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एक कम Summary – सत्य Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 5 Summary
एक कम, सत्य – विष्णु खरे – कवि परिचय
कवि-परिचय :
जीवन-परिचय – विष्णु खरे का जन्म छिंदवाड़ा में सन् 1940 ई० में हुआ था। इन्होंने इंदौर से क्रिश्चियन कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में एम० ए० किया था। इन्होंने अपने जीवन के कार्यक्षेत्र का आरंभ ‘इंदौर समाचार’ के उपसंपादक के रूप में किया था। सन 1963 से 1975 तक इन्होंने मध्य प्रदेश और दिल्ली के कई महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य भी किया। इन्होंने ‘व्यास’ नामक लघु पत्रिका का संपादन भी किया था। सन 1976 से 1984 तक ये साहित्य अकादमी में उपसचिव (कार्यक्रम) के पदं पर कार्यरत रहे।
सन् 1985 से इन्होंने ‘नवभारत टाइम्स’ के कार्यकारी संपादक और सन 1993 में जयपुर नवभारत टाइम्स के संपादक के रूप में कार्य किया। संप्रति वे स्वतंत्र लेखन करते हैं। इन्होंने विदेशी कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। इन्हें फिनलैंड के ‘नाइट ऑफ़ दि आर्डर ऑफ़ दि व्हाइट रोज्र’ के राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया गया था। इन्हें रघुवीर सहाय सम्मान, शिखर सम्मान, साहित्यकार सम्मान और मैधिलीशरण गुप्त सम्मान भी मिल चुके हैं।
रचनाएँ – विष्णु खरे की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
i. काव्य-संग्रह – एक गैर-रूमानी समय में, खुद अपनी आँख से, सबकी आवाज़ के परदे में, पिछला बाकी, काल और अवधि के दरामियान।
ii. अनुवाद – मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ (टी० एस॰ इलियट का अनुवाद)।
iii. आलोचना – आलोचना की पहली किताब।
काव्य की विशेषताएँ – विष्णु खरे के काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
i. समसामयिक जीवन का चित्रण – विष्णु खरे के काव्य में समकालीन जीवन का यथार्थ अंकन प्राप्त होता है। उनकी कविता कल्पना – लोक में विचरण करने वाली नहीं है, अपितु जीवन के मधुर-तिक्त अनुभवों को वाणी प्रदान करती है। आजादी के बाद देश की विषम स्थिति का वर्णन कवि ने इन शब्दों में किया है –
1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत, या बच्चा खड़ा है ?
ii. मानवीय संवेदना का चित्रण-विष्णु खरे मानवीय संवेदनाओं के रागात्मक कवि हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में मानवीय संवेदनाओं के करुण, विश्वास, प्रेम, सत्य आदि पक्षों का कलात्मक चित्रण किया है। किसी की सहायता न कर सकने की स्थिति में कवि की भावनाएँ इस प्रकार प्रस्फुटित होती हैं –
मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या में भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज्ञ
iii. संघर्षशीलता – विष्णु खरे की कविता में जीवन की विषम परिस्थितियों के सम्मुख आत्म-समर्पण करने अथवा पलायन करने के स्थान पर उनसे जूझने का संदेश प्राप्त होता है। वह नितांत स्वार्थपरता के इस युग में भी कहीं ईमानदारी की एक किरण देखता है और परिस्थितियों से घबरा कर पीछे हट जाने की अपेक्षा उनका सामना करने का संदेश देता है। वह जीवन-संघर्ष से जूझने वालों के लिए बाधक नहीं बनना चाहता। वह कहता है –
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी या प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो
iv. जीवन – मूल्यों की पहचान-विष्णु खरे ने अपनी कविता के माध्यम से हमारे दैनिक जीवन के मूल्यों में होने वाले परिवर्तनों का भी सूक्ष्म चित्रण किया है। सत्य, असत्य, श्रद्धा, आस्था, विश्वास, संबंधों आदि पर कवि ने गहन विचार किया है। सत्य के महत्व को रेखांकित करते हुए कवि कहता है –
