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यथास्मै रोचते विश्वम् Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary

यथास्मै रोचते विश्वम् – रामविलास शर्मा – कवि परिचय

जीवन-परिचय – रामविलास शर्मा हिंदी-साहित्य के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म सन 1912 ई० को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में ऊँचगाँव-सानी गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों में हुई। लखनक विश्वविद्यालय से उन्होंने एम०ए० (अंग्रेजी) की परीक्षा पास की। इसी विश्वविद्यालय से पी-एच॰डी॰ की उपाधि ग्रहण की। पी-एच॰ डी० करने के बाद उन्होंने लखनक विश्वविद्यालय से ही कुछ समय तक अंग्रेज्ञी विभाग में अध्यापन कार्य किया।

सन 1943 से 1971 तक वे आगरा बलवंत राजपूत कॉलेज में अंग्रेज्जी के प्राध्यापक रहे। तत्पश्चात कुछ समय तक वे आगरा के ही के॰ एम॰ मुंशी विद्यापीठ के निर्देशक रहे। उनकी साहित्य साधना के लिए उनको अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।। ‘निराला की साहित्य साधना’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके साथ-साथ उन्हें सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश सरकार का भारत-भारती पुरस्कार, व्यास सम्मान और हिंदी साहित्य अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान से अलंकृत किया गया।

वे अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे। यही कारण था कि वे पुरस्कारों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सम्मान को तो स्वीकार कर लेते थे लेकिन पुरस्कार राशि को लोकहित के लिए लौटा देते थे। उनकी इच्छा यह थी कि यह राशि समाज को शिक्षित करने के लिए खर्च की जाए। जीवन के आखिरी वर्षों में शर्मा जी दिल्ली में रहकर साहित्य-समाज और इतिहास से संबंधित चिंतन और लेखन करते रहे। अंतत: सन 2000 ई० को वे अपनी साहित्य-निधि संसार को साँपकर स्वर्ग सिधार गए।

प्रमुख रचनाएँ – रामविलास शमी आलोचक, भाषा-शास्त्री, समाज-चिंतक और इतिहासकार रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने कवि और आलोचक के रूप में पदार्पण किया। उनकी कुछ कविताएँ अन्जेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में संकलित हैं। उन्होंने वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के काव्य का नव मूल्यांकन और तुलसीदास के महत्व का विवेचन भी किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंभारतेंदु और उनका युग, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, प्रेमचंद और उनका युग, निराला की साहित्य साधना (तीन खंड) भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड) भाषा और समाज, भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद, इतिहास दर्शन, भारतीय, संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।

साहित्यिक विशेषताएँ – रामविलास शर्मा एक उच्च कोटि के समाज-चिंतक थे। उनके साहित्य-चिंतन के केंद्र में भारतीय समाज का जनजीवन, उसकी समस्याएँ तथा आकांक्षाएँ रही हैं। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य का विवेचन और मूल्यांकन करते हुए हिंदी की प्रगतिशील आलोचना का मार्गदर्शन किया है। जीवन के आखिरी दिनों में वे भारतीय समाज का संस्कृति और इतिहास की समस्याओं पर गंभीर चिंतन और लेखन करते हुए वर्तमान समाज की समस्याओं को समझने के लिए अतीत की विवेक यात्रा करते रहे। वे एक महत्वपूर्ण विचारक, आलोचक होने के साथ-साथ प्रसिद्ध निबंधकार भी हैं। उन्होंने सामान्यतः विचार प्रधान और व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की रचना की है। उनके गद्य साहित्य में समकालीन समाज की सामाजिक राजनीतिक आदि समस्याओं का यथार्थ चित्रण हुआ है।

वे एक सजग साहित्यकार थे, अतः उन्होंने सामाजिक समस्याओं पर कटु व्यंग्य प्रस्तुत किया है। वर्तमान समाज में फैली विसंगतियों को उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है। ‘यथास्मै रोचते विश्वम् ‘ निबंध के माध्यम से लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसको कर्म के प्रति सचेत किया है। उन्होंने बताया है कि साहित्य जहाँ एक ओर मनुष्य को मानसिक विश्रांति प्रदान करता है वहीं उसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी देता है।

