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कुटज Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Summary
कुटज – हज़ारी प्रसाद द्विवेदी – कवि परिचय
‘कुटज’ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित एक शिक्षाप्रद निखंध है जिसमें लेखक ने हिमालय पर्वत की चोटियों पर उगनेवाले ‘कुटज’ पौधे के माध्यम से मानव को विषम और विपरीत परिस्थितियों में जीने का संदेश दिया है। पर्वत शोभा-निकेतन माने जाते हैं। हिमालय को पृथ्वी का मानदंड कहना गलत न होगा। कालिदास ने भी इसे यही नाम दिया। सपूर्ण हिमालय को देखकर समाधि में लीन महादेव की मूर्ति स्पष्ट हो जाती है। शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकराते हुए वृक्ष मस्ता है।
असंख्य वृक्ष यहौं की शुष्कता तथा भयंकर गरमी की मार खाकर भी न जाने कैसे जी रहे हैं। लेखक को इन वृक्षों का नाम तो नहीं पता लेकिन अनादिकाल से उनको जानता है। वे रूप देखकर इनको पहचान लेते हैं। उनका मानना है कि नाम बड़ा है या रूप, यह शोध का विषय है। नाम समाज सत्य है और रूप व्यक्ति सत्य। उस वृक्ष का नाम कुटज याहैन जो छोटा किंतु बहुत सुंदर था। गिरिकूट पर उत्पन्न होने के कारण उस वृक्ष को ‘कुटज’ कहने में लेखक को खल आनंद मिला।
लेखक को याद आया कि यह वही कुट्ज पुष्प है जिसकी कालिदास ने रामगिरि पर यक्ष के द्वारा मेघ के समक्ष कुटज-पुष्पांजलि प्रदान करवाई थी। फर्क इतना है कि जब आषाढ़ का पहला दिन था और आज जुलाई का पहला दिन। कुटज ने ही यक्ष के संतृप्त चित्र को सहारा प्रदान किया था। अत: इसको अधिक सम्मान मिलना चाहिए। लेखक कवि रहीम को सादर स्मरण करता है कि वे श्रेष्ठ दरियादिली व्यक्ति थे। लेकिन यह दुनिया स्वार्थी है जो रस चूस लेने के बाद छिलका या गुठली फेंक देती है। रहीम को भी दुनिया वैसे ही भूल गई।
लेखक ने ‘कुटज’ अर्थात ‘कुट’ अर्थात घड़े या घर में पैदा होने वाला कहा। अगस्त्य मुनि को भी ‘कुटज’ माना गया है तो क्या वे घड़े से उत्पन्न हुए होंगे। घर में काम करने वाली दासी को कुटकारिका और कुटहारिका कहा जा सकता है। उन्होंने कुटज को जंगल का सैलानी माना है। उसे घड़े या गमले से कोई लेना-देना नहीं है। लेखक को ‘कुटज’ के आर्यभाषा का संस्कृत शब्द होने का संदेह है।
वैसे संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेत बागवानी के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा-परिवार के हैं। उन्होंने माना है कि ऑस्ट्रेलिया और एशिया महाद्वीप आपस में मिले हुए थे जो बाद में किसी भयंकर विस्फोट के कारण अलग-अलग हो गए। भारतीय संथाल, मुंडा जतियों की भाषा ऑस्ट्रेलिया की जंगली जातियों की भाषा से मिलती-जुलती है। प्रारंभ में इस भाषा को अस्ट्रो-एशियाटिक नाम दिया गया। लेकिन बाद में इसे अग्निकोण की भाषा होने के कारण आग्नेय-परिवार भी कहा जाने लगा।
धीरे-धीरे इसे कोल-परिवार की भाषा कहा जाने लगा। कुटज का लहरता पौधा अत्यंत आकर्षक है जो प्रतिफल अपराजेय जीवन शक्ति की घोषणा करता है। दुनिया में हज्षारों नाम आए और चले गए लेकिन कुटज नाम हज्जारों वर्षों से चमका हुआ है। इसके रूप की शोभा अत्यंत मादक है। यह शुष्क पर्वतमाला में अज्ञात जल सोत से रस खींचकर सरस बना है। कुटज निरंतर जीवन शक्ति की प्रेरणा देता है। उसने यही उपदेश दिया है कि यदि तुम जीना चाहते हो तो कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर संग्रहकारों तथा वायुमंडल को चूसकर, आँधी-तॄफानों को मिटाकर अपना प्राप्य वसूलो। आकाश में चूमकर आकाश की लहरों में झमकर अपना उल्लास खींच लो।
जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, बल्कि तपस्या है। जिओ तो ऐसे कि ज्ञिंदगी में प्राण शक्ति पैदा हो जाए तथा जीवन रस के उपकरणों में मन लग जाए। समस्त संसार अपने स्वार्थ हेतु जी रहा है। याजकलक्य जो एक बड़े ब्रहमवादी ऋषि थे उन्होंने अपनी पत्नी को संसार के स्वार्थ को अत्यंत विचित्र भाव से समझाया था कि पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिय नहीं होती। सब अपने मतलब के लिए होते हैं। पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी बात कही। दुनिया में त्याग, प्रेम, परमार्थ नहीं है बल्कि चहुँ ओर प्रचंड स्वार्थ है। दलित द्राक्षा के समान जब तक सर्व के लिए अपने-आप को न्योछावर नहीं कर दिया जाता तब तक स्वार्थ सत्य है। वह मोह को बढ़ावा देता रहेगा, तृष्पा को उत्पन्न करता रहेगा।
