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गीत गाने दो मुझे Summary – सरोज स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 2 Summary
गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ – कवि परिचय
कवि-परिचय :
जीवन-परिचय – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ आधुनिक युग के समर्थ कलाकार माने जाते हैं। वे वत्र के समान कठोर और पुष्प के समान कोमल थे। उनका उपनाम ‘निराला’ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों का परिचायक है।
निराला जी का जन्म सन 1898 में महिषादल राज्य, मेदनीपुर, बंगाल में हुआ था। उनके पिता महिषादल राज्य में एक प्रतिष्ठित पद पर कार्य करते थे। अत: निराला का शैशव वहीं व्यतीत हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी बंगाल में ही संपन्न हुई। घर पर उन्होंने यथासंभव संस्कृत का अध्ययन किया।
ब्रजभाषा और खड़ी बोली की ओर भी ‘निराला’ जी का आकर्षण था। निराला जी का संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। शैशव में मातृ-वियोग का दारुण दुख सहन करना पड़ा तो यौवनकाल में पत्ली ने साथ छोड़ दिया। उन्हें अपने साहित्यिक जीवन में भी अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। उनके जीवन के प्याले में बार-बार कोई विष भर देता था पर वे उसे अमृत समझकर पी जाते। निराला जी का व्यक्तित्व अडिग था। वे टूट सकते थे पर झुक नहीं सकते थे। सन 1961 में उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई।
रचनाएँ – निराला जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने रहस्यवादी कविताएँ रचीं, छायावादी काव्य को उत्कर्ष प्रदान किया, प्रगतिवाद का नारा लगाया, नारी-साँदर्य का गुणगान किया, उपेक्षित मानव के लिए गीत लिखे। इतना ही नहीं, उनका देश-प्रेम भी अनूठा था। कहानी, उपन्यास, निबंध और संस्मरण सबमें उनकी गति थी। निराला जी की उल्लेखनीय रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
काव्य – परिमल, गीतिका, तुलसीदास, अनामिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज।
उपन्यास – अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरुपमा।
कहानी-संग्रह – लिली, सखी, सुकुल की बीबी।
रेखाचित्र – कुल्ली भाट, बिल्लेसुर, बकरिहा।
आलोचना और निबंध-प्रबंध-पद्म, प्रबंध-प्रतिभा, प्रबंध-परिचय।
जीवन-साहित्य – राणा प्रताप, प्रह्लाद, ध्रुव, शकुंतला, भीष्म।
उक्त रचनाओं के अतिरिक्त निराला जी ने कुछ अनुवाद भी किए।
विशेषताएँ – निराला जी की रचनाओं का अवलोकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने संघर्षमय जीवन व्यतीत करते हुए भी सरस्वती की आराधना नहीं छोड़ी। ऐसे कलाकार ही सच्चे अर्थों में सरस्वती के उपासक कहे जाते हैं। इनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(i) रहस्यवाद – निराला जी का हृदय कवि है तो नांस्तक्क दार्शनिक है। निराला जी अद्वैतवादी थे। अतः वेदांत निराला जी के रहस्यवाद का मूल आधार है। आत्मा और परमात्मा के प्रणय संबंध को रहस्यवाद कहते हैं। निराला जी के रहस्यवाद में भावना और चिंतन का सुंदर समन्वय है। स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होने के कारण निराला जी का रहस्यवाद व्यावहारिकता के धरातल पर उतरकर प्रकट हुआ है। शक्ति, करुणा और सेवा ही निराला जी के दर्शन का निष्कर्ष है। अद्वैतवाद के अनुसार आत्मा और परमात्मा अभिन्न हैं। इस अभिन्नता का बोध करानेवाली निराला जी की सर्वश्रेष्ठ कविता ‘तुम और मैं’ है। इसमें ब्रह्म और जीव की अभिन्नता का बड़ा सरस चित्रण हुआ है –
तुम तुंग हिमालय थृंग, और मैं चंचल गति सुर-सरिता।
तुम विमल दुदय-उच्छ्वास, और मैं कांत कामिनी कविता॥
(ii) प्रकृति-चित्रण-निराला जी छायावादी कवि हैं और छायावाद में प्रकृति का विविधरूपी चित्रण है। उन्होंने भावनाओं को उद्दीप्त करनेवाले प्रकृति रूप पर दृष्टिपात किया है। यमुना की कल-कल ध्वनि करती हुई लहरों को देखकर कवि अतीत-कालीन स्मृति में लीन हो जाता है।
यमुने ! तेरी इन लहरों में,
किन आकुल अधरों की तान ?
