसे दूर किया जाए-लंबी रातों का काटना उसके लिए और भी अधिक कष्टकर हो गया है। अब तो विरह के कारण नागमती को दिवस भी रात्रि जैसा कष्टकर प्रतीत होता है और वह वियोग में दीपक की बत्ती की तरह तिल-तिल करके जलती रहती है।

शीत के कारण उसका हुदय काँपने लगा है और यह कँपकँपी तभी दूर हो सकती है जब उसके प्रियतम उसके समीप होंगे। प्रत्येक घर में नारियों ने शरद काल के अनुरूप नए-नए वस्त्रों की रचना कर ली है, किंतु नागमती ऐसा भी नहीं कर सकी है क्योंकि वह सोचती है कि मेरे तो रूप और रंग को मेरे पति ही अपने साथ ले गए। वह बार-बार सोचती है कि मेरे पति यहाँ से किसी ऐसी अशुभ घड़ी में गए हैं कि एक बार जाकर उन्होंने लौटने का नाम तक नहीं लिया है। यदि वे अब भी लौट आएँ, तो सुहावने दिवस लौट आएँगे।

शीत आग बनकर उस विरहिणी के अंतर्मन को निरंतर जलाता रहता है और वह विरहाग्नि में सुलग कर जलकर राख हो चुकी है। उसके अंतर्मन में टीस है कि उसके विरहावस्था के दुख से उसके प्रियतम सर्वथा अनभिज्ञ हैं और उनकी इस अज्ञानता के कारण ही उसका यौवन और जीवन जलकर भस्म होते जा रहे हैं। विरहिणी नागमती भँवरों और कौओं को संबोधित करते हुए कहने लगी कि हे भैवरों ! अरे कौओ । तुम मेरे प्रियतम के समीप पहुँचकर उन्हें यह संदेश पहुँचा देना कि आपकी प्रियतमा वियोगाग्नि में जल-जल कर मर गई है, और उसका धुआँ लगने के कारण ही हमारे शरीर काले पड़ गए हैं।

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विशेष :

  1. नागमती की विरहावस्था का सजीव चित्रण किया गया है। वह अपने प्रियतम के वियोग में घुट-घुटकर जल रही है।
  2. अवधी भाषा का स्वाभाविक प्रयोग किया गया है।
  3. विरोधाभास, उत्र्रेक्षा, अनुप्रास और पुनरक्तिप्रकाश अलंकार हैं।
  4. विप्रलंभ भृंगार का सहज रूप से वर्णन किया गया है।
  5. अगहन देवस …….. कर भसमंतू में चौपाई छंद और ‘पिय सौँ …….. हम लागा’ में दोहा छंद है।
  6. स्वरमैत्री का प्रयोग लयात्मक का कारण है।
  7. अभिधात्मक्ता के प्रयोग ने कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है।

2. पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा॥
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ॥
कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।
सौर सुपे ती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी॥
चकई निसि बिद्धुं दिन मिला। हाँ निसि बासर बिरह कोकिला।
रेनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिआं बिछोही पँखी॥
बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा॥
रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख॥

शब्दार्थ : जाड़ – ठंडक। सुरुज – सूर्य। जड़ाइ – ठंड से घबरा कर। लंक दिसि – लंका की दिशा में, दक्षिणायन होना। तापा – तापना। दारुन – कठिन, भयंकर। हियरे – हुदय। नियरें – नज़दीक, समीप। सौर – रजाई, ओढ़नी। सुपेती – हलकी। जूड़ी – ठंडक, कंपकंपी। सेज – शैया। हिवंचल – हिमालय, बर्फ़ से ढकी। बूढ़ी – डूबी। सैचान – बाज़ पक्षी। भैँै – चक्कर लगाना। चाँड़ा – भोजन। गरा – गल गया। संख – झंख। ररि – चीख-चीखकर।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ के ‘बारहमासा’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने राजा रत्नसेन के वियोग में संतप्त उसकी पत्नी रानी नागमती की विरह-वेदना का वर्णन किया है।