कुटज दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता। भय के मारे अधमरा नही हो जाता। नीति धर्म का उपदेश नही देता फिरता, अपनी उन्नति हेतु अफ़सरों के जूते नहीं चाटता, न ग्रहों की खुशामद करता है। अपनी उन्नति के लिए न अँगूठी धारण करता है न नीलम पहनता है न दाँत निपोरता है। वह शान से जीता है। उसने अपने पितामह के समान केवल यही कहा है कि चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे शान के साथ, हदय से बिलकुल अपराजित होकर सोल्लास ग्रहण करो, हार मत मानो।
आज मनुष्य अपनी इच्छा नहीं बल्कि इतिहास विधाता की योजना के अनुसार जीता है। सुख और दुख मानव मन के दो विकल्प हैं। सुखी वही है जिसका मन वश में है। जिसका मन वश में नहीं वह दुखी है। परवश होने का अर्थ खुशामद करना, चाटुकारिता या जी-हजूरी करना है। जो परवश है वही दूसरों के मन को खोलकर देखता है। अपने को छिपाने हेतु मिथ्या आडंबर रचता है तथा दूसरों को फँसाने हेतु जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। लेखक ने उसकी तुलना राजा जनक से की है कि वह जनक के समान संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। वह अपने मन पर सवारी करता है। मन को अपने पर सवार नहीं होने देता।
कठिन शब्दों के अर्थ :
- कुटज – कुट में उत्पन्न होने वाला, घड़े या घर में उत्पन्न होने वाला
- रत्नाकर – सागर, रत्नों की खान
- जटा-जूट – बाल, केश समाधिस्थ
- महादेव – समाधि में लीन शिव
- अतल – अत्यधिक गहरा
- सुदूर – बहुत दूर
- मनोहर – सुंदर/आकर्षक
- जिजीविषा – जीने की इच्छा
- आत्मोन्नति – अपनी उन्नति
- चाटुकारिता – चापलूसी का भाव
- गह्वर – गहरा, गड्डा
- शोभा-निकेतन – शोभारूपी घर
- लहिमायी – लहराती हुई
- अलक – बाल
- अलक-जाल – बालों का जाल
- अलमस्त – मतवाला, मस्त
- अतीत – भूतकाल
- हिमाच्छादित – बरफ से ढकी हुई
- देशोद्धार – देश का उद्धार
- अवंधूत – संन्यासी
- अंतर्निरुद्ध – भीतरी रुकावट
- द्वद्वातीत – दूवंद्व से परे
- मदोद्धता – नशे या गर्व से चूर
- अकुतोभय – जिसे कहीं या किसी से भय न हो, नितांत भयशून्य
- विरुद – कीर्ति-गाथा, प्रशंसासूचक पदवी लोल वंचल, हिलता-डोलता
- अनत्युच्य – जो बहुत ऊँचा न हो
- स्फीयमान – फैलता हुआ, विस्तृत, व्यापक
- दुरंत – जिसका पार पाना कठिन हो, प्रबल
- उपहत – चोट खाया हुआ, घायल, नष्ट
- अवधूत – विरक्त, संन्यासी
- मिथ्याचार – झूठा आचरण
- विजितातपा – धूप को दूर करने वाली
- अवमानित – अपमानित, तिरस्कृत
- स्तबक – गुच्छा, फूलों का गुच्छा
- फकत – अकेला, केवल, एकमात्र
- अविच्छेद्य – विच्छेद रहित
- मूर्धा – मस्तक, सिर
- कार्पणय – कृपणता, कंजूसी
- निपोरना – दाँत दिखाना
- नितरां – बहुत अधिक
Kutaj Class 12 Hindi Summary
जीवन-परिचय – आचार्य हज्ञारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन 1907 में बलिया ज़िले में आरत दूबे का छपरा में हुआ था। संस्कृत महाविद्यालय कारी से शास्त्री की परीक्षा पास करने के पश्चात इन्होंने ज्योतिष विषय में सन 1930 में ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। सन 1930 में शंति-निकेतन में इन्हें हिंदी अध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया। वहाँ रहकर क्षिति मोहन सेन तथा गुरुदेव टैगोर के संपर्क में इन्होंने बहुत कुछ सीखा। सन 1950 में इन्हें काशी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनाया गया।
इस पद पर दस वर्ष तक रहने के पश्चात सन 1960 में इन्हें पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। यहाँ से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात ये भारत सरकार की हिंदी विषयक अनेक योजनाओं से जुड़े रहे। लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी॰ लिट॰ की उपाधि से और भारत सरकार ने पद्म-भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। सन 1978 में इनका देहावसान हो गया।
रचनाएँ – आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने विभिन्न विधाओं पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