रामविलास शर्मा के निबंधों में विचार और भाषा के स्तर पर एक रचनाकार की जीवंतता और सहृदयता मिलती है। स्पष्ट कथन, विचार की गंभीरता और भाषा की सहजता उनकी निबंध शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। उनकी भाषा सहज-सरल-सरस खड़ी बोली है। उन्होंने अपनी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशज शब्दों का प्रयोग किया है। मुहावरों के प्रयोग से उनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। उनका शब्द-भंडार तथा वाक्य-संरचना अत्यंत श्रेष्ठ है। वस्तुतः रामविलास शर्मा हिंदी साहित्य के प्रमुख निबंधकार में से एक रहे हैं। उनका हिंदी निबंध साहित्य में विशेष योगदान है। उनका प्रस्तुत निबंध भाषा-शैली की दृष्टि से एक विशेष निबंध है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

Yathasamay Rochte Vishvam Class 12 Hindi Summary

‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ निबंध लेखक रामविलास शर्मा द्वारा लिखित उनके निबंध संग्रह ‘विराम-चिहन’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया है। प्रजापति से कवि की तुलना करते हुए किसी ने लिखा था ‘ यथास्मै रोचते विश्वम् तथेदं परिवर्तत’ ‘अर्थात कवि को जैसा अच्छा लगता है वह वैसे ही संसार को बदल देता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है तो संसार को बदलने की बात न होती। कवि का कार्य यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना होता तो वह प्रजापति का दर्जा न पाता।

प्रजापति ने जिस समाज को बनाया है, उससे असंतुष्ट होकर एक नवीन समाज बनाना कविता का जन्मसिद्ध अधिकार है। यह माना जाता है कि यूनानी विद्वान कला को जीवन की नकल समझते थे और अफ़लातून के असार संसार को असल की नकल बताकर कला को नकल की नकल कहा था। अरस्तु ने नकल-नवीस का खंडन यह कहकर दिया था कि ट्रेजेडी में मनुष्य वास्तविक रूप से बढ़कर दिखाए जाते हैं।

आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने भी दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाकर समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित नहीं किया, बल्कि प्रजापति की तरह नई सुष्टि की थी। कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती। मनुष्य उसकी सृष्टि में अपनी प्रिय आकृति अवश्य देखता है। राम के साथ रावण का चित्र न होने पर गुणवान और चरित्रवान नायक का चरित्र फीका हो जाए। एक कवि अपने सृजन में संसार की अच्छी-बुरी दोनों बातों का चित्रण करता है। ऐसा प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है।

कवि विधाता पर साहित्य रचते हुए भी उसे मानवीय संबंधों की परिधि में खींच लाता है। मानवीय संबंधों की दीवार से ही हैमलेट की कवि-सुलभ सहानुभूति टकराई थी तथा शेक्सपियर ने एक महान ट्रेजेडी की सुष्टि की थी। जब समाज को बहुसंख्यक-वर्ग मानव संबंधों के पिंजरे में पंख फड़फड़ाने लगता है और वह बेड़ियाँ तोड़कर बाहर उड़ने हेतु व्याकुल हो उठता है, तब कवि का प्रजापति रूप और अधिक स्पष्ट हो जाता है। वह समाज के दुष्ट और नियामक के मानव रूपी पक्षी से क्षुव्ध और रुद्ध स्वर को वाणी देता है। वह मुक्त गगन के गीत गाकर उस पक्षी के पंखों में नई शक्ति भर देता है।

