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यह दीप अकेला Summary – मैंने देखा, एक बूँद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 3 Summary
यह दीप अकेला, मैंने देखा, एक बूँद – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ – कवि परिचय
कवि-परिचय :
जीवन-परिचय – अज्नेय हिंदी में प्रयोगवादी काव्यधारा के प्रवर्तक माने जाते हैं पर स्वयं उन्होंने प्रयोगवादी होने से सदा इनकार किया है। उनका जन्म 7 मार्च, 1911 ई० को कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) के कसया पुरातत्व खुदाई शिविर में हुआ था। बचपन में वे पिता के साथ अनेक नगरों में घूमते रहे क्योंकि पिता पंडित हीरनंद शास्त्री पुरातत्व विभाग में थे और अपने कार्य के सिलसिले में स्थान-स्थान पर घूमते रहते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत अध्ययन से घर पर ही प्रारंभ हुई।
आपने पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी तथा विश्जान पढ़ने के लिए मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में भर्ती हो गए। लाहौर के फर्गुसन कॉलेज से बी० एस-सी० की परीक्षा पास की और फिर अंग्रेज़ी विषय में एम० ए० करने के लिए दाखिला लिया। इस बीच क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और उनके साथ क्रांंतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। पढ़ाई-लिखाई प्रायः छूट गई। सन 1936 तक अनेक बार उन्हें जेल जाना पड़ा। वे दिल्ली में ही काफी समय तक काल-कोठरी में बंद रहे। जेल में ही ‘चिंता’ तथा ‘शेखर एक जीवनी’ को लिखा। यह समय अश्रेय के जीवन में आत्म-मंथन, शारीरिक यातना और स्वप्न-भंग की पीड़ा से जुड़ा रहा।
बाद में, ‘सैनिक’ का संपादन करने लगे और यहीं पर रामविलास शर्मा, भारतभूषण अग्रवाल तथा प्रभाकर माचवे जैसे साहित्यकारों के संपर्क में आए। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह पर आप डेढ़ वर्ष तक ‘विशाल भारत’ के संपादक-मंडल में कलकत्ता रहे। त्रिपुरी में सुभाषचंद्र बोस के साथ न्याय नहीं हुआ और फिर भी असेय सुभाष के प्रति कहीं श्रद्धा व्यक्त नहीं करते।
आपने ‘दिनमान’ का संपादन-भार सँभाला किंतु उसका घर-बाहर तीव्र विरोध हुआ। अंतत: उन्होंने यह कार्य छोड़ दिया। वे अनेक बार यूरोप और अमेरिका की यात्रा पर गए। विदेशी यात्राओं और विदेशी साहित्य ने अज्ञेय की विचारधारा को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। उनका देहांत 1987 ई० में हुआ।
रचनाएँ – अशेय की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
काव्य – ‘भग्नदूत’, ‘चिंता’, ‘इत्यलम’, ‘हरी घास पर क्षण-भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इंद्रधनुष राँदे हुए ये’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘पूर्वी’, ‘सुनहरे शैवाल’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘क्योंकि मैं उसे पहचचानता हैं”, ‘सागर मुद्रा’।
नाटक – ‘उत्तर प्रियदर्शी’।
कहानियाँ – विपथगा, परंपरा, ‘ये तेरे प्रतिरूप, जिज्ञासा और अन्य कहानियाँ’, बाद में उन्होंने अपनी सारी कहानियाँ दो संग्रहों में प्रकाशित कीं।
उपन्यास – शेखर : एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।
