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भरत-राम का प्रेम Summary – तुलसीदास के पद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary

भरत-राम का प्रेम, तुलसीदास के पद – तुलसीदास – कवि परिचय

कवि-परिचय :

जीवन-परिचय-हिंदी-साहित्य के भक्ति काल की सगुण राम भक्ति काव्यधारा के कवियों में गोस्वामी तुलसीदास मुकुटशिरोमणि माने जाते हैं। इन्होंने अपनी महान कृति रामचरितमानस के द्वारा केवल राम काव्य को ही समृद्ध नहीं किया, अपितु मानस के द्वारा इन्होंने तत्कालीन समाज का भी मार्ग-दर्शन किया। इसका जन्म सन 1532 ई० में बाँदा ज्ञिले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म-स्थान सोरों स्वीकार करते हैं। इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का शैशव बड़ी कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। जन्म लेते ही माँ की मृत्यु हो जाने के कारण पिता ने उन्हें त्याग दिया था।

उन्होंने महात्मा नरहरि दास के आश्रय में विद्या ग्रहण की। कहते हैं कि तुलसीदास अपनी पत्ली रत्लावली पर विशेष अनुरक्त थे। पत्नी की फटकार ने तुलसी के ह्रदय में संसार के प्रति विरक्ति का भाव पैदा कर दिया। उन्होंने घर-बार छोड़कर अपना जीवन राम के चरणों में अर्पित कर दिया। इनका निधन सन 1623 में हुआ माना जाता है।

रचनाएँ – तुलसीदास की रचनाओं में निम्नलिखित विशेष प्रसिद्ध हैं-रामचरितमानस, गीतावली, कवितावली, विनय पत्रिका और कृष्ण गीतावली।

‘कवितावली’ और ‘गीतावली’ अपने मधुर सरस गीतों के कारण जनता में काफ़ी लोकप्रिय हैं। इन सारे ग्रंथों में तुलसी ने श्री राम के चरिंत्र का ही अंकन किया है। ‘मानस’ में राम की कथा योजना-बद्ध रूप से विस्तार के साथ कही गई है। अन्य ग्रंधों में वही कथा फुटकर गीतों के रूप में मिलती है। ‘विनय पत्रिका’ तुलसी की अंतिम रचना मानी जाती है। इसमें तुलसी ने विभिन्न देवी-देवताओं, सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुछ, हनुमान आदि से यह प्रार्थना की है कि वे अनुकूल अवसर देखकर राम के सामने तुलसी की इस विनय पत्रिका अर्थात् विनती को प्रस्तुत कर दें। अपनी इस अर्ज्जी में तुलसी ने राम से अपना उद्धार करने की प्रार्थना की है। काव्य-साधना की दृष्टि से विनय पत्रिका में तुलसी की काव्य-कला का प्रौढ़तम रूप मिलता है।

साहित्यिक विशेषताएँ-तुलसीदास के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) राम का स्वरूप – तुलसीदास ने अपने काव्य में राम को विष्णु का अवतार मानते हुए उसके निर्गुण और सगुण दोनों रूपों की आराधना की है और कहा है –

सोईं दशरथ सुत भगत हित, कौसलपति भगवान।

उन्होंने राम को धर्म का उद्धार करने वाला तथा अधर्म का नाश करने वाला माना है। इन्होंने राम के चरित्र में शील, सॉदर्य और शक्ति का समन्वय प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने राम की आराधना दास्य भाव से की है तथा अपनी भक्ति को चातक के समान माना है। ये भक्ति और ज्ञान को अभेद मानते हुए भी ज्ञान की अपेक्षा शक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं –

सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि॥

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(ii) विषय की व्यापकता – तुलसीदास ने अपने काव्य में जीवन के विविध रूपों को यथार्थ अभिव्यक्ति प्रदान की है। रामचरितमानस में राम-जन्म से राम के राजतिलक की कथा को सात कांडों में प्रस्त्तुत करते हुए कवि ने मानव-जीवन के विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक पक्षों का भी विस्तार समस्त विषयों का प्रतिपादन किया है। मानस के उत्तर कांड में कलयुग के प्रकोप का वर्णन आज भी समसामयिक है तथा हमारा मार्गदर्शन करता है।