समीक्षात्मक ग्रंध – ‘सूर साहित्य’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’, ‘सूर और उनका काव्य’, ‘नाथ-संप्रदाय’, ‘कबीर’, ‘मेषदूत’, ‘एक पुरानी कहानी’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘लालित्य मीमांसा’ आदि।
उपन्यास – ‘बाणभट्ट की आत्मकथा ‘ पुनर्नवा अनामदास का पोथा’ तथा ‘चारुचंद्रलेख’।
निबंध संग्रह – ‘अशोक के फूल’, ‘विचार प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’ ‘कुटज’, ‘आलोकपर्व’ तथा ‘कल्पलता’।
साहित्यिक विशेषताएँ – आचार्य हज्ञारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –
i. प्राचीन और नवीन का अद्भुत समन्वय – प्राचीन और नवीन का स्वस्थ, संतुलित सम्मिश्रण द्विवेदी जी के निर्बंधों में मिलता है। सनातन जीवन-दर्शन, प्राचीन ज्ञान और साहित्य-सिद्धांत को नवीन अनुभवों से मिलाकर द्विवेदी जी निबंधों की रचना करते रहे हैं। विषय की विविधता की दृष्टि से द्विवेदी जी का निबंध अद्वितीय है। ‘भारतीय संस्कृति की देन’, ‘संस्कृतियों का संगम’, ‘ब्रहमांड का विस्तार’, ‘ भारतीय फलित ज्योतिष’, ‘साहित्य का नया कदम’, ‘ क्या आपने मेरी रचना पढ़ी’, तथा ‘ मनुष्य की सर्वोत्तम कृति साहित्य’ जैसे विविध विषयों पर इन्होंने रचनाएँ लिखीं।
ii. भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था – भारतीय संस्कृति और प्राचीन इतिहास के प्रति इनकी दृढ़ आस्था थी। वे भारत को महा-मानव समुद्र स्वीकार करते थे। भारतीय संस्कृति की विभिन्नता में एकता की बात को वे दिल से स्वीकार करते थे। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी उच्चकोटि के उपन्यासकार, आलोचक तथा साहित्येतिहासकार थे। इनके निबंधों में भारतीय संस्कृति की झलक सब जगह दिखाई दे जाती है। इन्होंने भारतीय संस्कृति के विभिन्न तत्वों में एकता को सर्वत्र पाया है। जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण और भारतीय संस्कृति की महानता इनके निबंधों के आधार हैं। इन्हें संसार के सभी लोगों में मानव-संस्कृति के दर्शन होते हैं।
iii. आस्तिकता के भाव – आचार्य हज्ञारी प्रसाद द्विवेदी पूर्ण रूप से आस्तिक हैं और इन्होंने अपने निबंधों में इसी भाव को प्रकट किया है। ये मानते हैं कि कोई परम शक्ति इस संसार के पीछे कार्य करती है। वह पूर्ण रूप से आस्थावान है। इनके अनुसार वह अनादि, अनंत, अजन्मा, निर्गुण और अव्यक्त होकर भी अपने प्रभाव को प्रकट करता है। इस संसार की उत्पत्ति उसी ने की है। लेखक के शब्दों में, “इस दृश्यमान सँददर्य के उस पार इस जगत के अंतराल में कोई एक शाश्वत सत्ता है जो इसे मंगल की ओर ले जाने के लिए कृत निश्चय है।”
iv. मानवतावादी दुष्टिकोण – मानवतावादी दुष्टिकोण भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा आरंभ से ही ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के आदर्श को स्वीकार किया गया है। द्विवेदी जी ने अपने निबंधों में मानव-कल्याण को बार-बार स्थान दिया है। इनकी दृष्टि में मानव सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। संसार की हर वस्तु का प्रयोजन मानवीय कल्याण है। ये मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य मानते हैं। इनका मानवतावादी दुष्टिकोण दो रूपों में व्यक्त हुआ है-एक तो प्रासंगिक रूप में और दूसरा मानवतावादी दृष्टि की अभिव्यक्ति के रूप में।
v. प्रकृति-प्रेम – आचार्य द्विवेदी के हुदय में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम है। वह बार-बार इनकी और आकृष्ट होते हैं। इन्होंने अपने अनेक निबंधों में प्रकृति के मनोरम और भावपूर्ण चित्र खींचे हैं। ‘अशोक के फूल’, ‘बसंत आ गया हैं’, ‘नया वर्ष आ गया है’ आदि निबंध तो पूर्ण रूप से प्रकृति से ही संबंधित हैं। लेखक के लिए प्रकृति चेतन और भावों से भरी हुई है। प्रकृति पर दृष्टि पड़ते ही ये भावों से भर उठते हैं। ये प्रकृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति के भी दर्शन करते हैं।
vi. देश-प्रेम की भावना – आधार्य दविवेदी की मान्यता है कि जिस देश में हम पैदा हुए हैं उसके प्रति प्रेम करना हमारा धर्म है। उसका कण-कण हमारा आत्मीय है, इसलिए लेखक ने देश के प्रति बार-बार मार्मिक अभिव्यक्ति प्रकट की है। इन्होंने स्पष्ट लिखा है कि जब तक हम अपनी औँखों से अपने देश को देख लेना नहीं सीख लेते, तब तक इसके प्रति हमारे मन में सच्चा और स्थायी प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। ${ }^4$ मेरी जन्मभूमि’ निर्बंध में इन्होंने लिखा है, “गह बात अगर छिपाई भी तो कैसे छिप सकेगी कि में अपनी जन्मभूमि को प्यार करता हूँ।”