भ्रमण-वृत्त – ‘अरे यायावर रहेगा याद’, ‘एक बूँद सहसा उछली’।
निबंध-संग्रह – त्रिशंकु, सबरंग, आत्मनेपद, हिंदी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, सब रंग और कुछ राग आलवाल।
साहित्यिक विशेषताएँ – उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
i. जीवन को पूर्णता में जीने का आग्रह – कवि के रूप में अज्ञेय जीवन के आस्वादन में विश्वास करते हैं। वे विश्व-पीड़ा को समेटने की बात करते हैं परंतु फिर भी उन्हें अहंवादी नहीं कहा जा सकता। अज्ञेय क्षण के आग्रही हैं, क्षणवाद के नहीं। उनके विचार से हर क्षण को अपनी पूर्णता में जीना ही जीवन को पूर्णता में जीना है। क्षण में उनका अटल विश्वास जीवन की अखंडता का प्रत्याख्यान नहीं है बल्कि जीवन की अखंडता में विश्वास का सूचक है। वे मृत्यु का मानो निषेध करते हुए लिखते हैं –
भीतर ही भीतर झरे पत्तों के साथ गलता
और जीर्ण होता रहता हैं
नए प्राण पाता हैं।
सांसारिक जीवन को समग्रता से ग्रहण करने के आग्रह के कारण अजेय जीवन-रस का आचमन हाथों से नहीं होंठों से करते हैं। उनके काव्य में कथ्य और भाषा जीवन से गहरे में जुड़ी रहती है। क्योंकि वे रोज़मर्रा की ज्ञिंदगी से, लोकजीवन से, प्रकृति से, मानव के नए आयाम से सजीव बिंब ग्रहण करते हैं।
ii. व्यष्टि और समष्टि में समन्वय – अज्ञेय को प्राय: व्यक्तिवादी, अहंवादी कवि माना जाता है। अज्ञेय का व्यक्तिवाद कहीं भी सामाजिक विकास में बाधक नहीं बनता। उनकी सुप्रसिद्ध कविता ‘नदी के द्वीप’ में नदी समाज का प्रवाह है तो ‘द्वीप’ व्यक्ति के अस्तित्व का सूच्च। प्रवाह का महत्व है परंतु द्वीपों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। द्वीप की सार्थकता मिट-मिटकर बनने में है। द्वीप तो धारा की निर्मिति है, धारा के अभाव में उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। कवि लिखते हैं’हम नदी के द्वीप हैं,’
धारा नही हैं,
स्थिर समर्पण है
हमारा मीं है वह।
धारा के प्रति समर्पण एवं ममत्व का भाव अज्ञेय जी की समाज-निष्ठता का सूचक है।
iii. प्रणय-भावना – अक्षेय के काव्य में प्रणय और विद्रोह के स्वर एक साथ मुखरित हुए। प्रणय-बीज उनके काव्य में अंकुरित हुआ। ‘कतकी पूनो की उन्मादिनी चाँदनी छाया में’ वह पौधा बना। ‘राँदे हुए इंद्रधनुष’ के आलोक में प्रणय के इस पौधे की परिणति हुई है। यह एक ऐसे पेड़ के रूप में है जो जितना आकाश में ऊपर उठता है, उतनी ही उसकी जड़ें जमीन में गहरी धँसती चली जाती हैं।
कवि का अहं भाव ‘इत्यलम’ में दबा हुआ-सा है। प्रेम के विषय में वे लिखते हैं –
क्या है प्रेम ? घनीभूत इच्छाओं की ज्वाला है,
क्या है विरह ? प्रेम की बुझती राख भरा प्याला है।
iv. दार्शनिकता एवं बौद्धिकता – अक्षेय बहुपठित कवि हैं। वे विभिन्न व्यवसायों से जुड़े रहे और बहुत-से देशों में घूमे। दर्शन-शास्त्र के अध्यापक भी रहे। उनकी कविता पर पश्चिम के अस्तित्ववाद, बौद्धों के दुखवाद् तथा कहीं-कहीं अद्वैतवाद् का प्रभाव भी लक्षित होता है। ‘सामग्री का नैवेद्य-दान’ कविता में बौद्धों की ‘करुणा’ का सुंदर चित्रण किया गया है, यथा –
जो कली खिल्लेगी जहा, खिली
जो फूल जहाँ है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
है माहाडुदध ?