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व्याखया : इन पंक्तियों में कवि पूस के महीने में नागमती की विरह संतृप्त द्शा का वर्णन करते हुए लिखता है कि पूस के महीने में ठंडक इतनी अधिक बढ़ गई है कि सभी नर-नारी थर-थर काँपने लगे हैं। यही नहीं स्वयं सूर्य भी आड़े से पीड़ित होकर लंका की ओर तापने लगा है अर्थात वह उत्तरायण से दक्षिणायन हो गया है। नागमती की विरह-व्यथा और भी बढ़ गई है और उसे शीत भयंकर प्रतीत होने लगा है। अपने प्रियतम को स्मरण करते हुए वह सोचने लगी कि उनके अभाव में वह काँप-काँप कर मरी जा रही है और यह जाड़ा तो उसकी जान लेकर ही पीछा छोड़ेगा।

हे प्रियतम ! आप कहाँ हो ? यदि आप यहाँ होते तो वह उनके गले लगकर इस मारक शीत से छुटकारा पा सकती थी। उनके और उसके मध्य इतनी अधिक दूरी है कि उसे समझ ही नहीं आता कि वह उन्हें कहाँ जाकर मिले ? वे उसके पास नहीं हैं। उसे तो अब ऐसी जूड़ी आने लगी है कि कई-कई रजाइयाँ ओड़ने पर भी जाड़ा नहीं मिटता। अपनी शैया उसे इतनी ठंडी प्रतीत होती है, मानो उसे बर्फ में डुबो दिया गया है। नागमती को लगता है कि उससे तो चकई बहुत अच्छी है जो अपने प्रियतम से रात्रि में बिहुड़कर प्रातःकाल मिल जाती है।

इसके विपरीत वह दिन-रात प्रियतम के वियोग में कोयल की भौंति तड़पती रहती है। रात्रि में वह अकेली रह जाती है। उसके साथ कोई सखी तक नहीं होती, ऐसी दशा में वह वियोगिनी पक्षिणी कैसे जीवित रह सकती है ? हे प्रियतम $!$ विरह-रूपी भयंकर बाज मुझ पक्षिणी के चारों ओर चक्कर काट रहा है। वह मुझे जीवित ही खाना चाहता है और मरने पर तो मुझे किसी प्रकार भी नहीं छोड़ेगा।

सारस-सारसी की अटूट जोड़ी की भाँति साथ निभाने की याचना करती हुई नागमती प्रियतम को कहती है कि हे प्राणनाथ । मेरे शरीर का संपूर्ण रुधिर बुलक गया है। मेरे शरीर के अंगों का मांस गल गया है जबकि मेरी हडडियाँ सूखकर शंख जैसी निष्प्राण और नीरस हो गई हैं। आपकी पत्नी सारसी की भौंति आपका नाम रटते-रटते मर रही है। आप इतनी कृपा अवश्य कीजिए कि उस मरी हुई के पंखों को समेट लीजिएगा।

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विशेष :

  1. कवि ने नागगमती की विरह-व्यथा का वर्णन करते हुए कहा है कि वह अपने पति के वियोग में दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही है। वह मरणावस्था में पहुँच चुकी है।
  2. अवधी भाषा का सहज, स्वाभाविक प्रयोग किया गया है।
  3. उत्र्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास तथा पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार हैं।
  4. विप्रलंभ श्रृंगार का मार्मिक चित्रण प्राप्त होता है।
  5. करणण रस की गंगा बह रही है।
  6. ‘पूस जाड़…………..नहिं छाँड़ा’ में चौपाई छंद और ‘रकत छरा………समेटहु पंखा’ में दोहा छंद है।
  7. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।
  8. तत्सम-तद्भव शब्दावली का समन्वित प्रयोग किया है।

3. लागेड माँह पर अब पाला। बिरहा काल भएड जड़काला।
पहल पहल तन रुई जो झाँपे। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपे।।
आई सूर होड तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूट्ट माहाँ।।
एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो थैवर मोर जोबन फूलू॥
नैन चुखहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।।
टूटरिं बुंद पराही जस ओला। बिरह पवन होड मारं झोला।।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। गिर्यं नहीं हार रही होइ डोरा।।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरकई, तन तिनुवर भा छोल।
तेहि पर धिरह जराइ कै, चहै उडाबा झोल।।