vii. विचारात्मकता की अधिकता – अचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। संस्कृत प्राकृत, अपश्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं एवं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों पर इनका विशेष अधिकार था। निबंधकार का व्यक्तित्व किसी रचना में शैली, विवेचन, ज्ञान, चिंतन, विचार, आस्था और आदर्श के रूप में उभरता है। इनके निबंधों में पाठक से आत्मीय संबंध स्थापित करने की शक्ति विद्यमान है। इनकी रचनाओं में गंभीर वातावरण के बीच व्यंग्य की गुदगुदी भी रहती है तथा पांडित्य का भार भी पाठक को ढोना नहीं पड़ता। इनके अधिकांश निबंध विचारात्मक निबंधों की श्रेणी में आते हैं। इनके निबंध संध्यिप्त होते हैं।
viii. श्रेष्ठ भाषा-शैली-भाषा – विधान की दृष्टि से इनको तत्सम शब्दों के प्रति विशेष लगाव है। संस्कृत भाषा के साथ-साथ संस्कृतसाहित्य की गहरी छाप इनकी रचनाओं में मिलती है। इनका आदर्श दुरूहता नहीं है और न ही पांडित्य प्रदर्शन को इन्होंने अपने साहित्य में कहीं भी स्थान दिया है। सुबोध, सरल, स्वच्छ और सार्थक शब्दावली का प्रयोग इनकी रचनाओं में सर्बत्र प्राप्त होता है। वे सरल वाक्यों में ही अपनी बात कहते हैं। संस्कृत शब्दों के साथ उर्दू के बोलचाल के शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। भाषा की पुष्टि से हिंदी की गद्य शैली को जो रूप इन्होंने दिया वह हिंदी के लिए वरदान स्वरूप है। इनकी शैली विचारात्मक, भावात्मक तथा व्यंग्यात्मक है।
कुटज सप्रसंग व्याख्या
1. कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या! पूर्व और अपर समुद्र-महोदधि और रत्लाकार-दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत क्या है ? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह शृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते हैं।
प्रसंग प्रस्तुत अवतरण ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘कुटज’ नामक निबंध से अवतरित है। इसमें लेखक ने हिमालय पर्वत की महानता का चित्रांकन किया है।
क्याख्या : लेखक का कथन है कि यह माना जाता है कि पर्वत सुंदरता के घर होते हैं। जब पर्वतों को ही सँदर्य का घर कहा जाता है तो फिर हिमालय का तो कहना ही क्या अर्थात् हिमालय तो फिर अपार सुंदरता का महल होगा। पूर्व और दूसरे सागर-महासागर और रलों की खान दोनों को अपनी दोनों भुजाओं से सहारा देते हुए हिमालय को पृथ्वी का मानदंड कहा जाए तो गलत न होगा। हिमालय पूर्व और पश्चिम में स्थित सागर-महासागर दोनों को अपनी भुजाओं से सहारा प्रदान करता है। कालिदास जी ने भी हिमालय को पृथ्वी का मानदंड कहा था। इसी हिमालय पर्वत के चरण रूपी देश में एक चोटी बहुत दूर तक फैली हुई है। लोग इस चोटी को शिवालिक चोटी का नाम देते हैं।
विशेष :
- लेखक ने हिमालय पर्वत की विशालता तथा महानता का वर्णन किया है।
- भाषा सहज, सरल तथा सरस है।
- वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।
- संस्कृत की तत्सम शब्दावली की अधिकता है।
2. शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकुराते हुए ये वृक्ष द्वंद्वातीत हैं, अलमस्त हैं। मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं। इन्हीं में एक छोटा-सा, बहुत ही ठिगना पेड़़ है, पत्ते चौड़े भी हैं, बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब-सी अदा है, मुसकुराता जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे भी नहीं पहचानते? पहचानता तो हैं, अवश्य पहचानता हैं।
लगता है बहुत बार देख चुका हूँ। पहचानता हूँ उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। नाम भूल रहा हैं। प्रायः भूल जाता हूँ। रूप देखकर प्राय: पहचान जाता हुँ, नाम नहीं याद आता। पर नाम ऐसा है जब तक रूप के पहले ही हात़िर न हो जाए तब तक रूप की पहचान अधूरी रह जाती है। भारतीय पंडितों का सैंकड़ों बार कचारा-निचोड़ा प्रश्न सामने आ गया-रूप मुख्य है या नाम ? नाम बड़ा है या रूप ? पद पहले है या पदार्थ ?