अर्षित करती हैं तुझे।
इस प्रकार क्षणवाद, मृत्यु-बोध, दुखवाद आदि को भी उनके काव्य में स्थान मिलता है।
v. लघु कविताओं का सौददर्य – अज्येय हिंदी के प्रथम कवि हैं जिन्होंने छोटी-छोटी कविताओं में गहन जीवन-द्शर तथा गहन अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है। ये कविताएँ चाहे व्यंग्य करती हों, चाहे कोई सँदर्य का अनुभव जगाती हों, चाहे रूप की अभिव्यक्ति करती हों, अज्येय ने आधुनिक बोध के अनेक आयामों को लघु कविताओं में व्यक्त किया है।
क्षणवाद को अभिव्यक्ति देने वाली लघु कविता ‘मेंने देखा एक बूँद’ द्रष्टव्य है –
मैंने देखा !
एक बूँद सहसा
उछली सागर की आग से
रंगी गई क्षण-भर
ढलते सूरज की आग से।
vi. भाषा-शैली – अज्ञेय ने भाषा संस्कार बचपन से पाया था। उनकी भाषा में अनगढ़पन नहीं है, पर संस्कार इतना सहज हो गया है कि बोझिल भी नहीं है। उन्होंने लोकगीत, संस्कृत, कविता, जापानी कविता और अन्य अनेक स्तोतों से लय का अन्वेषण किया और अपनी भाव-गहनता के अनुकूल छंद की खोज की। उनकी कविता एक सजग कलाकार की कविता है।
अड्जेय की भाषा बिंबात्मक है। अमूर्त भावों को वे सजीव बिंबों में अंकित करते हैं। अज्ञेय के प्रिय प्रतीक हैं ‘मछली’, ‘दीप’ और ‘द्वीप’। मछली जिजीविषा, जीने की उत्कट इच्छा की प्रतीक है। काँच की टंकी में पली हुई सोन मछली पर एक लघु कविता द्रष्टव्य है –
हम निहारते रूपप :
काँच के पीछे हाँफ रही है मछली
सूप-तृषा भी
(और काँच के पीछे) है जिजीविषा।
कवि ने परंपरागत उपमानों के बहिष्कार की बात कही है, यथा –
बलिक केवल यही
ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच
कभी वासन अधिक धिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
कवि ने परंपरागत उपमानों और प्रतीकों को न केवल तोड़ा बलिक उन्हें बौद्धिकता भी प्रदान की है।
अज्ञेय की भाषा जीवन की अनुभूतियों की सहजता के कारण सहज है, लोक-शब्दों, लोक-प्रतीकों से युक्त है तथा सहज प्रवाहमय है।
Yah Deep Akela Class 12 Hindi Summary
अजेय की पुस्तक ‘बावरा अहेरी’ से ली गई कविता ‘यह दीप अकेला’ में कवि ने स्वय पर दीपक का आरोप करते हुए समाज से जुड़ने की इच्छा व्यक्त की है। कह मानता है कि उसका दीपक रूपी मन अकेला जल रहा है और उसमें स्नेह रूपी तेल दूसरों के लिए प्रेम-भावों से भरा हुआ है। वह अकेला होते हुए भी आत्म-गौरव और मस्ती से पागल है। वह अकेला जल रहा है और समाज से अलग है उसे समाज से जोड़ने के लिए अन्य दीपकों की पंकित में रख दो जिससे उसका अकेलापन दूर हो और उसके महत्व को परिचय भी मिल जाएगा। कवि के अंदर जो कवि है वह यदि समाज का कल्याण करनेवाले गीत नहीं गाएगा तो समाज में उसे उचित स्थान नही मिलेगा।
उस जैसा गोताखोर अर्थात कर्मशील समाज को कहाँ मिलेगा जो समाज रूपी सागर में डुबकी लगाकर सच्चे मोती निकाल लाए। वही समाज को अपने गीतों से समृद्धि देगा। यदि समाज में कवि को उचित स्थान न दिया गया तो समिधाओं को सुलगाकर कौन-सा हठीला व्यक्ति समाज में चेतना जगाएमा ? समाज को कवि की प्रतिभा का ठीक प्रकार से उपयोग करना चाहिए। समाज को चाहिए कि वह कवि रूपी दीपक को पंक्ति में रख दे जिससे उसे समाज में उचित स्थान प्राप्त हो सके।