जब हम सत्य को पुकारते हैं
तो वह हम से परे हटता जाता है
सत्य शायद जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं
v. भाषा-शैली – विष्णु खरे की काव्यभाषा आम बोलचाल की सहज खड़ी बोली है जिसमें ‘आत्मनिर्भर, आश्रित, निराकांक्षी, संकल्प’ जैसे तत्सम शब्दों के साथ-साथ ‘तरीकों, मालामाल, ईमानदार, औरत’ जैसे विदेशी तथा अन्य तद्भव, देशज शब्दों का भी यथास्थान प्रयोग दिखाई देता है। इनके काव्य में अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, उपमा आदि अलंकारों की प्रमुखता है। इनकी रचना छंद-मुक्त है। लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता इनके काव्य की अन्य विशेषताएँ हैं।
Ek Kam Class 12 Hindi Summary
‘एक कम’ कविता में विष्णु खरे ने स्वतंत्रता के बाद देश में होने वाले परिवर्तनों पर विचार किया है। कवि देश में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार, बेईमानी, जमाखोरी आदि से चिंतित है। उसे लगता है कि आज्ञादी के बाद लोग इन्हीं भ्रष्ट तरीकों से मालामाल होते जा रहे हैं। जो ईमानदार हैं, उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। कवि स्वयं को इन ईमानदारों की सहायता करने में असमर्थ अनुभव करता है। उसकी इनके प्रति सहानुभूति है। वह इन्हें जीवन में निरंतर संघर्षरत रहने की प्रेरणा देता है और उनके मार्ग में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं करना चाहता।
Satya Class 12 Hindi Summary
‘सत्य’ कविता में कवि ने सत्य के महत्व को रेखांकित किया है। कवि ने महाभारत के प्रसंगों के माध्यम से सत्य का स्वरूप स्पष्ट किया है। कवि के अनुसार जब युधिष्ठिर को राज्य के रूप में खांडवप्रस्थ जैसा जंगली क्षेत्र दिया जाता है तो वह अपने प्रति हुए अन्याय का उत्तर विदुर जी से जानना चाहता है, परंतु विदुर जी इस अन्याय का विरोध न करने के कारण स्वयं ही आत्मग्लानि से ग्रस्त हैं। वे युधिष्ठिर के सत्य का सामना नहीं कर पाते और वहाँ से भागते हैं। शमी वृक्ष से टेक लगाकर जब वे टकटकी लगाकर युधिष्ठिर को देखते हैं तो उसे लगता है, मानो कोई ज्योति उसके अंदर आ कर समा गई है। इस प्रकार सत्य कोई वाह्य वस्तु न होकर हमारी आत्मा की आंतरिक शक्ति है जिसके आलोक में हम सत्य के मार्ग पर चल सकते हैं। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है, जरूरी नहीं कि दूसरे व्यक्ति के लिए भी वही सत्य हो। सत्य का रूप वस्तु, स्थिति, घटना और पात्र के अनुसार बदलता रहता है।
एक कम सप्रसंग व्याख्या
1. 1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेंरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत, या बच्चा खड़ा है
शब्दार्थ : कंगाल – निर्धन।
प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘एक कम’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने आज़ादी के बाद देश की बदलती हुई दशा पर चिंता व्यक्त की है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि कहता है कि सन 1947 के बाद जब से देश आज्ञाद हुआ है, अनेक लोगों ने न मालूम कितने तरीकों से अपने आप को आत्मनिर्भर, मालामाल और उन्नत बना लिया है। लोग सही-गलत तरीके अपनाकर मालामाल बन गए हैं। लोगों ने बेईमानी, छल-कपट अपनाकर स्वयं को समृद्ध कर लिया है। जब कभी कोई व्यक्ति हाथ फैला कर पच्चीस पैसे, चाय या दो रोटी की भीख माँगता है तो कवि को पता लग जाता है कि उसके सामने खड़ा जो व्यक्ति, औरत या बच्चा हाथ पसार कर भीख माँग रहा है वह ईमानदार होगा क्योंकि बेईमानी से मालामाल नहीं बन सका होगा।
विशेष :