(iii) लोकमंगल तथा समन्वय की भावना – तुलसी एक श्रेष्ठ कवि तथा सच्चे लोकनायक थे। इनका समस्त कार्य आदर्श समाज की स्थापना का संदेश देता है। मानस में कवि ने राम को आदर्श पुत्र, सीता को आदर्श पत्नी, भरत और लक्ष्मण को आदर्श भाई, कौशल्या को आदर्श माता, हनुमान को आदर्श सेवक तथा राजतिलक के पश्चात राम को आदर्श राजा के रूप में प्रस्तुत कर आदर्श गृहस्थ, आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना को साकार रूप प्रदान किया है। इसके साथ ही कवि ने अपने व्यापक दृष्टिकोण के कारण अपने काव्य के माध्यम से लोक और शास्त्र, गृहस्थ और वैराष्य, भक्ति और ज्ञान, निर्गुण और सगुण, भाषा और संस्कृति आदि का समन्वय करने का भी सफल प्रयास किया है।

(iv) प्रवंध कौशल – काव्य-कला की दृष्टि से तुलसी द्वारा रचित मानस हिंदी-साहित्य का श्रेष्ठतम प्रबंध काव्य है। इस महाकाव्य की रचना में कवि ने समस्त काव्य-शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए रामकथा को कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया है। मानस में राम-सीता का प्रथम दर्शन, राम-वन-गमन, दशरथ-मृत्यु, भरत-मिलाप, सीता-हरण, लक्ष्मण-मूह्छा आदि अनेक मार्मिक प्रसंगों की भी सफलतापूर्वक रचना हुई है। इस प्रकार प्रबंधकार के रूप में तुलसी जी एक सफल कवि हैं।

(v) भाव और रस – तुलसीदास मूलरूप से भक्त कवि थे, अत: इनकी रचना का मूल रस शांत है, किंतु इनके काव्य में यथास्थान शृंगार का भी समावेश हुआ है। इसके अतिरिक्त, हास्य-रौद्र, भयानक तथा वीभत्स रस के उदाहरण भी प्राप्त हो जाते हैं। कवितावली के बालकांड में वात्सल्य रस के सुंदर उदाहरण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्राय: सभी रसों का परिपाक तुलसी के काव्य में हुआ है।

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(vi) भाघा-शैली – तुलसी ने अपने काव्य की रचना अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं में की है।’ मानस’ अवधी तथा ‘विनय पत्रिका’ ब्रजभाषा की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। कवि ने आवश्यकतानुसार प्रचलित उर्दू फ़ारसी, बंदेलखंडी, भोजपुरी आदि भाषाओं के शब्दों का भी अपने काव्य में प्रयोग किया। इन्होंने अपने काव्य की रचना तत्कालीन युग में प्रचलित सभी शैलियों में की है। दोहा-चौपाई में कवि ने प्रयंध काव्य तथा गीति शैली में मुक्तक काव्यों का प्रणयन किया है। इनके प्रिय छंद दोहा, चौपाई, सोरठा, बरवै, कवित्त, सवैया आदि है। अलंकारों में कवि ने रूपक, अनुप्रास, उपमा, उत्रेक्षा, दृष्टांत, उदाहरण, यमक आदि अलंकारों का अधिक प्रयोग किया है।

निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि तुलसीदास के काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष अपने उत्कृष्ट रूप में प्राप्त होता है। इन्होंने अपने काव्य के द्वारा तत्कालीन समाज में व्याप्त आडंबरों, पाखंडों आदि का विरोध करते हुए एक ऐसे लोक-धर्म की स्थापना की कल्पना की जो सबका कल्याण करने वाला था। इन्होंने भकित, ज्ञान और कर्म का समन्वय प्रस्तुत करते हुए पारस्परिक विरोधों एवं कटुताओं को दूर किया। यही कारण है कि तुलसीदास को हिंदी कविता-कानन का सबसे बड़ा वृक्ष कहते है, जिसकी शाखा-प्रशाखाओं में काव्य-कौशल की चार्ता और रमणीयता सर्वत्र दिखाई देती है।