कवि मानता है कि उसका इदय शहद के समान है जिसे समय रूपी मधुमक्खी ने संसार के अनेक सदविचारों के रूप में इकट्ठा किया है। इसमें समाज के जीवन रूपी कामधेनु का अमृत के समान दूध संचित है। इसमें भावनाओं के अंकुर उसी प्रकार फूटते हैं जिस प्रकार साधारण बीज अंकुरित होकर सूर्य की ओर एकटक देखते है। जिस प्रकार अंकुर स्वर्यभू हैं उसी प्रकार उसके मन की कविताएँ स्वयं उत्पन्न होती है।
कवि समाज से प्रार्थना करता है कि वह उसकी सृजन क्षमता को शक्ति प्रदान करे जिससे वह अपनी कविता के द्वारा समाज का कल्याण कर सके। समाज उसके हदय के गर्वीलेपन को न देखे; उसकी मस्ती को न देखे बल्कि उसके अकेलेपन को देखे। कवि को अपनी कविता के उद्देश्य पर इतना विश्वास है कि वह कभी भी आलोचकों की निंदा से डरा नहीं। उसकी कविता में जो पीड़ा है वह उसकी मन की गहराई ने गाई है। कविता से उसने सामाजिक समस्याओं को मापा है।
उसने अनेक काट सहे हैं। उसका अपमान भी किया गया है, पर उसके उत्साह में ज़ा भी कमी नहीं आई है। वह लगातार कल्याणकारी और संवेदनशील कविताएँ लिखता रहा है। उसके जिज्ञासु और संवेदनशील मन ने सदा समाज का हित चाहा है। कवि समाज से प्रार्थना करता है कि अन्य कवियों की तरह समाज में उसे भी उचित स्थान दिया जाए। वह चाहे अकेले दीपक की तरह है पर स्वेह से भरा हुआ है; गर्वीला है; मस्त है। इसलिए उसे उचित स्थान दे दिया जाए। इस प्रकार वह भी समाज के लिए कल्याणकारी कार्य कर सकेगा।
Maine Dekha, Ek Boond Class 12 Hindi Summary
‘मैंने देखा, एक बूँद’ कविता कवि के ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ कविता-संग्रह से ली गई है। यह कविता-संग्रह एक दार्शनिक रागात्मक भावनाओं की कविता है। कवि को ऐसा अनुभव होता है मानों सागर की लहरों की आग से सहसा पानी की जो एक बूँद उछलती है उसका वह क्षणिक अस्तित्व संध्याकालीन सूर्य की स्वर्णिम आभा से आलोकित होकर अत्यंत आकर्षक प्रतीत होता है।
इसी प्रकार से मानव-जीवन में भी कुछ क्षण उसके जीवन को सुखानुभूति से निमग्न कर उसके जीवन को आकर्षक बना देते हैं। इस कविता में सागर और बूँद समष्टि और व्यष्टि के प्रतीक है। इस कविता में प्रयुक्त वाक्यांश ‘सूरज की आग’ विराट एवं स्वराट प्रत्येक चेतन की वरदान भावना का मूर्त संकेत है। कवि मानता है कि जो व्यक्ति समष्टि-धारा से छिटककर पृथक हो गया है, उसका अस्तित्व उपेक्षणीय हो सकता है कितु यदि उसके अखंड व्यक्तित्व को विराट चेतना का आलोक बूँद-सा ही रंग डाले तो यह व्यक्तित्व अमर हो जाता है।
यह दीप अकेला सप्रसंग व्याख्या
1. यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्वभरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह ज्ञन है-गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा ?