शब्दार्थ : माँह – माघ। जड़काला – सरदी बन गई है काल। पहल-पहल तन – शरीर का प्रत्येक अंग। हहलि-हहलि – थरथराना, कँपकैंपी। सूर – सूर्य। नाहों – स्वामी, नाथ, पति। मूलू – जड़ों में । झोला – झकझोरना। माँहुट – माध माह की वर्षी। नीरू – जल, आँसू। गियँ – गला, गर्दन। सर – बाण। चीरू – चीरना। पटोरा – रेशमी वस्त्र। कंता – पति। हरुई – हलकी, दुर्बल। तिनुवर – तिनके के समान। झोल – राख।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ के ‘बारहमासा ‘ प्रसंग से ली गई है। इस प्रसंग में कवि ने राजा रत्नसेन के वियोग में संतप्त उसकी पत्नी रानी नागमती के विरह का वर्णन किया है।

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व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि माघ के मास में विरह संतृप्त नागमती की दशा का वर्णन करते हुए लिखता है कि-माघ का महीना लग गया है और पाला पड़ने लगा है। विरहावस्था में जाड़ा काल बन जाता है। शरीर के प्रत्येक पहलू को रुई से ढकने का प्रयत्न करने पर भी हिय थर-थर काँपने लगता है। माघ के महीने में ठंड इतनी अधिक है कि जब रूई के वस्त्रों से शरीर को ढकने का प्रयत्न करते हैं तो वस्त्रों के ठंडे होने के कारण शरीर और भी अधिक काँपने लगता है।

नागमती कहती है कि हे स्वामी ! आप मेरे समीप आकर सूर्य बनकर तपिए। यदि आप मेरे पास आ जाओगे तो मुझे सूर्य के समान सुखद लगोगे। तुम्हारे अभाव में मेरा यह माध महीने का शीत नहीं छूट सकता। इसी माह में वनस्पतियों की जड़ों में रस पड़ना प्रारंभ होता है। विरहरूपी पवन झकझोरों से मुझे मार रही है। मेरे नेत्रों से माघ महीने की वर्षा जैसी झड़ी लगी रहती है। आपके वियोग में मेरी अँखों से अश्रुपात होता रहता है।

मैं अपनी गरदन में हार भी नहीं डाल सकती क्योंकि मेरी गरदन सूख कर डोरे जैसी हो गई है। तुम्हारे अभाव में मुझे माहौट की वर्षा की बूँदे ओलों की भाँति कष्टकर प्रतीत होती हैं। इससे भीगे हुए वस्त्र मुझे बाणों की तरह चुभते हैं। अब मैं किसके लिए भृंगार करूँ और किसके लिए स्वयं को रेशमी वस्तों से सुसज्जित करूँ? क्योंकि तुम ही वह भ्रमर हो जो मेरे यौवन-रूपी पुष्प का उपभोग कर सकता है। नागमती कहती है कि हे स्वामी। आपके विरह में मैं बहुत हल्की अथवा दुर्बल हो गई हूँ। मेरा शरीर तिनकों के समान हिलता रहता है। इस पर विरह की आग मुझे जलाकर राख के समान उड़ा देना चाहती है।

विशेष :

  1. नागमती का विरह सर्दियों में और भी अधिक तीव्र हो जाता है। अपने प्रियतम के वियोग में वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है।
  2. अवधी भाषा का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
  3. विप्रलंभ भृंगार में करुण रस की धारा प्रवाहित हो रही है।
  4. उपमा, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश और अनुप्रास अलंकार हैं।
  5. ‘लोगड माँह ……….. जो वन फूलू’ में चौपाई छंद और ‘तुम्ह बिनु ………. झोल’ में दोहा छंद है।
  6. तत्सम तद्भव शब्दावली की सहज-समन्वित प्रयोग किया गया है।
  7. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।

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4. फागुन पवन झंकोर बहा। चौगुन सीड जाइ किमि सहा।।
तन जस धियर पात भा मोरा। बिरह न रह पयन होड झोरा।
तरिवर झरै झर बन ढाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा।
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कह भा जग दून उदासू॥
फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिंजिय लाइ दीन्छिजसि होरी।।
जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा ॥
रातिद्दु देवस इहै मन मोरें। लागौ कंत धार जेऊँ तोरें।।
यह तन जारौं छार कै, कहां कि पवन उडाड।
मकु तेहि मारग होड परौं, कंत धर जहँ पाड॥