पधिक प्रिया-सी जगा रही है,
किस अतीत के नीरव गान।
निराला जी ने प्रकृति के भयानक एवं कोमल दोनों रूपों का चित्रण किया है।
(iii) छायावाद की सफल अभिव्यक्ति-निराला जी छायावादी पुरुष के प्राण कहे जाते हैं। उनके काव्य में छायावाद के सभी तत्व उपलब्ध होते है। अतीत के प्रति मोह, सामाजिक चेतना, प्रकृति का मानवीकरण, प्रेम का चित्रण आदि सभी विशेषताएँ प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। संध्या-सुंदरी’ शीर्षक कविता में प्रकृति का मानवीकरण दर्शनीय है –
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उत्तर रही है
वह संध्या-सुंदरी परी-सी
धीरे, धीरे, धीरे।
(iv) राष्ट्रीयता-निराला जी अपने युग के जागरूक कवि थे। निराला जी की रचनाओं एवं व्यक्तित्व दोनों में राष्ट्रीयता का समावेश रहा है। उन्होंने देश की आर्थिक विषमता का, नारी की महानता तथा तत्कालीन कुप्रथाओं का विशद चित्रण कर समाज को स्वस्थ बनाने की प्रेरणा दी। ‘जागो फिर एक बार’ शीर्षक कविता में निराला जी ने अतीत-कालीन वीरता की उत्सर्ग-भावना का चित्र खींचा है –
सागर में अमर कर प्राण,
गान गाए महासिंधु से
सिधु-नद तीर वासी।
(v) मानवतावादी दुष्टिकोण-निराला जी के ह्वद्य में दीन-दुखियों के प्रति बड़ी सहानुभूति थी। बहुत-से लोग दरिद्रों की ओर देखते तक नहीं। वे यह नहीं समझते कि इस संसार में व्याप्त इस प्रकार की अवस्था, सामाजिक और आर्थिक विषमता के लिए वे सब भी जिम्मेदार हैं। ‘जिक्षुक’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ नामक कविताएँ निराला जी के मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय देती हैं। ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता की अधोलिखित पंक्तियाँ एक मज़दूर स्त्री की दयनीय और विवश दशा का चित्रण करने में क्या पर्याप्त नहीं –
चड़ रही थी धूप गरमियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनगी छा गई,
प्रायः हुई दोपहर, वह तोड़ती पत्थर।
(vi) दुखानुभूति, करुणा एवं निराशा-निराला जी का संपूर्ण जीवन संघर्ष में व्यतीत हुआ। अत: जीवन की दुखद, करुण एवं निराशाजनक अनुभूतियों का चित्रण हो जाना स्वाभाविक था। ‘करुण रस’ की दृष्टि से ‘सरोज स्मृति’ उत्कृष्ट कविता है –
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहह आज, जो नहीं कही।
(vii) प्रगतिवादी-निराला जी ने अपने प्रगतिवादी दर्शन में एक ओर दीन-दुखियों की दीन-हीन दशा का चित्रण किया है तो दूसरी ओर शोषकों के प्रति आक्रोश से भरी आवाज्त उठाई –
अबे, सुन बे गुलाब,
भूल मत गर पाई खुशबू रंगो आब,
खन चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट।
निराला जी के कुछ गीतों में हास्य-व्यंग्य विनोद की भी सुंदर छटा है।
(viii) भाषा-शैली-निराला जी रूड़ियों के विरोधी थे। कविता-क्षेत्र में भी उन्होंने स्वच्छंदता से काम लेते हुए मुक्तक छंद को ही अपनाया। उनकी कविता मुक्तक छंद में होते हुए भी स्वर और लय से युक्त है। संगीतात्मकता निराला जी की कविता का विशेष गुण है। भाषा के प्रयोग में भी निराला जी ने स्वतंत्रता से काम लिया है। भाव के अनुरूप भाषा का रूप भी बदलता रहा है।