पनडुख्या-ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा ?
यह समिधा-ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्ववितीय-यह मेरा-यह में स्वयं विसर्जित-
यह दीप, अकेला, स्नेहभरा
है गर्वभरा मद्माता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
शब्दार्थ : स्नेह – तेल, प्रेम। मदमाता – मस्ती में भरा। पनडुब्या – गोताखोर। कृती – कुशल, निपुण, पुण्यवान। समिधा – हवन सामग्री, यज्ञ की लकड़ियाँ। हठीला – अपनी बात पर अड़नेवाला, दृढ़ प्रतिज्ञ, ज्ञिद्दी। बिरला – कोई-कोई । विसर्जित – त्यागा हुआ, समर्पित।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सच्चिदानंद हीरानंद् वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने ‘दीप’ को प्रतीक बनाकर अपने दृढ़ आत्म-विश्वास, ऊपर ठठने की भावना तथा अपनी अस्मिता को अभिव्यक्ति प्रदान की है।
व्याखया : इन पंक्तियों में कवि कहता है कि उसका हुदय रूपी दीपक अकेला होते हुए भी प्रेम रूपी तेल से भरा हुआ है। दीपक अकेले होते हुए भी स्वर्य पर गर्व करता है, क्योंकि वह अंधकार में प्रकाश फैलाता है। यह सत्य है कि यह गर्वीला एवं अपने में ही मस्त रहनेवाला है किंतु इस ओर ध्यान न देकर उसे भी उन दीपकों के साथ सजा दो जिससे समाज को इसका प्रकाश निरंतर मिलता रहे। इसी प्रकार कवि भी अपने रचना लोक में मस्त रहता है और चाहता है कि उसे भी अन्य कवियों के समान कवियों की पंक्ति में स्थान प्रदान कर दो, जिन्होंने काव्य-क्षेत्र या समाज को अपनी भावनाओं के अमूल्य मोती प्रदान किए हैं।
यह मेरा कवि-हुद्य जो जन-जागरण या कल्याण के गीत गाता है, यदि इसे कवि-समाज में स्थान नहीं दिया गया तो फिर इस प्रकार के गीत कौन गाएगा ? यह गोताखोर की भाँति भावनाओं रूपी सागर में गोते लगाकर जो उत्तम काव्योक्ति रूपी मोती खोजकर लाता है, उसे कौन खोजकर लाएगा ? यदि आप इसे कवि के रूप में स्वीकृति प्रदान नहीं करते, तो फिर इसने नूतन काव्य यज्ञ की जो अग्न सुलगाई है, उसमें फिर हठपूर्वक समिधाएँ कौन लगाएगा ?
मेरा यह कवि-हुदय अनुपम भावनाओं से ओत-प्रोत है। इसके माध्यम से मैं स्वयं को ही अभिव्यक्ति प्रदान करता हूँ-अपनी कविताओं में मेरा हठीला-गर्वीला व्यक्तित्व ही मुखरित होता है। मेरा यह हृय-रूपी दीपक गर्वीला और कुछ मदोन्मत्त अवश्य है किंतु यह एकांकी और प्रेम से परिपूर्ण है। इसके इस गर्वीले रूप और मस्ती की और ध्यान न देते हुए, इसे कवियों की श्रेणी में स्थान प्रदान कर दीजिए।
विशेष :
i. इन पंक्तियों में कवि ने सर्जक प्रतिभा को अद्वितीय अलौकिक तथा असाधारण कहा है। एक महान गीतकार, एक कुशल गोताखोर, एक बलिदानी क्रांतिकारी आदि सब अद्वितीय होते हैं। लेखक साहित्यकार को भी इन्हीं की श्रेणी में रखता है। इनकी वैयक्तिक उपलब्धियों और विशेषताओं के रहते हुए भी इनका महत्व समाज को समर्पित किए जाने में है। अक्षेय को व्यक्तिवादी कवि के रूप में जाना जाता है परंतु प्रस्तुत पंक्तियों में उनकी समाज-संपृक्ति का पता चलता है।
ii. कवि की दृष्टि में सुजनशील प्रतिभा उसे सामान्य व्यक्तियों से अलग करती है।
iii. मुक्त छंद का सुंदर उपयोग हुआ है। कवि ने भाव की लय का अनुसरण किया गया है।
iv. प्रस्तुत पद्यांश की भाषा तत्सम शक्दावली प्रधान है।