- इन पंक्तियों में कवि ने आज्ञादी के बाद देश में व्याप्त प्रष्टाचार, बेईमानी आदि पर व्यंग्य किया है। बेईमान इज्जतदार और मालामाल व्यक्ति बन जाते हैं और ईमानदार को भीख माँगनी पड़ती है।
- भाषा सहज, सरल, व्यावहारिक, प्रवाहमयी तथा भावपूर्ण है।
- अनुप्रास अलंकार है।
- छंद-मुक्त रचना है।
- व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है।
- ‘हाथ फैलाना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग किया गया है।
- व्यंग्यात्मक शैली है।
2. मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोळी।
या में भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज़
लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी
या गुस्से पर आभ्रित
तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो।
शब्दार्थ : आश्रित – निर्भर, किसी के सहारे रहना। निराकांक्षी – कोई इच्छा न होना। होड़ – मुकाबला, प्रतियोगिता। प्रतिद्वंद्वी – शत्रु, वैरी, विरोधी।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘एक कम’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने आज़ादी के बाद की देश की दशा पर चिंता व्यक्त की है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि अपनी विवशता का वर्णन करते हुए कहता है कि में असहाय हूँ, एक कंगाल या कोढ़ी की तरह। कवि उस ईमानदार व्यक्ति की व्यथा को स्वर प्रदान करता है जो बेईमानी नहीं करता। उसे उसकी ईमानदारी का फल भीख माँगने के रूप में मिलता है। वह भीख माँगते हुए स्वर्य को दाता की कृपा पर आभ्रित मानता है। कवि स्वयं को ईमानदार व्यक्ति की सहायता न कर सकने में असमर्थ मानकर स्वयं को भलाचंगा, कामचोर अथवा छोटा-मोटा धोखेबाज़ मानता है।
वह स्वयं को उस ईमानदार भिखारी के संकोच, लग्जाभाव, परेशानी अथवा क्रोध पर आश्रित मानता है। कवि स्वयं को एकदम नंगा, लज्जा से रहित तथा बिना किसी कामना के मानते हुए स्वयं को सब प्रकार की प्रतियोगिता अथवा मुकाबले से परे मानता है। वह उस ईमानदार का वैरी अथवा हिस्सेदार भी नहीं बनना चाहता। वह उसे कुछ देने या न देने के लिए भी विवश नहीं है। उससे वह निशिंत रह सकता है क्योंकि वह उसका कुछ्छ बिगाड़ नही सकता।
विशेष :
- कवि जीवन-संघर्षों से जूझने वाले व्यक्ति को निरंतर अपनी विषमताओं से जूझते रहने की प्रेरणा देता है और उसके मार्ग में बाधक न बनने का उसे आश्वासन देता है।
- भाषा सहज, सरल तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
- अनुप्रास अलंकार है।
- छंद मुक्त रचना है।
सत्य सप्रसंग व्याख्या
1. जब्म हम सत्य को पुकारते हैं
तो वह हमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारते हुए युधि्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में
सत्य शायद् जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं।
शब्दार्थ : गुहारते हुए – पुकारते हुए, रक्षा के लिए चिल्लाते हुए।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से ली गई है। इस कविता में कवि ने महाभारत के प्रसंग के आधार पर सत्य के महत्व को स्पष्ट किया है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि सत्य की महिमा का वर्णन करते हुए लिखता है कि हम जब भी सत्य के मार्ग पर चलने लगते हैं तो हमें अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और सत्य हमसे दूर होता जाता है। जैसे खांडवप्रस्थ का राज्य मिलने पर महाभारत में युधिध्ठिर विदुर को इस अन्याय के लिए पुकार रहे थे परंतु विदुर सच्चाई का सामना न कर सकने के कारण घने जगलों में भाग गए थे। उन्हें आत्मग्लानि थी कि वे सत्य का साथ नहीं दे पाए थे। कवि कहता है कि विदुर के इस कार्य से सत्य शायद यह जानना चाहता है कि हम सत्य के लिए कितना भटक सकते हैं ?