Bharat Ram Ka Prem Class 12 Hindi Summary

‘भरत-राम का प्रेम’ कक्ति तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्याकोंड’ से ली गई है। इस कविता में उस समय का वर्णन किया गया है जब श्रीराम वनवास चले जाते हैं। भरत को जब इस बात का पता चलता है तो वह उन्हें अयोध्या वापिस लाने के लिए चित्रकूट जाते हैं। उसके साथ अयोध्या से अन्य लोग भी चित्रकूट जाते हैं। चित्रकूट में आयोजित सभा में भरत श्रीराम के सम्मुख अपने मन के भावों को व्यक्त करते हुए कहते है कि श्रीराम का मेरे प्रति विशेष स्वेह है।

वे तो बचपन से ही उसके प्रिय रहे हैं तथा वे भी उसे अपना स्नेह देते रहे हैं। विधाता को ही उनका यह प्रेम पसंद नहीं आया जो उसने मेरी माता के माध्यम से हम दोनों में भेद उत्पन्न कर दिया है। अयोध्या के समस्त नर-नारी, हमारी माताएँ सभी राम के वन गमन से दुखी है। मैंवर्य को ही इस समस्त अनर्थाँ का मूल कारण मानता हैं। श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के तपस्वियों जैसे वेष को देखकर मेरा जीवित रहना उचित नहीं है। विधाता ने समस्त दुखों को कैकेयी के पुत्र भरत के लिए ही बना दिए हैं।

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Tulsidas Ke Pad Class 12 Hindi Summary

‘पद’ शीर्षक कविता के अंतर्गत तुलसीदास द्वारा रचित ‘ गीतावली’ से दो पद संकलित किए गए हैं।
प्रथम पद में राम के वन-गमन के बाद माता कौशल्या की मानसिक व्यथा का वर्णन किया गया है। वे बार-बार राम के बचपन की वस्तुओंधनुष, जूतियाँ आदि को देखकर अपने हहदय से लगाती हैं और कभी राम को जगाने का गीत गाने लगती हैं तो कभी भोजन के लिए पुकार उठती हैं। जब उन्हें राम के वन जाने की याद आ जाती है तो वे चित्रलिखित-सी रह आती है।

द्वितीय पद में भी राम के वन-गमन के वियोग में संतप्त माता कौशल्या की मनोदशा का ही वर्णन किया गया है। वे राम को उनके वियोग में तड़पते हुए उनके घोड़ों की याद दिलाकर अयोध्या आने के लिए कहती हैं। उनके वियोग में उनके पाले हुए घोड़े दुर्वल होते जा रहे हैं। वे एक बार आकर इनें अवश्य देख जाएँ।

भरत-राम का प्रेम सप्रसंग व्याख्या

1. पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।
कहब मोर मुनिनाथ निखाहा। एहि तें अधिक कहौं में काहा॥
मैं जानडैं निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ ॥
मो पर कृषा सनेहु बिसेखी। खोलत खुनिस न कबहूँ देखी ॥
सिसुपन तें परिहरेडैं न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेंहुँ खेल जितावहिं मोही।।
महूँ सनेह सकोच्च बस सनमुख कही न बैन।
द्रसन तृपित न आजु लगि प्रेम पिआसे नैन॥

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शब्दार्थ : पुलकि – रोमांचित। ठाढे – खड़े होना। नीरज – कमल। नयन – नेत्र। नेह – प्रेम। कहब – कहना। मोर – मेरा। एहि – इस। तें – से। काहा – क्या। कोह – क्रोध। बिसेखी – विशेष। खुनिस – अप्रसन्नता। सिसुपन – बचपन। परिहरेड – छोड़ा। भंगू – तोड़ा। महूँ – मैंने भी। बैन – शब्द, बोलना। तृप्ति – तृप्त, संतुष्ट।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्याकांड’ के ‘भरत-राम का प्रेम’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में उस समय का वर्णन किया गया है, जब भरत राम को अयोध्या लौटा ले जाने के लिए चित्रकूट आते हैं।