साहित्य जीवन का प्रतिबिंब रहकर उसे समेटने, संगठित करने और परिवर्तित करने का अजेय अस्त्र बन जाता है। 15 वीं और 16 वी सदी में साहित्य ने यही भूमिका पूरी की। कबीर, नानक, सूर, तुलसी, मीरा, चंडीदास आदि महान कवियों ने सामंती पिंजरे में बंद मानव जीवन की मुक्ति के लिए प्रयास किए तथा जीर्ण मानव संबंधों के पिंजरे को झकझोर दिया। 17 वी और 20 वीं सदी में रवींद्रनाथ टैगोर, भारतेंदु वींरेश लिंगम, भारती वल्लतोल आदि लोगों ने अंग्रेज़ी राज्य तथा सामंती अवशेषों पर प्रहार किया।

भारत की दुखी पराधीन जनता को संगठित किया। साहित्य का पांचजन्य समरभूमि में न तो उदासीनता का राग सुनाता है, न भाग्य के सहारे बैठने और पिंजरे में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा देता है। वह ऐसे प्रेरणादायक का खंडन करता है। वह कायरों की समरभूमि का बुलावा देता है। साहित्य की यह गौरवशाली परंपरा भरतमुनि से भारतेंदु तक चली आ रही है। इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृत काम वासनाएँ, अहंकार, व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के सिद्धांत सूर्य के सामने अंधकार की तरह कदापि नहीं ठहरते।

लेखक चिंता व्यक्त करता है कि वर्तमान युग में भी मानव संबंधों के पिंजरे में पक्षी के समान बंदी है। वह गगन में उड़ान भरने के लिए व्याकुल है। वे लोग धिक्कार के योग्य हैं जो पिंजरे को तोड़ने की अपेक्षा उसे मज्ञबूत कर रहे हैं। वे लोग न तो द्रष्टा हैं और न सृष्टा। लेकिन जिन्हें धरती से और मानव से प्रेम है, उनका साहित्य जनता का रोष और असंतोष प्रकट करता है। उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता देता है। प्रजापति कवि की परंपरा अपनाने से हिंदी-साहित्य उन्नत और समृद्ध होकर हमारे जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

कठिन शब्दों के अर्थ :

  • नकल-नवीस – नकल करने वाले
  • क्षुब्ध – खिन्न, क्षोभयुक्त, अशांत
  • पाशर्श – बगल, बाजू
  • जीर्ण – पुराना, जर्जर
  • पांचजन्य – श्रीकृष्ण के शंख का नाम
  • विश्रांति – आराम
  • सीकचा – बंधन, कैद
  • पंख कतरना – निर्यंत्रित करना
  • रोचते – अचछा लगता है, रुचता है
  • तथेर्द – बैसे ही
  • यथार्थ – वास्तविक रूप
  • दुर्लभ – कठिन
  • कीर्ति – यश
  • कृतझ्श – उपकार को मानने वाला
  • प्रियदर्शन – प्यारा और अच्छा देखने वाला
  • विकृति – बुरी
  • सृष्टा – निर्माण करने वाला
  • द्ड़क्रत – दृढ़-प्रतिज्ञ
  • रुद्धस्वर – रूकी हुई आवाज़
  • सुधर – सुघड़, सुंदर
  • यथास्मै – जैसे
  • विश्ं – संसार को
  • परिवर्तन – बदल लेता है
  • दर्जा – स्थान
  • त्वया – तैरे द्वारा
  • निराधार – बेसहारा
  • दढ़क्रत – व्रत पर दृब़ रहने वाला
  • समरभूमि – युद्ध-भूमि
  • दुष्टा – देखने बाला
  • समृद्ध – उन्नत

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यथास्मै रोचते विश्वम् सप्रसंग व्याख्या

1. यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति का दर्जा न पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कविता का जन्मसिद्ध अधिकार है। यूनानी विद्वानों के बारे में कहा जाता है कि वे कला को जीवन की नकल समझते थे और अफ़लातून ने असार संसार को असल की नकल बताकर कला को नकल कहा था। लेकिन अरस्तू ने ट्रेजेडी के लिए जब कहा था कि उसमें मनुष्य जैसे है उससे बढ़कर दिखाए जाते हैं, तब नकल-नवीस कला का खंडन हो गया था।