ओज गुण संपन्न कविता की रचना में निराला जी को विशेष सफलता प्राप्त हुई है। निराला मुक्तक छंद के प्रथम कवि होते हुए भी पूर्ण रूपेण सफल रहे हैं। उनकी भाषा में कोमलता और पुरुषता दोनों का सुंदर संयोग है। एक तरफ़ समास-प्रधान भाषा का प्रयोग है तो दूसरी ओर सरल एवं व्यावहारिक भाषा है। कोमल-कांत पदावली के प्रयोग की दृष्टि से निराला जी की छायावादी कविताएँ दर्शनीय है। अलंकार बड़े स्वाभाविक और भावानुकूल हैं।
स्पष्ट हो जाता है कि निराला जी अपने युग की महान प्रतिभा के हूप में प्रकट हुए हैं। उन्होंने अपनी कृतियों के बल पर हिंदी साहित्य में एक विशेष स्थान बना लिया है।
Geet Gane Do Mujhe Class 12 Hindi Summary
‘गीत गाने दो मुझे कविता के माध्यम से सूर्यकात त्रिपाठी ‘निराला’ ने मनुष्य को निरंतर संघर्षतत रहने की प्रेरणा दी है। कवि संसार में व्याप्त लूट-पाट के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हुए कहता है कि जीवन में निरंतर ठोकरें छा- खकर वह अपने होश-हवास खो बैठा है। उसके समस्त साधनों को ठगों के सरदारों ने लूट लिया है। उसका कंठ अवरूद्ध हो रहा है तथा मृत्यु निकट आ रही है। यह संसार विषमता रूपी विष से भर गया है। लोग एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। धरती की सहनशीलता रूपी लौ भी बुझ गई है। इसे पुनः प्रण्वलित करने के लिए कवि तुम स्वर्य जल उठो। अपने तेज से इसे जलाओ।
Saroj Smriti Class 12 Hindi Summary
‘सरोज सभृति’ कविता कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी पुत्री सरोज के देहांत के बाद उसकी स्मृति में लिखी थी। यह एक लंबी कविता है जिसमें कवि ने अपनी पुत्री की बचपन से लेकर उसकी मृत्यु तक की स्पृतियों को स्वर प्रदान किया है। पाठ्यक्रम में सरोज के विवाह तथा उसकी मूत्यु तक का विवरण प्रस्तुत किया गया है। कवि अपनी पुत्री के विवाह को पूर्णतया नए प्रकार का विवाह बताता है। सरोज पर कलश का पवित्र जल छिड़का गया। विवाह के समय वह मंद-मंद हैंसी से कवि को देख रही थी।
कबि को वह अपने सुखद भावी दापत्य जीवन के सुखों की कल्पनाओं में खोई हुई अत्यंत प्रसन्न लग रही थी। उसका रूप खिल रहा था। कवि को अपनी पली की याद आ जाती है। सरोज के विचाह में कवि का कोई सगा-संबंधी नहीं आया था। कवि ने स्वर्य ही विदाई के समय सरोज को मौँ जैसी शिक्षा दी। कुछ दिन ससुराल में रहने के बाद सरोज अपने ननिहाल चली गई और यही उसने मृत्यु का आलिंगन किया। कवि उसे अपने जैसे भाग्यहीन का एकमात्र सहारा मानता था। सरोज की मृत्यु के दो वर्ष बाद उसकी स्तृति में व्यधित होकर कवि यह सब लिख रहा है। वह आज अपने पिछले जन्मों के अपने सभी पुण्य कमों के फल सरोज को सँपकर उसका तर्पण करता है।
गीत गाने दो मुझे सप्रसंग व्याख्या
1. गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
शब्दार्थ : वेदना – पीड़ा। पाथेय – रास्ते का सहारा, साधन। कंठ – गला। काल – मृत्यु।