व्याख्या : इन पंक्तियों में चित्रकूट में आयोजित सभा में जब राम भरत की प्रशंसा करते हैं तो मुनि वशिष्ठ भरत को अपने मन की बात कहने के लिए कहते हैं। ये सुनकर भरत जी का शरीर रोमांचित हो उठता है और वे सभा में खड़े हो जाते है। उनके कमल के समान नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती है। वे कहते हैं कि उन्होंने जो कुछ कहना था, वह सब तो मुनिनाथ ने पहले ही कह दिया है, इस से अधिक और मैं क्या कहूँ? में अपने स्वामी श्रीराम का स्वभाव जानता हूं। उन्हें तो अपराधियों पर भी कभी क्रोध नहीं आता है।

मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने तो खेल में भी कभी उनकी अप्रसन्नता नहीं देखी। बचपन से ही मैने उनका साथ नही छोड़ा और उन्होंने भी कभी मेरा मन नहीं तोड़ा अर्थात वे भी मेरी इच्छा के विरुद्ध कभी कोई कार्य नहीं करते। मैंने प्रभु की कृपा करने की रीति को अपने हुदय में अच्छी प्रकार से अनुभव किया है। वे मुझे खेल में हारने पर भी जिता देते थे। मैंने भी सदा उनका सम्मान किया है और प्रेम और संकोचवश उनके सामने कभी भी मुँह नहीं खोला है। प्रभु प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक उनके दर्शन से तृप्त नहीं हुए हैं।

काव्य-सौंद्य :

  1. इन पंक्तियों में भरत का राम के प्रति अनन्य प्रेम अभिव्यक्त हुआ है।
  2. अनुप्रास, उपमा, रूपक तथा उत्रेक्षा अलंकार हैं।
  3. अवधी भाषा का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
  4. ‘पुलकि सरीर ……….. जितावहहं मोंही।’ में चौपाई छंद और महूँ सनेह …… पिआसे नैन’ में दोहा छंद है।
  5. अभिधा शब्द-शक्ति के माध्यम से भावों की तीव्रता सहज रूप से व्यक्त हुई है।
  6. माधुर्य गुण विद्यमान है।
  7. एवरमैत्री और छंद प्रयोग ने लयात्मकता की सृष्टि की है।

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2. बिधि न सकेठ सेहि मोर दुलारा। नीच बीच जननी मिस पारा॥
यहड कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा ॥
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरह कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।
सपनेहुं दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥
बिनु समझें निज अघ परिपाकू। जारिठँ जायँ जननि कहि काकू॥
हुदयँ हेरि हारेडँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा ॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू”।
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहडँ सुथल सति भाड।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराज।।

शब्दार्थ बिधि – विधाता। सहि – सहज करना। मिस – बहाना। पारा – पाला, अंतर। सुचि – पवित्र, शुद्ध, सच्चा। भा – हुआ। मंदि – नीच। सुचाली – सदाचारी। फरह – फलना। कोदव – मोटा चावल, कोदों। सुसाली – धान। मुकुता – मोती। प्रसव – उत्पन्न करना। संबुक – घोंघी। लेसु – लेशमात्र, जरा-सा। उद्धि – समुद्र। अवगाहू – अथाह। अघ – पाप। परिपाक् – परिणाम, फल, कर्मफल। काकू – कटुवचन, व्यंग्य। ओरा – ओर, तरफ। भल – भला। सुथल – पवित्र स्थान। सतिभाड – सत्यभाव से। प्रपंचु – छल-कपट। फुर – सत्य, सच।

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प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्याकांड के ‘भरत-राम का प्रेम’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने चित्रकूट में राम को अयोध्या लौट चलने के लिए भरत प्रार्थना करते हैं और उन्हें वनवास दिलाने में उनका कोई हाथ नहीं होने का विश्वास दिलाते हैं।