v. अनेक स्थानों पर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है। अन्यत मानवीकरण, रूपक, श्लेष और अतिशयोक्ति अलंकार देखे जा सकते हैं।
vi. सुजनशील प्रतिभा को गीतकार, गोताखोर तथा यन्ज में सर्वस्व होम करनेवाले के रूप में देखा गया है।
2. यह मधु है – स्वय काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस-जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर-फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, एहूम, अयुतः इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, सेह भरा है गर्व भरा
मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
शब्दार्थ : मधु – शहद, मधुर। काल – समय। मौना – खामोशी। गोरस – दूध। अमृत-पूत पय – अमृत के समान पवित्र दूध। धरा – धरती, पृथ्वी। रवि – सूर्य। प्रकृत – स्वाभाविक। स्वयंभू – अपने आप पैदा हुआ, ब्रह्मा। अयुतः – पृथक, किसी से संबद्ध न होना।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ अक्षेय द्वारा रचित कविता यह दीप अकेला ‘ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने दीप को प्रतीक बनाकर अपने दृढ़ विश्वास एवं ऊपर उठने की भावना का परिचय दिया है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि कहता है कि उसका कवि हुदय रूपी दीपक अत्यंत मधुर है जिसमें समकालीन युग की शांति का भाव संचित है। इसमें जीवनरूपी कामधेनु का अमृत समान पवित्र दूध भरा हुआ है। इसमें भावना के अंकुर स्वत: उसी प्रकार फूटते रहते हैं जिस प्रकार बीज धरा को फोड़कर अंकुरित हो उठते हैं तथा निडर भाव से सूर्य की ओर देखते रहते हैं। कवि के हुदय में काव्य-भावनाएँ उत्पन्न होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया के समान हैं, यह स्वयं ही उत्पन्न होती हैं और ब्रहम के समान काव्यरूपी सृष्टि की रचना करती हैं। जिस प्रकार ब्रह्म सुष्टि की रचना करके भी पृथक रहता है उसी प्रकार मेरा कवि हृदय भी कविताओं की रचना कर उनसे स्वरंत्र रहता है। अतः कवि कहता है कि मेरे ह्ददय की इस सर्जन-क्षमता को भी शक्ति प्रदान करो। मेरा हुदय रूपी दीपक गर्वीला और मतवाला अवश्य है किंतु इसे कवियों की पंक्ति में स्थान दिया जाए।
विशेष :
- कवि का मानना है कि सर्जक कितना भी श्रेष्ठ अथवा अद्वितीय क्यों न हो जब वह समाज से जुड़ता है तभी उसका सर्जन अर्थवान बनता हैं।
- कवि ने तत्सम-प्रधान, भावपूर्ण एवं प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग किया है।
- मुक्त छंद की लययुक्त रचना है।
- अनुप्रास, रूपक, स्वाभावोक्ति, उल्लेख तथा अतिशयोक्ति अलंकारों की छटा अवलोकनीय है।
- कवि ने दीपक को प्रकृत माना है।
3. यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लयुता में भी काँपा,
बह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधआते कडुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-खाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रयुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को देदो –
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा।
है गर्व भरा मद्माता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