प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित लेखक रामविलास शर्मा द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबंध से अवतरित है। इसमें लेखक ने समाज तथा कला का चित्रण किया है।

व्याख्या : लेखक का कथन है कि यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदल डालने की बात ही न होती। यही एक कवि का कार्य यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह एक प्रजापति का स्थान प्राप्त न करता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है उससे असंतुष्ट होकर एक नए समाज का निर्माण करना कविता का जन्मसिद्ध अधिकार है।

यूनानी विद्वानों के बारे में यह कहा जाता है कि वे कला को जीवन की नकल समझते थे और अफ़लातून ने सारहीन संसार को वास्तविकता की नकल बताकर कला को नकल कहा था, लेकिन पाश्चात्य आलोचक अरस्तू ने ट्रेजेडी के लिए जब कहा था कि उसमें मनुष्य जैसे होते हैं उससे बढ़कर दिखाए जाते हैं अर्थात ट्रेजेडी में मनुष्य का वास्तविकता से अलग चित्रण होता है, तब नकल नवीस कला का खंडन हो गया।

विशेष :

  1. लेखक ने कला के संबंध में विद्वानों के विचार प्रस्तुत किए हैं।
  2. भाषा सरल, सरस, सहिित्यिक खड़ी बोली है।
  3. तत्सम, तद्भव, विदेशज और शब्दावली का प्रयोग है।

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2. कवि की यह सुष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें पर ऐसी आकृति ज़रूर देखते हैं जैसे हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं। जिन रेखाओं और रंगों से कवि चित्र बनाता है, वे उसके चारों ओर यधार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुघर रूप ही नहीं, चित्र के पाश्र्व भाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है। राम के साथ वह रावण का चित्र न खींचें तो गुणवान, वीर्यवान, कृत्ज, सत्यवाक्य, दृढ़वत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन नायक का चरित्र फीका हो जाए और वास्तव में उसके गुणों के प्रकाशित होने का अवसर ही न आए।

प्रसंग : यह गद्यांश ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित लेखक रामविलास शर्मा द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबंध से लिया गया है। इसमें लेखक ने कवि कार्य का चित्रण किया है।

ख्याख्या : लेखक का मत है कि कवि की कोई भी रचना निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें लेकिन ऐसी आकृति अवश्य देखते है जो हमें प्रिय होती है, कहने का अभिप्राय यह है कि कवि की रचना में मानव की प्रिय आकृति का चित्रण जरूर होता है। एक कवि जिन रेखाओं और रंगों के माध्यम से चित्र का निर्माण करता है वे रेखाएँ और रंग उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुंदर रूप ही नहीं बल्कि चित्र के पास वाले भाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है।

एक कवि अपने समाज का ही यथार्थ अंकन करता है। वह समाज से अनुभूत दृश्यों का ही निर्माण करता है। यदि एक कवि राम के साथ रावण का चित्र न खींचे, वह सत्य के साथ असत्य का चित्रण न करे, तो गुणवान, शक्तिवान, उपकारी, सत्यवाक्य, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दानवान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन नायक का चरित्र फीका हो जाए और वास्तव में उसके गुणों के प्रकाशित होने का अवसर ही न आए।

विशेष :

  1. कवि ने सुजन के विषय का चित्रण किया है।
  2. भाषा सहज और बोधगम्य है।
  3. तत्सम शब्दावली की प्रचुरता है।
  4. विचारात्मक शैली है।

3. कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है, तब उसे भी मानव-संबंधों की परिधि में खींच लाता है। इन मानव-संबंधों की दीवाल में ही हैमलेट की कवि सुलभ सहानुभूति टकराती है और शेक्सपीयर एक महान ट्रेजेडी की सृष्टि करता है। ऐसे समय जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानव-संबंधों के पिंजरे में पंख फड़फड़ाने लगे, सीकचे तोड़कर बाहर उड़ने के लिए आतुर हो उठे, उस समय कवि का प्रजापति रुप और भी स्पष्ट हो उठता है। वह समाज्ञ के द्रष्टा और नियामक के मानव-विहग से क्षुब्ध और रुद्धस्वर को वाणी देता है। वह मुक्त गगन के गीत गाकर उस विहग के परों में नयी शक्ति भर देता है। साहित्य जीवन का प्रतिबिंबित रहकर उसे समेटने, संगठित करने और उसे परिवर्तन करने का अजेय अस्त्र बन जाता है।