व्याख्या : इन पंक्तियों में भरत अपने और राम के अटूट स्नेह का उल्लेख करते हुए चित्रकूट की सभा में कहते हैं कि विधाता को मेरा और राम का स्नेह संबंध सहन नहीं हुआ, इसलिए उसने मेरी नीच माता के बहाने मेरे और राम में अंतर उत्पन्न कर दिया अथवा फूट डाल दी। मुझे आज यह कहना भी शोभा नहीं दे रहा क्योंकि अपनी समझ से कोई भी साधु और पवित्र या सच्चा नहीं होता है। यदि मैं यह कहूँ कि माता नीच और मैं सदाचारी और साधु हूँ तो ऐसे भाव हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान है।

क्या कौवों की बोली उत्तम धान फल सकती है ? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है ? ऐसे संभव नहीं है। इसलिए इस सबके लिए स्वप्न में भी किसी का ज्ञरा-सा भी दोष नहीं है। यह सब तो मेरे अभाग्य का अथाह समुद्र ही हैं जो मँने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही अपनी माता को कटुवचन कहकर व्यर्थ ही जलाया है। मैं अपने हुदय में सब ओर खोजकर हार गया हूँ। मुझे अपनी भलाई का कोई साधन नहीं सूझ रहा।

मुझे अपनी भलाई का एक ही रास्ता दिखाई दे रहा है और मेरा भला भी इसी में है। वह यह कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और सीता-राम मेरे स्वामी हैं। इससे परिणाम मुझे अच्छा लग रहा है। साधुओं की इस सभा में गुरु जी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ-स्थान में मैं सत्यभाव से कहता हूँ कि मेरा यह प्रेम छल-कपट, झूठ या सच है, इसे सर्वज मुनि वशिष्ठ और श्रीराम ही जानते हैं।

काव्य-सॉंदर्य :

  1. भरत श्रीराम के प्रति अपने अनन्य प्रेम को व्यक्त करते हुए राम के वनवास को अपना दुराग्य और विधाता की विडंबना मानते हैं।
  2. अनुप्रास, स्वरमैत्री, रूपक और उदाहरण अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
  3. अवधी भाषा का सहज, स्वाभाविक एवं प्रवाहमय प्रयोग किया गया है।
  4. ‘विधि न परिनामू’ में चौपाई छंदु और ‘साधु सभा रघुराठ ‘ में दोहा छंद है।
  5. स्वरमैत्री और दोहा-चौपाई छंद ने संगीतात्मकता की सृष्टि की है।
  6. लाक्षणिकता ने कवि के भावों को गहनता-गंभीरता प्रदान की है।
  7. तत्सम और तद्भव शब्दावली का सहज-समन्वित प्रयोग सराहनीय है।

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3. भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिडँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेडँ ऐहि घाएँ।।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयड न बेहू॥
अब सबु आँखिन्ह देखेडें आई। जिअत जीव जड़ सबड सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तज्ञाह बिषम बियु तामस तीछी।।
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दु:ख दैउ सहावइ काहि।।

शब्दार्थ : मही – मैं ही। कुमति – कुबुदधि। जरहिं – जलना। दुसह – असहनीय। जर – ताप। सूला – दु:ख, कष्ट। पानहिन्ह – जूते। पयादेहि – पैदल। घाएँ – घाव, आघात। निहारि – देखकर। कुलिस – वज्र। बेहू- छेद, भेदन। बीछी – बिछु। तीछी – तीव्र। तामस – क्रोध। अनहित – जो हितकारी न हो, शत्रु। तनय – पुत्र। दुसह – असहनीय। दैउ – दैव, विधाता।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के अयोध्याकांड के ‘भरत-राम का प्रेम’ प्रसंग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कवि ने चित्रकूट में वनवास कर रहे राम को अयोध्या लौटाने के लिए आए भरत के मनोभायों का चित्रण किया है।

व्याख्या : चित्रकूट की सभा में भरत राम को अयोध्या की दयनीय दशा का वर्णन सुनाकर अयोध्या लौट चलने का अनुरोध करते हैं। भरत कहते हैं कि राम के प्रति अपने प्रेम के प्रण का निर्वाह करते हुए महाराज दशरथ का मरना तथा माता कैकेयी की दुर्बुद्धि इन दोनों का सारा संसार साक्षी है। इस दुखद प्रकरण से माताएँ व्याकुल हैं। उनके दुख को देखा नहीं जाता है। समस्त अवध के नर-नारी भी आपके वियोग रूपी असहनीय ताप से जल रहे हैं। इन सब अनर्थों का मूल मैं ही है।