प्रस्तुत : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने संसार में व्याप्त लूट-खसोट के कारण व्याप्त निराशा के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए संसार को सुंदर तथा आशावान बनाने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या : कवि कहता है कि मुझे अपनी पीड़ा के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए गीत गाने दो। वह गीत गाकर अपने कष्टों को कम करना या भुलाना चाहता है। जीवन के इस कठिन मार्ग पर चलते हुए अनेक कठिनाइयों, छल-कपट आदि का सामना करने के कारण वह अपने होश गँवा बैठ है। संघर्षपूर्ण जीवन से जूझने हेतु उसके पास जो साधन थे वे भी उससे रात के समय ठगों के सरदारों ने लूट लिए हैं। अब तो उसका गला भी रुकता जा रहा है और उसे लगता है कि उसकी मृत्यु भी निकट आ रही है।
विशेष :
- कवि संसार के छल-कपट-प्रपंच से संतप्त हो उठा है। वह जीवनभर अनेक विरोधाभासों को सहन करता रहा है। वह इन सब पीड़ाओं से मुक्त होने के लिए गीत गाना चाहता है।
- अनुप्रास, अतिशयोक्ति अलंकार हैं।
- भाषा तत्सम-प्रधान शब्दावली से युक्त लाभणिक तथा भावपूर्ण है।
- खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
2 भर गया है ज्ञहर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते कैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सीचचे को।
शब्दार्थ : जहर – विष। लौ – ज्योति। पृथा – पृथ्वी, धरती।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने संसार में व्याप्त लूट-खसोट से निराश लोगों को अपनी व्यथा भुलाकर पुन: व्यवस्था स्थापित करने का आह्वान किया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि इस संसार में सर्वत्र विषमता रूपी ज्वहर फैल गया है। संसार में रहनेवाले लोग इस विषमता के कारण निराश और पराजित से हो गए हैं। वे एक-दूसरे को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। वे परस्पर परिचय प्राप्त करने के स्थान पर एक-दूसरे को अजनबियों की तरह देखते हैं। ऐसा लगता है कि पृथ्वी की जो सहनशीलता रूपी ज्योति थी वह अब बुझ गई है। कवि लोगों को प्रेरणा देते हुए कहता है कि तुम पुन: जल उठो और अपने तेज से इस धरती की बुझी हुई ज्योति को फिर से प्रज्वलित कर दो।
विशेष :
- कवि चाहता है कि संसार में व्याप्त विषमता को दूर करने के लिए कवि इन विषमताओं को दूर करनेवाले गीतों की रचना करें। इससे मानवता का कल्याण होगा और लोगों में सद्भावनाएँ उत्पन्न होंगी।
- तत्सम-प्रधान शब्दावली में लाक्षणिकताओं और भावात्मकता का समावेश है।
- अनुप्रास, उत्प्रेक्षा और विरोधाभास अलंकार हैं।
- संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
- खड़ी बोली का प्रयोग है।
- मुक्त छंद विद्यमान है।
सरोज स्मृति सप्रसंग व्याख्या
1. देखा वियाह आमूल नवल,
तुझपर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हैसी मंद,
होठों में बिजली फैसी स्पंद
उर में भर झूली छधि सुंदर
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्घ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बैंध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर धर-धर-धर।
देखा मैने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति
शब्दार्थ : आमूल – पूरी तरह से। नवल – नया। कलश – घट, घड़ा। शुभ – पवित्र, मंगल। स्पंद – धीरे-धीरे हिलना, काँपना। नत – झुके हुए। आलोक – प्रकाश। मूर्ति-धीति – धैर्य की मूर्ति।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने अपनी पुत्री सरोज की आकस्मिक मृत्यु के बाद उससे संबंधित स्मृतियों को प्रस्तुत किया है।
व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि सरोज के विवाह से संबंधित प्रसंगों को प्रस्तुत करते हुए तथा सरोज को संबोधित करके लिखता है कि तेरे विवाह में आए हुए लोगों ने एक बिलकुल नए विधि-विधान से होनेवाले नए प्रकार के विवाह को देखा। तेरे ऊपर कलश का पावन जल छिड़का गया। उस समय तू मंद-मंद हैसी से मुझे देख रही थी तथा तुम्हारे होंठों में मानो बिजली के स्पंदन के समान हँसी की लहर दौड़ गई थी। तुम्हारे हददय में अपने पति की सुंदर छावि मानो झूल रही थी और तुम्हारा दांपत्य भाव मुखरित हो रहा था।
एक गहरी लंबी साँस लेकर तू मानो खिल गई थी। तुम्हारे शरीर के अंग-अंग में भविष्य के विश्वास की आशा प्रतिबिंबित हो रही थी और तुम्हारे झुके हुए नेत्रों से प्रकाश उतरकर तुम्हारे ओठों पर थर-थर कॉँपने लगा था। उस समय सरोज शारीरिक तथा मानसिक दोनों दृष्टियों से अत्यधिक प्रसन्न दिखाई दे रही थी। मैने तुम्हारी वह धैर्य से युक्त मूर्ति देखी तो मुझे ऐसा लगा मानो तुम मेरी युवावस्था का प्रथम गीत हो। कवि को दुल्हन के रूप में सजी हुई अपनी पुत्री को देखकर अपने यौवन के दिन याद आ रहे थे।
विशेष :
- कवि ने सरोज के दुल्हन रूप का अत्यंत सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है।
- भाषा तत्सम-प्रधान, भावानुकूल एवं प्रवाहमयी है।
- अनुप्रास, उत्रेक्षा, पुनरुक्तिप्रकाश, स्मरण अलंकार हैं।
- वर्णनात्मक शैली में सात्विक अनुभावों का मार्मिक चित्रण प्राप्त होता है।
- मुक्त छंद की रचना है।
- स्मृति बिंब प्रकट हुआ है।
2. शूंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रेग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा बही,
आकाश बदल कर बना माीी।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाहु-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
शब्दार्थ : निराकार – जिसका कोई आकार न हो। स्वर्गाया-प्रिया – स्वर्गवासी पत्नी। उच्छ्वसित-धार – इसकी उमड़ती हुई धारा। राग-रंग – प्रेम का रंग। रति-रूप – कामदेव की फ्नी रति जैसा साँदर्य, अत्यंत सुंदर। मही – धरती, पृथ्वी। आत्मीय-स्वजन – सगे-संबंधी। वियाह-राग – विवाह के गीत। निशि-दिवस जाग – रात-दिन का जागरण।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला ‘ द्वारा रचित कविता ‘सरोज स्मृति’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने अपनी पुत्री सरोज को उसकी मृत्यु के बाद स्मरण करते हुए उसके प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है।