प्रसंग : यह गद्यांश हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित तथा रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘यथास्म रोचते विश्वम्’ निबंध से लिया गया है। इस गद्य में लेखक ने कवि की साहित्य-सृजना के बारे में बताया है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

व्याख्या : लेखक का कहना है कि कवि जब प्रभु पर साहित्य की रचना करता है तब उसे भी मानव-संबंधों की परिधि में स्थान दे देता है। इन्हीं मानव-संबंधों की दीवार से ही हैमलेट की कवि-सुलभ सहानुभूति संघर्ष करती है और शेक्सपीयर एक महान ट्रेजेडी की रचना करता है। ऐसे समय में जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानवीय संबंधों के पिंजरे में अपने पंख फड़फड़ाने लगे तथा उसकी बेड़ियाँ तोड़कर आजाद होकर बाहर उड़ने हेतु व्याकुल हो गए, उस समय कवि का प्रजापति रूप और भी स्पष्ट हो उठता है।

वह समाज के द्रष्टा और नियामक के मानव रूपी पक्षी से बेचैन और रूके हुए स्वर को अपनी वाणी प्रदान करता है, अर्थात् अपनी लेखनी द्वारा उसका चित्रण करता है। वह स्वतंत्र आकाश के गीत गाकर उस मानव रूपी पक्षी के पंखों में नई शक्ति भर देता है। लेखक कहता है कि साहित्य जीवन का प्रतिबिंब रहकर उसे समेटने, इकट्ठा करने और उसे परिवर्तित करने का अजेय अस्व बन जाता है।

विशेष :

  1. लेखक ने बताया है कि कवि मानव को बेड़ियों से निकाल स्वतंत्र जीवन जीने की शक्ति प्रदान करता है।
  2. भाषा अर्त्यंत सहज खड़ी बोली है।
  3. तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशज शब्दों का समायोजन है।
  4. मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
  5. विचारात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

4. पंद्रहर्वी-सोहलरीं सदी में हिंदी-साहित्य ने यही भूमिका पूरी की थी। सामंती पिंजरे में बंद मानय-जीवन की मुक्ति के लिए उसने वर्ण और धर्म के सींकचों पर प्रहार किए थे। कश्मीरी ललद्यद, पंजाबी नानक, हिंदी सूर-तुलसी-मीरा-कबीर, बंगाली चंडीदास, तमिल तिरुवल्लुवर आदि-आदि गायकों ने आगे-पीछे समूचे भारत में उस जीर्ण मानव-संबंधों के पिंजड़े को झकझोर दिया था। इन गायकों की वाणी ने पीडित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए जीवन के लिए बटोरा, उसे आशा दी, उसे संगठित किया और जहाँ-तहाँ जीवन को बदलने के लिए संघर्ष के लिए आमंत्रित भी किया।

प्रसंग : ये पंक्तियाँ ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबंध से लिया गया है। इनके रचयिता रामविलास शर्मा हैं। इसमें लेखक ने 15 री- 16 वीं शताब्दी में मानव-कल्याणमयी साहित्य सृजन के बारे में बताया है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

ख्याख्या : लेखक कहता है कि 15 वीं- 16 वीं शताब्दी में हिंदी-साहित्य ने यही भूमिका पूरी की थी अर्थांत इस समय मानवोहित साहित्य का सृजन हुआ था। इस साहित्य ने सामंती पिंजरे में बंद मानव-जीवन की मुक्ति के लिए उसने वर्ग और धर्म की जंजीरों पर प्रहार किए थे। इस साहित्य ने समाज में फैली धर्म-संप्रदायों पर कहु व्यंग्य कर उसका विरोध किया था। हिंदी के संत कबीरदास, गुरु नानक, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, कश्मीरी ललद्यद, बंगाली चंडीदास, तमिल के तिरुवल्लुवर आदि साहित्यकारों तथा गायकों ने अपने आगे-पीछे संपूर्ण भारत में उस टूटे-फूटे मानव-संबंधों के पिंजरे को झकझोर दिया था।