प्रसंग : यह अवतरण हिंदी की पाठ्य-पुस्तक अंतरा भाग- 2 में संकलित ‘ कुटज’ नामक निबंध से अवतरित है। इसके रचयिता हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं जो हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार हैं। इस अवतरण में लेखक ने शिवालिक की सूखी चोटियों पर मस्त वृक्षों का मनोहारी चित्रण किया है।
व्याख्या : लेखक का कहना है कि शिवालिक की सूखी तथा रसहीन चोटियों पर मुसकुराते हुए ये वृक्ष द्वंद्व से परे और मस्त हैं। मस्ती में चूर इन वृक्षों में से में किसी का नाम, कुल तथा शील नहीं जानता लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत होता कि ये वृक्ष मुझे अनादिकाल से जानते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इनसे मेरा जन्म से संबंध है। इन्हीं वृक्षों में एक छोटा-सा टिगना पेड़ है जिसके पत्ते चौड़े और बड़े हैं। वह ठिगना-सा वृक्ष अपार फूलों से लदा है। फूलों से लदे हुए उसकी अदा भी अनोखी है। सुंदर फूलों से युक्त वह हैंसता हुआ दिखाई देता है।
उसकी सुंदर आभा को देखकर ऐसा लगता है कि मानो वह पूछ रहा हो कि तुम मुझे भी नहीं पहचानते। लेखक उसे पहचानता है और उसे अनेक बार देख भी चुका है। वह उसे उजाड़ में पैदा हुआ उजाड़ का साथी लगता है जिसका नाम वह अकसर भूल जाता है परंतु इसका रूप देखकर उसे पहचान लेता है। उसे उसका नाम याद नहीं रहने पर बहुत पछतावा होता है क्योंकि जब तक किसी के रूप में पहले उसका नाम न लिया जाए तब तक उसके रूप की पहचान भी अधूरी रह जाती है। इसलिए लेखक के मन में भारतीय पंडितों का फालतू प्रश्न कि नाम बड़ा अथवा रूप, पद पहले या पदार्थ बार-बार उठ खड़ा होता है।
विशेष :
- लेखक ने शिवालिक की चोटियों में फूलों से लदे एक छोटे से वृक्ष की अपार शोभा का वर्णन किया है। वह उसके प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहा है।
- प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है।
- भाषा सरल और सरस है।
- चित्रात्मक शैली भावपूर्ण है।
- तत्सम बहुल शब्दावली का प्रयोग है।
3. नाम इसलिए बड़ा नर्ही है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते है जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैकशन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।
प्रसंग : यह गद्यांश आचार्य हज्जारी प्रसाद द्विवेदी विरचित कुटज नामक निबंध से अवतरित है। प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने नाम की महिमा का वर्णन किया है।
व्याख्या : लेखक का कथन है कि नाम इसलिए बड़ा नही होता है कि वह नाम है बलिक वह इसलिए बड़ा होता है क्योंकि उसे सामाजिक स्वीकृति होती है। सामाजिक स्वीकृति मिलने पर ही महिमाशाली बनता है। रूप व्यक्ति सत्य होता है जबकि नाम सामाजिक सत्य होता है। रूप वैयक्तिकता का तथा नाम सामाजिकता का प्रतीक है। नाम उस पद को कहा जाता है जिस पर सामाजिक मुहर लगी होती है। आधुनिक युग में शिक्षित लोग जिसे सोशल सैक्शन कहते हैं। मेरा मन उस नाम के लिए व्याकुल है जो समाज द्वारा स्वीकृत इतिहास प्रमाणित तथा समष्टि मानव की चित्त गंगा में शुद्ध हो।
विशेष :
- लेखक ने नाम की महिमा का वर्णन किया है।
- नाम को सामाजिकता का प्रतीक माना है।
- भाषा सरल सहन खड़ी बोली है।
- तत्सम शब्दावली है।
4. कुटज के ये सुंदर फूल बहुत बुरे तो नहीं हैं। जो कालिदास के काम आया हो उसे क्यादा इप्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इप्ज़त तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हैं। दरियादिल आदमी थे, पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था। एक बादशाह ने आदर के साथ बुलाया, दूसरे ने फैक दिया ! हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता।