विशेष :
- कवि की मान्यता है कि सच्चे व्यक्ति जब किसी अन्याय को देखते हैं और उसका प्रतिकार नहीं कर पाते तो वे उनसे भी मुहह छिपाते फिरते है जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं।
- कवि ने महाभारत के प्रसंग के आधार पर सत्य के महत्व को रेखांकित करने का प्रयास किया है।
- भाषा सहज, भावानुकूल तथा प्रवाहमयी है।
- छंद मुक्त रचना है।
2. कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते।
शब्दार्थ : ओझल – छिपा। धर्मराज – युधिष्ठिर। कुतीनंदन – कुती का पुत्र। ठिठकते – चलते-चलते अचानक रुकना।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने महाभारत के पात्रों के माध्यम से सत्य के महत्व को प्रतिपादित किया है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि स्पष्ट करता है कि सत्य का साथ न देने पर सत्यवादी व्यक्ति की क्या दशा होती है। विदुर ने पांडवों के साथ हुए अन्याय का प्रतिकार नहीं किया था, इसलिए जब युधिध्ठिर उन्हें बुलाते हैं तो वे उनसे मुँह छिपाकर जंगलों में भाग जाते हैं। इस प्रकार सत्य कभी तो स्पष्ट ही सामने आ जाता है और कभी दिखाई ही नही देता। सत्य का अनुसरण करने वाला सत्य को पुकारता ही रह जाता है परंतु वह रूकता नहीं, जैसे कि युधिष्ठिर के बार-बार पुकारने पर भी विदुर नहीं रुके थे। युंधिष्ठिर बार-बार उन्हें कह रहा था कि वह उनका सेवक कुंती का पुत्र युधिष्ठिर है, परंतु वे रुकना तो दूर, क्षण-भर के लिए ठिठककर भी उसकी ओर नही देखते हैं।
विशेष :
- कवि की मान्यता है कि सत्य का पालन करने वाला व्यक्ति यदि असत्य और अन्याय का विरोध नहीं करता, तो वह अपना मुँह छिपाए फिरता है।
- महाभारत के प्रसंग के द्वारा इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है।
- भाषा सहज, सरल, भावानुकूल तथा प्रवाहमयी है।
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
- छंद मुक्त रचना है।
3. यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिर्फ़ खड़ा ही रहता है वह दु़़निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हलका-सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें।
शब्दार्थ : संकल्प – कोई कार्य करने का पक्का विचार, दृढ़ निश्चय।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने महाभारत के प्रसंगों के माध्मय से सत्य का महत्व स्पष्ट किया है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि कहता है कि आज के युग में सत्य भी मानवीय संबंधों में हो रहे परिवर्तनों के अनुरूप बदल रहा है। इसलिए सत्य को पहचानना अथवा पकड़ना कठिन होता जा रहा है। आज यदि हम युधिष्ठिर के समान सत्यवादी बनने का दृढ़ निश्चय कर लेते हैं तो किसी दिन परिस्थिति विशेष के आ जाने पर वह सत्य गतिहीन-सा प्रतीत होता है। जिसने सत्यनिष्ठ होने का दृढ़ निश्चय किया है वह संकल्पी पलटकर खड़ा तो हो जता है परंतु कहीं ओर देखता हुआ-सा हमारी ओर भी देखता है। उसका देखना ऐसा लगता है जैसे वह हमें आखिरी बार देख रहा हो। उस समय सत्य मानो किसी ज्योति का आकार लेकर हममें आकर समा जाता है।
विशेष :
- कवि के अनुसार सत्य के प्रति यदि संदेह हो तो भी सत्य हमारी आत्मा की शक्ति होता है और सत्यनिष्ठ व्यक्ति से सत्य कभी अलग नहीं होता है।
- भाषा सहज, सरल, भावाभिव्यक्ति में सक्षम तथा प्रवाहमयी है।
- छंद-मुक्त रचना है।
4. जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमेष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया।