यह सुन और समझकर मैंने सब दुख सहा है। श्री राम सीता और लक्ष्मण सहित मुनियों के वेष में बिना जूते पहने नंगे-पाँव पैदल ही वन चले गए, यह सुनकर, शंकर जी साक्षी हैं, कि में यह घाव लगने से भी जीवित रह गया अथवा यह सुनकर आो आघात मुझे लगा, उससे मेरे प्राण क्यों नहीं निकल गए ? फिर जब मेने निषादराज का प्रेम देखा तो मेरा यह वज्र से भी कठोर हदय फट क्यों नहीं गया ? अब यहाँ आकर अपनी आँखों से सब देख लिया है।

यह जड़-जीव जीवित रहकर सब कुछ सहन करेगा, जिन्हें देखकर रास्ते के साँप और बिच्छू भी अपना भयानक विष और तीव्र क्रोध त्याग देते हैं। रछुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसे शत्रु प्रतीत हुए उस कैकेयी के पुत्र को छोड़कर दैव असहनीय दुख और किसे सहन होगा।

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कान्य-सौंदर्य :

  1. भरत स्वर्य को राम-बनवास का कारण मानकर स्वयं को अपराधी तथा अभागा मानते हैं।
  2. अनुप्रास, स्वरमैत्री और पदमैत्री अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
  3. अवधी भाषा का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
  4. ‘भूपति मरन ……. तामस तीछी’ में चौपाई छंद और ‘तेइ रखुनंदन ……. सहावइ काहि’ में दोहा छंद है।
  5. तत्सम, तद्भब और देशजा शब्दावली का सहज-समन्वित प्रयोग किया गया है।
  6. अभिधात्मकता के प्रयोग ने कवि के कथन को सरसता प्रदान की है।
  7. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।

तुलसीदास के पद सप्रसंग व्याख्या

1. जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नैनानि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
“उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुल सखा सब द्वारे।”
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भई जाहु भूप पहँ, भैया।”
बंधु बोलि जेंइय जो भावै कई निछावरि मै या”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी-सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी-सी।।

शब्दार्थ : जननी – माता। निरखति – देखती। धनुहियाँ – छोटा धनुष। ललित – सुंदर। पनहियाँ – जूतियाँ। प्रथम – पहले। बदन – मुख। बार – देर। जेंइय – भोजन करना। भावै – अच्छा लगे। चकि – चकित। चित्रलिखी-सी – चित्र के समान।

प्रसंग : प्रस्तुत पद तुलसीदास द्ववारा रचित ‘गीतावली’ के अयोध्याकांड से लिया गया है। इस पद में राम वन-गमन से संतप्त माता काँशल्या की दशा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या : कवि लिखता है कि राम के वन चले जाने के बाद माता कौशल्या गम के खेल-कूद के धनुष को देखती हैं और प्रभु जी की जो नन्हीं-नन्ही सुंदर जूतियौँ हैं, उन्हें बार-बार हुदय और नेत्रों से लगाती हैं। वे कभी पहले की भौँति सवेरे ही राम के शयन कक्ष में जाकर इस प्रकार के प्रिय वचन कहकर उन्ह जगाने लगती हैं कि हे पुत्र ! उठो, तुम्हारे मुखचंद्र पर तुम्हारी माता बलिहारी जाती है।

देखो, सारे अनुज और सखागण द्वार पर खड़े हैं। वे कभी कहती हैं कि ‘भैया बहुत देर हो गई है। महाराज के पास जाओ और अपने भाइयों को बुलाकर लाओ। तुम्हें जो अचा लगे, वह भोजन करो। माता तुम पर निछावर होती है’। कभी राम का वनगमन स्परण कर वह चकित होकर चित्रलिखित-सी रह जाती है। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय का वर्णन करने से तो प्रीति सीखी हुई-सी जान पड़ती है, क्योंक सच्चा प्रेम होने पर तो उसका वर्णन ही नहीं हो सकेगा, चित्त विवश होकर विरहाचि में दग्ध हो जाएगा।

Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary - Bharat Ram Ka Prem, Tulsidas Ke Pad Summary Vyakhya

काव्य-सौंदर्य :

  1. राम के वियोग में संतप्त कौशल्या की व्याकुलता का वर्णन है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास, स्वरमैत्री और उपमा अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
  3. अवधी मिश्रित ब्रजभाषा है।
  4. राग सोरठा पर आधारित गेय पद है।
  5. करुण रस विद्यमान है।
  6. संवादात्मकता ने नाटकीयता की सृष्टि की है।
  7. स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।
  8. अभिधात्मकता का प्रयोग है।

2. राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।
जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवाहं, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसारे।।
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन केहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो ॥

शब्दार्थ : राघौ – राघव, राम। बर – श्रेष्ट। बाजि – घोड़े। बहुरो – फिर। सिधावौ – लौट जाओ। पय – दूध। पोखित – पुष्ट। कर-पंकज – कर कमल, कमल रूपी हाथ। चुचुकारे – पुचकारना, दुलारना। निपट- बिलकुल। झाँवरे – दुर्बल, कमज़ोर। हिम – पाला। अँदेसो – चिंता।

प्रसंग : प्रस्तुत पद तुलसीदास द्वारा रचित ‘गीतावली’ के अयोध्याकांड से लिया गया है। इस पद में राम वन-गमन से व्याकुल अयोध्या के घोड़ों की दशा का वर्णन करते हुए माता कौशल्या राम को अयोध्या आने के लिए कहती हैं।

व्याख्या : कवि लिखता है कि राम के वनगमन से अयोध्या के पशु-पक्षी भी विरह-व्यथित हैं। माता कौशल्या राम के द्वारा पालित घोड़ों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहती हैं कि हे राघव! तुम एक बार तो अवश्य लौट आओ। यहाँ अपने इन श्रेष्ठ घोड़ों को देखकर फिर वन में चले जाना, जिन्हें तुमने दूध पिलाकर, अपने ही कर-कमलों से पुष्ट कर बार-बार दुलारा और पुचकारा था। ऐ मेंरे लाडले राम! उन्हें तुमने एकदम भुला दिया है।

तुम्हारे इस प्रकार उन्हें भुला देने से वे कैसे जीवित रह सकेंगे ? इन घोड़ों को तुम्हारे अत्यंत प्रिय समझकर भरत इनकी तुमसे भी सौ गुनी अधिक देखभाल करते हैं, फिर भी वे तुम्हारे वियोग में दिन-प्रतिदिन इस प्रकार से दुर्वल होते जा रहे हैं जैसे कमल को पाले ने मार दिया हो। किसी पथिक को संबोधित करते हुए माता कौशल्या कहती है कि हे पथिक! सुनना, यदि राम तुम्हें वन में कहीं मिलते हैं तो उन्हें उनकी माता का यह संदेश दे देना और कहना कि माता कौशल्या को सब से अधिक इनकी चिंता लगी हुई है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 7 Summary - Bharat Ram Ka Prem, Tulsidas Ke Pad Summary Vyakhya

काव्य-सौंदर्य :

  1. राम के वियोग में अयोध्या के नर-नारी ही नहीं पशु-पक्षी भी व्यथित हैं, इसलिए माता कौशल्या राम के द्वारा पाले गए घोड़ों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए राम को अयोध्या लौट आने के लिए कह रही हैं।
  2. अनुप्रास, रूपक, उपमा, स्वरमैत्री और पुनरुक्तिप्रकाश अरंकारों का सहज प्रयोग किया गया है।
  3. अवधी मिश्रित ब्रजभाषा का सहज रूप से प्रयोग किया है।
  4. राग सोरठा पर आधारित गेय पद है।
  5. करुण रस का प्रयोग है।
  6. अभिधात्मकता का प्रयोग कथन की सरलता-सरसता का आधार बना है।
  7. स्वरमैत्री का प्रयोग गेयता को उत्पन्न करने में सफल हुआ है।