इन्हीं गायकों की वाणी ने पीडित भारतीय जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नवीन के लिए इकट्ठा किया और उसे संबर्ष के लिए प्रेरित किया। उसे संगठित किया और यहाँ-वहाँ के जीवन को बदलने के लिए संघर्ष करने हेतु आमंत्रित भी किया। अर्थात इन साहित्यकारों ने समाज के लोगों को एकजुट कर सामाजिक रूढ़ियों और समस्याओं के साथ लड़ने की प्रेरणा प्रदान की।

विशेष :

  1. लेखक ने उन साहित्यकारों का वर्णन किया है, जिन्होंने समाज कल्याण हेतु साहित्य सृजन किया।
  2. भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
  3. अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है।
  4. विचारात्मकता की प्रधानता है।

5. साहित्य का पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजडे में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और पराभव-प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समरभूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है। यह रामविलास शर्मा द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ निबंध से लिया गया है। इसमें लेखक ने बताया है कि साहित्य कायरों में भी प्राणशक्ति प्रदान कर जीवन-संग्राम में लड़ने की प्रेरणा देता है।

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ख्याख्या : लेखक का मंतव्य है कि साहित्य पांचजन्य युद्ध-भूमि में उदासीनता का गीत नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के सहारे बैठने और पिंजरे में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता, बल्कि जो व्यक्ति ऐसी प्रेरणा देता है उनके वह पंख काट देता है। उनको नष्ट कर देता है। साहित्य तो कायरों तथा हारे हुए व्यक्तियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी युद्ध-भूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है। लेखक का अभिप्राय यह है कि साहित्य मानव को जीवन-संग्राम में डटकर संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करता है। वह मानव को उदासीन नहीं बनाता, बलिक वह तो ऐसे लोगों में भी जान फूँक देता है जो जीवन से हार गए होते हैं।

विशेष :

  1. लेखक ने साहित्य को मानव-जीवन की प्रेरक शक्ति बताया है।
  2. मुहावरेदार भाषा का प्रयोग हुआ है।
  3. तत्सम तथा विदेशज शब्दावली का प्रयोग हुआ है।
  4. शैली विचारात्मक है।

6. अभी भी मानव-संबंधों के पिंजड़े में भारतीय जीवन विहग बंदी है। मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिए वह व्याकुल है। लेकिन आज भारतीय जनजीवन संगठित प्रहार करके एक के बाद एक पिंजडे की तीलियाँ तोड़ रहा है। धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं, जो भारतभूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दंभ करके मानव मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते है। ये द्रष्टा नहीं हैं, इनकी आंखें अतीत की ओर हैं। ये सृष्टा नही हैं, इनके दर्पण में इन्ही की अहंवादी विकृतियाँ दिखाई देती हैं। लेकिन जिनें इस देश की धरती से ध्यार है, इस धरती पर बसने वालों से स्नेह है, जो साहित्य की युगांतरकारी भूमिका समझते हैं, वे आगे बढ़ रहे हैं। उनका साहित्य जनता का रोष और असंतोष प्रकट करता है, उसे आत्मविश्वास और दुढ़ता देता है, उनकी रुचि जनता की रुचि से मेल खाती है और कवि उसे बताता है कि इस विश्य को किसी देश में परिवतित करना है।

प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित तथा रामविलास शमां द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबंध से अवतरित है। इसमें लेखक ने एक प्रेष्ठ और अश्रेष्ठ साहित्यकार के सृजन-कर्म का चित्रण किया है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