प्रसंग यह गद्यांश ‘अंतरा भाग-2’ से संकलित ‘कुटज’ नामक निबंध से लिया गया है। यह हज़ारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने स्वार्थी दुनिया का चित्रण किया है।
व्याख्या : लेखक का मत है कि कुटज वृक्ष के ये सुंदर फूल बहुत बुरे तो नहीं है। ये वृक्ष संस्कृत के महाकवि कालिदास जी के भी काम आए। इसलिए इन्हें अधिक सम्मान, आदर मिलना चाहिए जबकि कम मिला है। लेखक कहता है कि समाज में आदर-सम्मान मिलना तो भाग्य की बात होती है। जिसके नसीब में जितनी इक्षत लिखी होती है उसे उतनी ही मिलती है। कवि ‘रहीम’ को में बहुत सम्मान के साथ याद करता हूँ। उन्हें बहुत आदर देता हूं। वे बहुत दयालु व्यक्ति थे। उन्होंने अपने जीवन में जो भी पाया उसी को लुटाया है। लेकिन यह दुनिया बहुत स्वार्थी है। वह केवल अपने स्वार्थ को पूरा करती है।
यह तो रस चूसकर छिलके और गुठली को फेक देती है। आशाय यह है कि यह दुनिया इतनी स्वार्थीं है कि अपना स्वार्थ पूरा होने पर किसी को याद नही करती, किसी से बात नहीं करती। लेखक कहते हैं ऐसा सुना जाता है कि रहीम कवि को भी रस चूसने के बाद फेंक दिया गया था। अपनी स्वार्थ पूर्ति के पश्चात उन्हें भुला दिया गया था। उनको एक बादशाह अकबर ने आदर के साथ अपने दरबार में बुलाया लेकिन उनके बाद दूसरे ने त्याग दिया। उनको अनदेखा कर दिया। इस दुनिया में ऐसा ही होता आया है लेकिन इससे रहीम जी की महानता कम नहीं होती। उनका मूल्य नहीं घटता।
विशेष :
- दुनिया की स्वार्थ-वृत्ति का मार्मिक चित्रण हुआ है।
- भाषा शैली अत्यंत सरस और भावपूर्ण है।
- तत्सम, तद्भव तथा विदेशी शब्दों का समायोजन है।
- मुहावरों का सार्थक प्रयोग हुआ है।
5. जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-ताफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित तथा हज्ञारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘कुटज’ नामक निबंध से ली गई है। इनमें लेखक ने कुटज के माध्यम से मानव को विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष की प्रेरणा दी है।
ख्याख्या : लेखक मानव को संबोधित करके कहता है कि हे मानव। कुटज यह उपदेश देता है कि यदि तुम इस संसार में जीना चाहते हो तो कठोर पत्थरों को काटकर तथा पाताल की छाती चीरकर अपने द्वारा भोगे जानेवाले साधनों को इकट्ठा करो। अर्थात जो तुम्है आवश्यक वस्तु चाहिए उसे संघर्ष तथा कर्मशीलता के बल से पैदा करो। इस वायुर्मंडल को चूसकर तथा आँधी-तूफ़ानों का सामना करके अपनी प्राप्त करने योग्य वस्तुओं को ग्रहण करो। हे मानव । इस असीम आकाश को चूमकर अवकाश की लहरों में झूमकर आनंद और मस्ती को पकड़ लो। अपने बलबूते से इस असीम अवकाश के नीचे रहकर सुख ग्रहप्न करो।
विशेष :
- लेखक ने मानव को संघर्षरत रहने की प्रेरणा दी है।
- उपदेशमूलक शैली का प्रयोग हुआ है।
- भाषा सरस और साधारण खड़ी बोली है।
- पाताल की छाती चीरना तथा आकाश को चूमना मुहावरों का सटीक एवं सार्थक प्रयोग हुआ है।
6. दुरंत जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नही, तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिंद्री में, मन बाल दो जीवन रस के उपकरणों में $!$ ठीक है। लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है ? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याझवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिय नहीं होती-सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते है – ‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति!’