शब्दार्थ : शमी – सफ़ेद कीकर जैसा एक पवित्र वृक्ष। निर्निमेष – बिनापलक झपकाए, एकटक। धर्मराज – युधिष्ठिर।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता ‘सत्य’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने महाभारत के प्रसंगों के माध्यम से सत्य के महत्य को स्पष्ट किया है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि महाभारत के प्रसंग के द्वारा यह स्पष्ट करता है कि सत्य किस प्रकार से आत्मा की शक्ति है। युधिष्ठिर विदुर को पुकारते हैं परंतु विदुर अनसुना करके घने जंगल में चले जाते हैं। वे जंगल में शमी के वृक्ष के तने से टेक लगाकर युधिष्ठिर को ऐसी दृष्टि से देखते हैं जैसे वे उन्हें पहचानते ही न हों। उनका युधिष्ठिर को अंतिम बार टकटकी लगाकर देखना ऐसा लग रहा था, मानो उनके मन में जो सत्य का आलोक था, वह धीरे-धीरे उनकी दृष्टि से निकलकर युधिष्ठिर में समा गया था। इस प्रकार विदुर के कुछ भी न कहने से ऐसा लगता है जैसे सत्य ने अंत तक कुछ न कहा हो। उनके अंतर्मन से निकली हुई सत्य की ज्योति को हमने अवश्य ही देखा छो हममें विलीन होकर आगे बढ़ गई थी।
विशेष :
i. सत्याचरण मात्र शब्दों के द्वारा ही व्यक्त नहीं होता। यह व्यक्ति के हाव-भाव, रहन-सहन, बोल-चाल आदि के ढंग से भी ज्ञात हो जाता है। विदुर आत्मग्लानिवश युधिष्ठिर को उन पर हुए अन्याय का उत्तर तो नहीं दे सके थे परंतु उनकी विवशता तथा पांडवों के प्रति स्नेह उनकी अंतरात्मा ने नेत्रों द्वारा व्यक्त कर दिया था।
ii. भाषा तत्सम प्रधान, भावानुरूप, सहज तथा प्रवाहमयी है।
iii. पुनरुक्ति प्रकाश, विरोधाभास, अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।
iv. छंद मुक्त रचना है।
5. हम कह नहीं सकते
न तो हममें कोई स्फुरण हुआ और न ही कोई ज्वर
किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं
कैसे जाने कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं
हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।
शब्दार्थ : स्फुरण – अंगों का हिलना, कंपकपी होना।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ विष्णु खरे द्वारा रचित कविता सत्य’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने महाभारत के प्रसंगों के माध्यम से सत्य का महत्त्व प्रतिपादित किया है।
व्याख्या : इन पंकियों में कवि ने सत्य के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। कवि कहता है कि जब तक हमें सत्य की अनुभूति नहीं होती, तब तक हम कह नहीं सकते कि सत्य क्या है ? किसी के एकटक देखने मात्र से हमारे अंदर जब तक कोई कैपकपी अथवा ज्वर जैसा परिवर्तन नहीं होता, तब तक हम जान नहीं पाते कि देखने वाले ने हम पर क्या प्रभाव छोड़ा है।
जीवनभर हम उस क्षण के बारे में सोचते रह जाते है कि किस प्रकार हम जान सकते हैं कि उस व्यक्ति के नेत्रों से निकली अंतर्मन के सत्य की ज्योति हमारे अंदर समा गई है अथवा नहीं ? हमारी आत्मा में कभी-कभी जो एक विचित्र-सी चमक उत्पन्न हो जाती है क्या वह उसी के अंतर्मन से निकली हुई सत्य की ज्योति का स्पर्श तो नहीं है ? कबि को लगता है कि खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए युधिष्ठिर ने भी यही सब कुछ अपना माथा और मुकुट नीचे किए सोचा होगा कि यदि विदुर बताना चाहते तो अवश्य ही बता सकते थे कि सत्य क्या था ?
विशेष :
- सत्य का कोई रूप, आकार या पहचचान न होने के कारण सत्य को पहचानना अत्यंत कठिन होता जा रहा है। सत्य तो आत्मा की आंतरिक शक्ति है। इसे केवल आत्मज्ञान के द्वारा ही पहचाना जा सकता है।
- भाषा तत्सम-प्रधान परंतु सहज और भावानुकूल है।
- मुक्त छंद की रचना है।
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।