व्याख्या : लेखक की मान्यता है कि वर्तमान युग में भी भारतीय मनुष्य जीवन संबंधों के पिजरे में एक पक्षी की तरह बंदी बना हुआ है। वह निरंतर इस स्वतंत्र आकाश में उड़ान भरने के लिए व्याकुल है। वह आज भारतीय जनजीवन संगठित प्रसार करके एक के बाद एक पिंजरे की जंज़ीरों को तोड़ रहा हैं। लेखक ऐसे लोगों पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि वे लोग धिक्कार के योग्य हैं जो इन पिंजरे की जंजीरों को तोड़ने की अपेक्षा उन्हें मज़्ूत करने में लगे हैं। जो भारतभूमि में जन्म लेकर और एक साहित्यकार होने का घमंड करके मानव को पराधीनता और गुलाम होने का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे लोग द्रष्टा नही कहे जा सकते, क्योंकि इनकी औँखें भविष्य को न देखकर अतीत की ओर हैं।

ये निर्माता भी नहीं हैं क्योंकि इनके दर्पण में इन्हीं को अहंकारी बुराइयाँ दिखाई देती हैं। लेकिन जिन साहित्यकारों को अपने देश की धरती से प्यार है और इस देश की धरती पर बसने वालों से स्नेह है, जो साहित्य को युगांतरकारी भूमिका मानते हैं वे निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनका साहित्य जनता का क्रोध और असंतोष प्रकट करता है और उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता प्रदान करता है। उनकी रूचि जनता की रुचि से मेल खाती है और कवि उसे बताता है कि इस संसार को किस दिशा में बदलना है। एक श्रेष्ठ साहित्यकार समाज की अनुभूतियों से गहन संबंध स्थापित कर समाज का यथार्थ का चित्रण करता है तथा समाज को परिकर्तन की प्रेरणा देता है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

विशेष :

  1. लेखक ने एक श्रेष्ठ तथा निकृष्ट साहित्यकार के सृजन में अंतर बताया है तथा संकुचित दृष्टि वाले साहित्यकारों पर व्यंग्य किया है।
  2. भाषा सरल, सरस और भावानुकूल है।
  3. तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशज शब्दावली का प्रयोग हुआ है।
  4. मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
  5. विचारात्मक शैली की प्रधानता है।

7. यदि समाज में मानव संखंध वही होते जो कवि चाहता है, तो शायद उसे प्रजापति बनने की ज्ञरुरत न पड़ती। उसके असंतोष की जड़ ये मानव-संबंध ही हैं। मानव-संखंधों से पर साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है, तब उसे भी मानव-संबंधों की परिधि में खींच लाता है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शमी द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं। इस पाठ में लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया है।

व्याख्या : इन पंक्तियों में लेखक स्पष्ट करता है कि समाज में मानव-संबंध वैसे नहीं है जैसे कि कवि चाहता है, क्योंकि यदि ये संबंध कवि की इच्छा के अनुरूप होते तो कवि को प्रजापति बनने की आवश्यकता ही न पड़ती। प्रजापति का कार्य समाज का नवनिर्माण करना होता है, इसलिए कवि प्रजापति के रूप में व्याप्त जड़ संबंधों के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए नवीन मानवीय मूल्यों को स्थापित करना चाहता है। साहित्य भी मानव-संबंधों पर आधारित होता है। कवि जब साहित्य रचना करता है तो वह विधाता पर रहित साहित्य में भी मानवीय संबंधों को महत्व प्रदान करता है और उसमें भी मानवीय गुण आरोपित कर देता है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

विशेष :

  1. लेखक ने साहित्य का आधार मानवीय संबंधों पर आधारित माना है।
  2. भाषा सहज, सरल तथा शैली विचारात्मक है।