प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हजारी प्रसाद द्विवेदी दूवारा रचित ‘कुटज’ नामक निबंध से अवतरित है। इसमें लेखक ने जीने की कला बताते हुए संसार की स्वार्थपरता का वर्णन किया है।
व्याख्या : लेखक का कथन है कि जीवन-शक्ति को पार पाना अत्यंत कठिन है। इसके साथ उपदेश भी कठिन है। जीना भी एक कला है। यह कला ही नहीं बल्कि एक तपस्या है। जीवन एक संघर्ष है। इससे पार पाना कोई आसान नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को एक तपस्वी की तरह तप करना पड़ता है तभी वह जीवन-शब्ति से पार पा सकता है। लेखक मानव को संबोधित कर कहता है कि हे मानव ! तुम ऐसे ज़िंदादिली से जिओ कि तुम्हारी जिंदरी में प्राण-शक्ति पैदा हो जाए और तुम अपने जीवन रस के उपकरणों में मन डाल दो।
जो उपकरण तुम्हारे जीवन में आनंद प्रदान करने वाले हैं उनमें अपना मन लगा दो। लेकिन क्या जीने के लिए जीना ही मुख्य है। यह सारा संसार अपने स्वार्थ के लिए ही तो जीता है। लेखक कहता है कि याजवाल्क्य बहुत बड़े ब्रह्म ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को अनूठे भाव से समझाने का प्रयास किया कि इस दुनिया में सब कुछ स्वार्थ के लिए है। यह दुनिया बिल्कुल स्वार्थीं है।
उन्होंने बताया कि पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता और न पत्नी के लिए पत्नी प्यारी होती है। इस संसार में सब अपने स्वार्थ के लिए प्रिय होते हैं, अच्छे लगते हैं। उन्होंने कहा है कि अपने स्वार्थ के लिए सब प्रिय होता है। लेखक का कहने का अभिप्राय है कि यह दुनिया पूर्णत: स्वार्थी है। यहाँ कोई अपना प्रिय नहीं है। हर कोई अपने स्वार्थ हेतु प्रिय होता है।
विशेष :
- लेखक ने स्वार्थी दुनिया का रहस्य बताया है।
- उपदेशात्मक शैली का भावपूर्ण प्रयोग है।
- याइवल्क्य ऋषि की वाणी का चित्रण है।
- तत्सम बहुल भाषा का प्रयोग हुआ है।
7. कुटज क्या केवल जी रहा है। वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफ़सरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता।
आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है-काहे वास्ते, किस उद्देश्य से ? कोई नहीं जानता। मगर कुछ बड़ी बात है। स्वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है-‘चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय’जो मिल जाए उसे शान के साथ, हृदय से बिलकुल अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो। हार मत मानो।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग- 2 ‘ में संकलित तथा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित ‘कुटज’ नामक निबंध से लिया गया है। इस गद्यांश में लेखक ने कुटज के माध्यम से जीवन को प्रेरणा देते हुए बाहयाडंबरों का विरोध किया है।
व्याख्या : लेखक का मंत्य है कि कुटज क्या केवल जीवन जी रहा है। वह तो शान से जी रहा है। वह कभी दूसरे के दरवाज़े पर भीख माँगने नहीं जाता। सहायता हेतु दूसरों की ओर नहीं देखता। किसी के समीप आ जाने पर भी वह भयभीत नहीं होता और न ही वह संसार को नीति और धर्म का उपदेश देता हुआ घूमता है। वह कभी अपनी उन्नति के लिए अफ़सरों की खुशामद नहीं करता। न ही वह दूसरों को अपमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद करता है। अपनी उन्नति हेतु न तो ‘नीलम’ नामक मनका पहनता है और न अँगूठियों की लड़ी पहनता है।
वह किसी कर्मकांड, अंधविश्वास तथा वाह्य आडंबरों में विश्वास नहीं करता, न दूसरों को देख दाँत पीसता है और न कभी कोने से झाँकता है। वह अपने जीने के लिए कभी किसी के आश्रय को नहीं देखता बल्कि वह तो शान से जीता है। किसके तथा किस उद्देश्य से जीता है यह कोई नहीं जानता। लेकिन लगता है कि यह एक बहुत बड़ा रहस्य है। स्वार्थ से उसका कोई सरोकार नहीं है। वह निस्वार्थ भाव से जीता है।
वह शायद भीष्म पितामह की तरह एक संन्यासी की भाषा में यही कह रहा है कि हे मनुष्य ! तेरे जीवन में चाहे सुख हों या दुख, प्रिय हों या अप्रिय उसे शान के साथ अपने हुदय से बिलकुल अपराजित बनकर उल्लास सहित ग्रहण करो। कभी भी अपने जीवन से हार मत मानो। लेखक का अभिप्राय यह है कि मानव को विपरीत परिस्थितियों से हार नहीं माननी चाहिए बल्कि हैंसते हुए संघर्षरत हो स्वीकार करना चाहिए।
विशेष :
- लेखक ने प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष की प्रेरणा दी है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
- उपदेशात्मक शैली का भावपूर्ण प्रयोग है।
- तत्सम शब्दावली की प्रचुरता है।
8. दुख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्या आडँबर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह बैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है।