शब्दार्थ : लघुता – छोटापन। कुत्सा – निंदा। अवज्ञा – कहना न मानना, अनादर। तम – अंधकार। धुँधआते – धुएँ से भरे हुए। द्रवित – करुणा से पूर्ण। च्चिर-जागरूक – सदा जागता हुआ। जिज्ञासु – जानने की इच्छा से युक्त। प्रबुद्ध – जागा हुआ, ज्ञानी। उल्लंब – बाहु, ऊपर को उठी हुई बाँहै। अनुरक्त – प्रेमपूर्ण।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यावतरण हिंदी के सुप्रसिद्ध आधुनिक कवि एवं प्रयोगवाद के जनक श्री अज्ञेय जी विरचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से उद्धृत है। प्रस्तुत कविता में वे व्यक्ति की विशिष्टताओं को महत्वपूर्ण मानते हुए भी उसे समाज को अर्पित करने का आग्रह करते हैं। कवि के अनुसार दीपक एक सर्जनशील प्रतिभा तथा महान कलाकार का प्रतिनिधि है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि अपनी अस्भिता पर दीपक का आरोप करते हुए कहता है कि उसका आत्म-विश्वास अपने लघुत्व में भी कभी हीनभावना से ग्रस्त नहीं हुआ है अर्थात इसको तीव्र-वायु-रूपी प्रतिकूल आलोचनाओं ने बुझाने तथा शांत करने के जो प्रयास किए हैं, उसका कवि ने धैर्यपूर्वक सामना किया हैं। इसने पीड़ाओं की गहराई को स्वयं ही नापा है, पीड़ाएँ सहन की है, इसने निंदाओं को सहन किया है और अपमान के कड़वे घूँट पिए हैं। कवि ने लोगों की उपेक्षाओं के कसैले अंधकार की घुटन भोगी है किंतु इसके उत्साह में किसी प्रकार की शिथिलता नही आई है।
कवि अस्मिता सदैव ही द्रवित और सचेत रहते हुए, अपने नेत्रों में अनुराग की लाली सँजोए, भावनाओं के आलिंगन हेतु भुजाएँ फैलाए, हुए निरंतर अखंड और निडर बनी रही है। कवि को हतोत्साहित और कुछित करने के लिए, उसकी कविताओं पर अनेक प्रकार के कटु आक्षेप किए गए हैं उसकी निंदा एवं उपेक्षा की गई है, अपमानजनक प्रहार किए गए हैं, फिर भी कवि पर उसका कोई प्रतिकूल प्रभाय नहीं पड़ा है। उसका सहज प्रवणशील कवि हुदय जो अपनी समकालीन परिस्थितियों के प्रति जागरूक और अनुरागपूर्ण रहा है, इन कटु आलोचनाओं में अडिग तथा अखंड बना रहा है।
कवि सदैव जिज्ञासु, सजग और श्रद्धापूर्ण बना रहा है। इसे भी कवियों की क्रेणी में स्थान प्रदान कर दीजिए। उसका कवि अस्मिता-रूपी दीपक, जो अकेला होते हुए भी अडिग, निश्कंप भाव से गर्व और मस्तीपूर्वक जलता रहा है। कवि की काव्य-साधना निरंतर गतिमान रही है। अतः इसे भी कवियों की श्रेणी में स्थान मिलना चाहिए।
विशेष :
- प्रस्तुत पद्यांश में अंधकार में निरंतर जलते हुए दीपक का सुंदर दृश्य-बिंब अंकित किया गया है।
- कवि ने उल्लेख किया है कि सर्जक कलाकार किन विपरीत परिस्थितियों का सामना करके भी विश्व को जीवनदायी, आनंददायी रचनाएँ प्रदान करता है।
- पद्यांश से तत्सम शब्दावली का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है-कुत्सा, द्रवित, अनुरक्त, उल्लंब, अखंड, जिज्ञासु, श्रद्धामय आदि।
- मुक्त-छंद का सुंदर प्रयोग हुआ है। रूपक, उल्लेख, अनुप्रास और मानवीकरण अलंकार की शोभा दर्शनीय हैं।
- दीपक को अलौकिक, अद्वितीय एवं असामान्य प्रतिभा की प्रतीक माना गया है जो उचित है। प्रकाश को हमारी संस्कृति में ज्ञान का प्रतीक सदा से माना जाता रहा है। ‘दीप’ वैयक्तिकता तथा ‘पंक्ति’ समाज के प्रतीक हैं।
- कवि के व्यक्तित्व की दृढ़ता का भी संज्ञान होता है।
मैंने देखा, एक बूँद सप्रसंग व्याख्या
1. मैने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर
बलते सूरज की आग से।
मुझको दीख गया-
सूने बिराट के सम्मुखु
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!