व्याखया : इन पंक्तियों में कवि सरोज के विवाह के समय उसे दुलहन बने देखकर अपने मन में उत्पन्न हुए भावों को सरोज को बताते हुए कहता है कि कवि ने उसके दुल्हन रूप में उस श्रृंगार के दर्शन किए थे जो आकारहीन होकर भी मेरे काव्य में रस की उमड़ती हुई धारा के समान प्रस्कुटित हो गया था। उस समय मुझे वही संगीत उमड़ता हुआ दिखाई दे रहा था जो मैंने अपनी स्वर्गीया पत्नी के साथ गाया था। वही संगीत आज प्राणों में आनंद उत्पन्न कर रहा है। तुम्हारे रूप में मानो मेरी वही शृंगार भावना मुखरित हो उठी।
उस दिन ऐसा लग रहा था कि आकाश भी मानो अपने ऊपर रहने के भाव को त्याग कर धरती के साथ एकाकार हो उठा था। कवि को समस्त प्रकृति दापत्य भाव से परिपूर्ण दिखाई दे रही थी। इस प्रकार कवि कहता है कि तुम्हारा व्याह हो गया। लेकिन इसमें कोई सगा-संबंधी नहीं आया तथा न ही उन्हें कोई निमंत्रण भेजा गया था। घर पर विवाह के गीत भी नहीं गाए गए थे तथा रात-दिन का जागरण भी नहीं किया गया था। जिस प्रकार एक सामान्य विवाह में सगे-संबंधियों को बुलाकर दिन-रात जागकर विवाह के गीत गाए जाते हैं, ऐसा कुछ भी सरोज के विवाह में नहीं हुआ था। एक मौन संगीत मानो जीवन में उतरकर सरोज के नव जीवन में प्रवेश कर उसे आनंदित कर रहा था।
विशेष :
- कवि ने सरोज के विवाह में किसी प्रकार का आडंबर नहीं किया था तथा बहुत ही साधारण ढंग से विवाह कर दिया था।
- भाषा तत्सम-प्रधान, भावपूर्ण तथा प्रवाहमयी है।
- अनुप्रास, स्परण तथा उत्र्रेक्षा अलंकारों का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
- वर्णनात्मक शैली तथा मुक्त छंद का प्रयोग किया गया है।
- स्मृति संचारी भाव है।
3. माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज्ज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोदु
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ही, मूदे दुग वर महामरण!
शब्दार्थ : पुष्य-सेज – फूलों की शैय्या। गुछ – घर। समोद – आनंदपूर्वक। जलद – बादल। धरा – धरती, पृथ्वी। न्यक्त – रक्षक, साथी। मूंदे – बंद करके। दग – नेत्र। महामरण – मृत्यु।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘सरोज स्मृति’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने अपनी पुत्री सरोज की आकस्मिक मृत्यु पर अपनी मानसिक वेदना व्यक्त की है।
ब्याख्या : इन पंक्तियों में कवि सरोज को संबोधित करते हुए कहता है कि किस प्रकार उसने विवाह के बाद उसे विदा किया था और उसने उसे वे सब शिक्षाएँ दी थी जो विदाई के समय एक माँ अपनी बेटी को देती है। इतना ही नहीं कवि ने स्वर्यं अपने हारों से उसकी पुष्प-शैख्या भी सजाई थी। इस प्रकार कवि ने माँ की भूमिका निभाते हुए बेटी को विदाई के समय शिक्षा दी। कवि कहता है कि फिर मैंने यह भी सोचा कि में अपनी बेटी को शक्कुलता के समान वैसे ही विदाई दे रहा हूँ जैसे महात्रकि कण्व ने दी थी।
परंतु तू शक्कुंतला से सर्वथा भिन्न थी, क्योंकि तुम्हें एक अलग प्रकार की शिक्षा प्राप्त हुई थी। कबि पुन: कहता है कि हे बेटी, कुछ दिनों तक ससुराल में रहने के बाद तू प्रसन्नतापूर्वक अपनी नानी की स्नेहमयी गोद में जाकर रहने लगी। वहीं पर तुम्हारे मामा-मामी थे। वे तुमपर अपनी स्नेह वर्षा ऐसे करते थे जैसे बादल अपनी जल-धारा द्वारा पृथ्वी को रसमय कर देते हैं। वही तुम्हारे सुख-दुख के साथी तथा रक्षक थे। वही हमेशा तुम्हारे भले के कामों में संलग्न रहते थे। इसका प्रमुख कारण यह था कि तुम जिस लता की कली थी वह भी अर्थात तुम्हारी माता भी वहीं की रहने