शब्दार्थ : बहा – बहना, प्रवाहित होना। सहा – सहन करना। पियर – पीला। बनाफति – वनस्पतियाँ। दून – दुगना। हुलासू – प्रसन्नता, उल्लास। चाँचरि – होली के समय एक-दूसरे पर रंग डालकर खेले जाने वाला खेल। मकु – शायद।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ के ‘बारहमासा’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने राजा रत्लसेन के वियोग में संतप्त रानी नागमती की विरह का वर्णन किया है।

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व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि फागुन के महीने में विरह से व्याकुल नागमती की दशा का वर्णन किया है। कवि लिखता है कि नागमती अपनी विरहाकुल दशा के संबंध में अपने पति को बताते हुए कहती है कि हे स्वामी! फागुन के महीने में हवा झकझोरों के साथ बह रही है जिससे शीत का प्रकोष चौगुना हो गया है। इसे मैं अकेली और विरहिणी किस प्रकार सहन करूँ? मेरे शरीर की कांति पीले पत्ते जैसी हो गई है। विरह के कारण यह पीले पत्ते जैसा शरीर भी सुरक्षित नहीं रह पाएगा, क्योंकि विरह के झकझोरे उसे नष्ट कर देंगे।

इस प्रकार मेरे प्राणांत होने की संभावना है। अब सभी वृक्षों के पत्ते झड़ने लगे हैं, ढाकों के भी पत्ते झड़ रहे हैं। जितनी भी लताएँ हैं वे फल-फूल और पत्तों से रहित हो गई हैं। अब वनस्पतियों में नई कोंपले फूटने लगी हैं। वे इन कोंपलों के द्वारा अपना उल्लास व्यक्त करती प्रतीत हो रही हैं। एक ओर तो लताएँ हैं जो अपने प्रियतम वसंत से मिलकर नवोल्लास से पूर्ण हो चुकी हैं, दूसरी ओर विरहिणी मैं हैँ, जो आपके न लौटने के कारण और भी अधिक उदास हो गई है। मेरी सभी सखियाँ चाँचरि जोड़कर फाग मना रही हैं।

सखियों को अपने प्रियतमों के साथ रास रंग मनाते देखकर मेरे मन में विरह की आग इस प्रकार भड़क उठती है मानो उसमें होली जला दी गई हो। है स्वामी । यदि आपको मेरा इस प्रकार विरह की आग में जलना अच्छा लगता है, तो में सहर्ष इस प्रकार जलते हुए मर जाऊँगी और मुझ्ने क्रोध नहीं आएगा। है प्रियतम ! मैं तो दिन-रात यही सोचती रहती हूँ कि आपके थाल जैसे विशाल हृदय से लग जाऊँ।

नागमती कहती है कि हे स्वामी ! मेरी इच्छा तो यह है कि मैं आपको वियोगाग्नि में अपने शरीर को जलाकर राख कर दूँ और पवन से कहूँ कि वह मुझे उड़ा ले जाए। ऐसा करने पर शायद मेरी राख उस मार्ग पर गिर पड़े जहाँ पर आप अपने चरण रखेंगे। मैं तो राख बनकर भी आपके चरण चूमना चाहती हूँ।

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विशेष :

  1. नागमती स्वयं को अपने स्वामी की विरहाग्नि में जलाकर राख बनकर उनके चरणों को स्पर्श करना चाहती है। वह आत्मबलिदान के लिए तत्पर है।
  2. अवधी भाषा का सहज्ज रूप से प्रयोग किया गया है।
  3. उपमा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश तथा उत्रेक्षा अलंकार हैं।
  4. विप्रलंभ भृंगार का मार्मिक चित्रण किया गया है।
  5. ‘फागुन पवन ……… जेऊँ तोरें’ में चौपाई छंद तथा ‘यह तन ………. जहाँ पाउ’ में दोहा छंद है।
  6. अभिधात्मकता ने कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है।
  7. स्वरमैत्री ने कथन को लयात्मकता प्रदान की है।