शब्दार्थ : क्षणभर – थोड़ी देर। सूरज की आग – सूर्य की स्वर्णिम आभा। दीख – दिखाई। विराट – परमसत्ता। सम्मुख – सामने। आलोक – प्रकाश, उजाला। उन्मोचन – मुक्ति, बंधनों से हुटकारा। नश्वरता – मरणशीलता।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ अश्रेय द्वारा रचित कविता ‘मैंने देखा एक बूँद’ से ली गई हैं। यह कविता कवि की दार्शनिक भावनाओं से युक्त है। इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है कि यदि मनुष्य समाज की धारा से अलग हो जाता है तो उसका व्यक्तित्व उपेक्षणीय हो जाता है किंतु यदि उसके अखंड व्यक्तित्व को विराट चेतना का आलोक बूँद-सा ही रंग डाले तो वह व्यक्तित्व अमर हो जाता है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि सागर की लहरों के झाग से उछली एक बूँद के क्षणिक अस्तित्च का वर्णन करते हुए कहता है कि सांध्यकालीन वातावरण में वह देखता है कि सागर की लहरों से उत्पन्न झाग से सहसा पानी की एक बूँद उछलकर जैसे ही अलग होती है, संध्याकालीन सूर्य की स्वर्णिम किरणें उसे रंग देती है और वह स्वर्ण के समान ज्योतित होकर झिलमिलाने लगती है।
सागर की लहरों से उत्पन्न झाग से क्षणभर के लिए छिटककर पुन: उसी में विलीन हो जानेवाली उस बूँद के क्षणभर के स्वर्णिम अस्तित्व को कवि ने उस बूँद के जीवन की चरम सार्थकता माना है। संध्याकालीन सूर्य की रश्मियाँ स्वाभाविक रूप से ही स्वर्णिम होती हैं, अत: बूँद का स्वर्णिम दिखाई देना नैसर्गिक है। किंतु कवि इसी में अलौकिक सौंदर्य की झलक प्राप्त कर हर्षित हो उठता है।
कवि बूँद को अपना क्षणिक जीवन सार्थक करते देखकर आत्मबोध प्राप्त कर विचार करता है कि वह विराट अथवा परमसत्ता स्वयं में शून्य अथवा निराकार है किंतु उसके सम्पुख मानव-जीवन में आनेवाले प्रत्येक ऐसे स्वर्णिम क्षण, जब वह स्वर्य को उस विराट के प्रति समर्पित कर देता है, तो मानव को वह विराट-चेतना अपने आलोक से बूँद के समान रंग डालती है और मानव नश्वरता से मुक्त होकर अमर हो जाता है। मानव-जीवन के वही क्षण-विशेष उसके अस्तित्व को सार्थक बनाते हैं जो विराट के आलोक से प्रदीप्त होते हैं।
विशेष :
- इन पंक्तियों में कवि ने क्षण के महत्व को रेखांकित किया है।
- तत्सम-प्रधान शब्दावली में दृश्य बिंब अत्यंत सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है।
- तदगुण अलंकार की छटा दर्शनीय है।
- कवि ने आत्मबोध द्वारा खंड में सत्यता के दर्शन होने की संभावना व्यक्त की है।
- कविता में रहस्यवादी भावना व्यक्त हुई है। कवि पश्चिम के अस्तित्ववाद से प्रभावित है।
- प्रतीकात्मकता का प्रयोग है।