वाली थी। तेरी माँ तेरे मामा की सगी बहन थी तथा तुम्हारे नाना-नानी की प्यारी बेटी थी। इसलिए तुम्हारे ननिहाल के सभी लोग तुम्हारे भले की कामना के लिए प्रयास करते रहे। तू उन्हीं लोगों की गोद में बचपन से पली तथा तू उनसे अच्छी प्रकार से हिल-मिल गई थी। अपने जीवन की अंतिम घड़ियों में तूने उस स्नेहमयी गोद में शरण प्राप्त की तथा अपने सुंदर नेत्र बंद करके तुमने मृत्यु का आलिंगन कर लिया।
विशेष :
- इन पंक्तियों में कवि ने अपनी पुत्री के दुल्हन बनकर विदा होने तथा ननिहाल में जाकर इस संसार से विद्या होने का मार्मिक चित्रण किया है।
- भाषा तत्सम-प्रधान, भावपूर्ण, प्रवाहमयी तथा प्रसंगानुकूल है।
- अनुप्रास, उदाहरण अलंकार की छटा शोभनीय हैं।
- मुक्त छंद युक्त रचना है।
- खड़ी बोली का प्रयोग है।
- प्रतीकात्मकता का सहज प्रयोग सरहनीय है।
4. मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेंरे कार्य सकल
हों भषष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता में तेरा तर्पण!
शब्दार्थ : संबल – सहारा। विकल – व्याकुल। वज्रपात – बिजली गिरना। युग – दो। नत – झुका। माध – माथा, मस्तक। श्रष्ट – नष्ट, समाप्त। शतदल – कमल। कन्ये – पुत्री। तर्पण – जलांजलि देना, श्राद्ध करना।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’ द्वारा रचित शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ से ली गई हैं। इस गीत में कवि ने अपनी पुत्री सरोज के आकस्मिक निधन पर अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं।
व्याख्या : कवि अपनी पुत्री को संबोधित करते हुए कहता है कि मुझ भाग्यहीन की तुम ही एकमात्र सहारा थी। आज तुम्हारे निधन के दो वर्ष बाद तुम्हारी याद से व्याकुल होकर मैं यह बात कह रहा हूँ। मेरे जीवन की कहानी तो दुख की कहानी है अर्थात मैं आजीवन विपत्तियों का सामना करता आया हूँ। ये बात मैंने आज तक किसी से नहीं कही थी। अतः आज कहकर क्या करूँगा।
यदि मेरा धर्म बना रहेगा तथा मेरे सारे कमों पर भले ही बिजली टूटकर गिर पड़े तो भी मैं नत मस्तक होकर उसे सहन करूँगा। इस जीवन की यात्रा में भले ही मेरे सारे सत्कार्य शिशिर ऋतु में मुरझानेवाले पुष्प के समान नष्ट हो जाएँ तो भी मुझे कोई चिंता नहीं। भाव यह हैं कि भले ही अपने सत्कार्यों से मुझे यश की प्राप्ति न हो तो भी मुझे किसी प्रकार का दुख नहीं होगा। हे बेटी! मैं आज अपने पिछले सभी जन्मों के अपने पुण्य कार्यों के फल तुम्हें सौँपकर आज तुम्हारा तर्पण करता हैँ श्राद्ध के रूप में तुम्हें जलांजलि अर्पित करता हूँ।
विशेष :
- इन पंक्तियों में कवि का समस्त दैन्य भाव मुखरित हो उठा है। उसके जीवन की संपूर्ण वेदना को अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है।
- भाषा तत्सम-प्रधान, भावपूर्ण तथा प्रवाइमयी है।
- अनुप्रास और उपमा अलंकार दर्शनीय हैं।
- मुक्त छंद का प्रयोग किया गया है।
- खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।