8. इसलिए प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यधार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-दुख की बात ही नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नही है, वह उसे आगे बड़ने के लिए उत्ताहित भी करता है।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं, जिसमें लेखक ने कवि को प्रजापति बताया है। व्याख्या इन पंक्तियों में लेखक कवि के रचना-संसार की चर्चा करते हुए लिखता है कि कवि प्रजापति इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके रचना जगत की प्रेरणा उसे इसी यथार्थ जीवन से प्राप्त होती है। वह कठोर वर्तमान में रहते हुए भी सुखद तथा सुंदर भविष्य के निर्माण का संदेश अवश्य ही देता है। यही कारण है कि साहित्य में मनुष्य को जहाँ अपने आज के सुख-दुख दिखाई देते हैं, वहीं उसमें सुखद भविष्य का स्वर भी सुनाई देता है। इस प्रकार साहित्य एक थके हुए संतृप्त मनुष्य को आनंद ही प्रदान नही करता, वरन उसे अपने लक्य की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा भी देता है।

विशेष :

  1. लेखक ने साहित्य को मनुष्य का मार्गदर्शक तथा निराशा में आशा की किरण दिखाने वाला माना है।
  2. भाषा तत्सम प्रधान तथा शैली विचारात्मक है।

9. उसके चित्र के चमकीले रंग और पाश्र्वभूमि की गहरी काली रेखाएँ-दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य से क्षितिज पर लगी हुई हैं।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं। इस निबंध में लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया है।

व्याख्या : इन पंक्तियों में लेखक स्पष्ट करता है कि जब कवि कोई रचना करता है तो उस रचना के माध्यम से वह अपनी रुचि के अनुसार संसार को अच्छा दिखाना चाहता है। उसकी रचना में व्यक्त भावनाएँ उसके वास्तविक जीवन से उत्पन्न होती हैं। इसलिए प्रजापति कवि अत्यंत गंभीर तथा वास्तविकताओं को व्यक्त करने वाला होता है। वह वास्तविकताओं को उजागर करते हुए उज्पव तथा उन्नत भविध्य का रेखांकन भी करता है। वर्तमान कैसा भी हो, परंतु भविष्य को वह सुनहरा दिखाना चाहता है।

विशेष :

  1. लेखक ने कवि प्रजापति को यथार्थवादी होने के साथ-साथ भविष्यदृष्टा भी माना है।
  2. भाषा तत्सम प्रधान तथा शैली विचारात्मक है।

10. प्रजापति की अपनी भूमिका भूलकर कवि दर्पण दिखाने वाला ही रह जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता है जिसकी अपनी कोई असलियत न हो। कवि का व्यक्तित्व पूरे वेग से तभी निखरता है जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे कवि पुरोहित की तरह बढ़ता है। इसी परंपरा को अपनाने से हिन्दी साहित्य उन्नत और समृद्ध होकर हमारे जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा।

प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित रामविलास शर्मा द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबंध से अवतरित है। इसमें कवि ने समाज तथा कला का चित्रण किया है। लेखक ने कवि को प्रजापति की भूमिका में दिखाया है। प्रजापति की भूमिका की उपेक्षा कर कवि केवल चित्रकार-सा बन जाता है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary - Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya

व्याख्या : लेखक का कथन है कि जब एक कवि अपनी प्रजापति की भूमिका को भूल जाता है तब वह केवल समाज का दर्पण दिखाने वाला ही बनकर रह जाता है। वह कोई निर्माण नहीं कर सकता। वह एक ऐसा नकल करने वाला बन जाता है जिसकी अपनी कोई वास्तविकता नहीं होती। एक कवि का व्यक्तित्व पूर्ण वेग के साथ तभी निखरता है जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे पुरोहित के समान बढ़ता है। अर्थांत कवि केवल दर्पण दिखाने वाला नहीं बलिक समाज को परिवर्तित करने वाला होना चाहिए। इस परंपरा के अपनाने से हिंदी साहित्य उन्नत और समृद्ध होकर हमारे जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा।

विशेष :

  1. लेखक ने कवि को पुरोहित की भूमिका के रूप में चित्रित किया है।
  2. भाषा सरल, सरस, साहित्यिक खड़ी बोली है।
  3. तत्सम तथा विदेशज शब्दावली है।