प्रसंग : यह गद्यांश हज़ारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘कुटज’ नामक निबंध से अवतरित है। इसमें लेखक ने बताया है कि सुख-दुख मानव मन के विकल्प हैं। मनुष्य को अपने मन को वश में करके जीना चाहिए।
व्याख्या : लेखक का कहना है कि दुख और सुख मानव मन के विकल्प हैं अर्थात जीवन में सुख तथा दुख आते रहते है। इस जीवन में सुखी वही रहता है जो अपने मन को नियंत्रित रखता हो तथा वही दुखी है जिसका मन इधर-उधर भागता है, अस्थिर है। जो मनुष्य मन के अनुसार चलता है वह सदैव दुखी रहता है लेकिन जो मन को अपने वश में कर लेता है उसे सुख ही सुख मिलते हैं। दूसरे के अधीन होने का अर्थ है दूसरे की तुरामद करना, दाँत निपोरना, चापलूसी करना तथा जी-हजूूरी करना।
जिस मनुष्य का मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का परदा उठाकर देखता है। वही अपने को छिपाने हेतु झूठे आडंबरों की रचना करता है। दूसरों को फँसाने के लिए सदैव जाल बिछाता है। लेखक कहता है कि कुटज इन सब बेकार की बातों से बहुत दूर है। अर्थात वह परवश नहीं बल्कि स्वतंत्र जीता है। वह अपने अधीन है। वह वैरागी है। वह तो राजा जनक की तरह इस संसार में रहकर तथा सारे भोगों को भोगकर भी उनसे स्वतंत्र है। अर्थात वह भोगों में पड़कर भी उनके अधीन ही हुआ है।
विशेष :
- लेखक ने कुटज के जीवन की तुलना राजा जनक से की है।
- साहित्यिक खड़ी बोली सरल, सरस है।
- तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग हुआ है।
- उपदेशात्मक शैली का भावपूर्ण प्रयोग है।
- मुहावरों का प्रयोग है।
9. ये जो ठिगने-से लेकिन शानदार दरख्त गरमी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे है, इन्हें क्या कहूँ ? सिर्फ़ जी ही नही रहे हैं, हैंस भी रहे है। बेहया हैं क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी, पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाडकर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोर्य खींच लाते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से ली गई है। इस निबंध में लेखक ने विषम परिस्थितियों में शान के साथ जीने की ‘कुटज’ की क्षमता का वर्णन किया है।
क्याखया : लेखक कुटज की अपराजेय जीवन-शक्ति का परिचय देते हुए लिखता है कि कुटज के ठिगने-से किंतु बहुत सुंदर दिखाई देने वाले ये वृक्ष गरमी की भयंकर तपस और निरंतर भूख-प्यास सहकर भी जीवित रहते हैं। गरमी की लू से इन्हें कोई नही बचाता और न ही इन्हें कोई पानी, खाद आदि भी देता है फिर भी ये केवल जीते ही नहीं हैं बल्कि अपने फूलों के माध्यम से हँसते हुए प्रतीत होते हैं। ये बेहया नहीं हैं केवल अपने-आप में मस्त रहने वाले मस्त मौला हैं। इस प्रकार से बाहरी रूप से बेहया दिखाई देने वालों की जड़ें बहुत गहराई तक पहुँची होती हैं। ये पत्थरों को फोड़कर भी न मालूम किस गहराई से अपने लिए अपनी खाद्य-सामग्री प्राप्त कर लेते हैं तथा विकट-स्थितियों में भी हरे-भरे बने रहते हैं।
विशेष :
- लेखक ने कुटज की कठिन परिस्थितियों में भी मुसकराते रहने का चित्रण करते हुए मनुष्य को विषम-स्थितियों का हँसकर सामना करने की प्रेरणा दी है।
- भाषा तत्सम-प्रधान तथा शैली वर्णनात्मक है।
10. मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है; अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास-विषाता की योजना के अनुसार किसी को उससे सुख मिल जाए, बहुत अच्छी बात है; नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभियान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभियान यदि गलत है तो दुख पहुँचाने का अभिमान तो नितरा गलत हैं।
प्रसंग : यह गद्यांश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी विरचित ‘कुटज’ शीर्षक निबंध से अवतारित है। इसमें लेखक ने मानवीय जीवन के विषय में एक महत्वपूर्ण तथ्य का चित्रण किया है।
व्याख्या : लेखक का कथन है कि इस संसार में मनुष्य अपनी इच्छानुसार नहीं बल्कि विधि-विधान के अनुसार जीवन-यापन कर रहा है। इसी तरह जीवन जीना ही उसकी नियति है। इस प्रकार जीवन-यापन करते हुए किसी को सुखानुभूति हो जाए तो श्रेष्ठ है और यदि किसी मनुष्य को सहानुभूति नहीं होती तो उसे कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। संभवत: मनुष्य को कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि सुख-दुख तो जीवन के अहम अंग हैं जो विधाता द्वारा किए जाने हैं सुख पहुँचाने का अभिमान गलत है तो इस तरह किसी को दुख पहुँचाने का अभिमान बिलकुल गलत है।
विशेष :
- साहित्यिक खड़ी बोली भाषा है।
- शैली विचारात्मक है।