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कच्चा चिट्ठा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary

कच्चा चिट्ठा – ब्रजमोहन व्यास – कवि परिचय

जीवन-परिच्चय – ब्रजमोहन व्यास हिंदी-साहित्य के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म सन 1886 ई० में इलाहाबाद में हुआ। पंडित गंगानाथ झा और पंडित बालकृष्ण भट्ट से उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। व्यास जी सन 1921 से 1943 तक इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी रहे। सन 1944 से 1951 के ‘लीडर’ समाचार-पत्र समूह के जनरल मैनेजर रहे। अंतत: 23 मार्च, सन 1963 ई० को इलाहाबाद में ही उनका देहावसान हो गया।

रचनाएँ – व्यास जी आधुनिक हिंदी-साहित्य के प्रमुख गद्यकार रहे हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
जानकीहरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद, पं० बालकृष्ण भट्ट (जीवनी), महामना मदन मोहन मालवीय (जीवनी), मेरा कच्चा चिट्ठा (आत्म-कथा)।

साहित्यिक विशेषताएँ – व्यास जी ने अपनी लेखनी के माध्यम से अनेक सजीव चित्र अंकित किए हैं। इलाहाबाद का विशाल और प्रसिद्ध संग्रहालय उनकी प्रमुख देन है। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता थे। अत: आजीवन समाज-सुधार हेतु कार्य करते रहे। उन्होंने अनेक महानुभावों की जीवनियाँ लिखकर उनकी ओर पाठकों का ध्यान आकार्षित किया है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से अपने जीवन के कच्चे चिट्ठे का चित्र प्रस्तुत किया है। अपने जीवन में हुए खट्टे-मीठे अनुभवों का उन्होंने बेबाकी से चित्रण किया है।

व्यास जी ने अपने साहित्य में सरल, सहज खड़ी बोली भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, बिहारी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। उनकी साहित्य शैली चित्रात्मक, आत्मकथात्मक, वर्णनात्मक है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से उनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। वस्तुत: व्यास जी हिंदी-साहित्य के महान गद्यकार थे।

Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary - Kachcha Chittha Summary Vyakhya

Kachcha Chittha Class 12 Hindi Summary

प्रस्तुत पाठ लेखक की आत्मकथा ‘कचा-चिट्ठा’ का अंश है जिसमें लेखक ने अपने जीवन के कच्चे चिट्ठे का चित्रांकन किया है। सन 1936 के लगभग लेखक कौशांबी गए था। वहाँ से कार्य खत्म करके इक्के पर बैठ पसोवा के लिए चले गए। पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ है। यह किंवदंती है कि वहाँ छोटी पहाड़ी के पास गुफा के एक ओर सम्राट अशोक ने एक स्तूप बनवाया था। वहाँ के गाँव में लेखक को कुछ अंधी मूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिले जिन्हें लेकर वे कौशांबी लौट आए।

रास्ते में आते हुए एक गाँव के निकट पेड़ के नीचे शिव की मूर्ति देखी तो उसे साथ उठा लाए। उसके थोड़े ही दिन बाद गाँववालों को पता चला कि मूर्ति गायब हो गई। थोड़े दिनों बाद पता लगने पर गाँववाले लेखक के संग्रहालय में आकर उस मूर्ति को उठा ले गए। उसी वर्ष या संभवत: उसके दूसरे वर्ष एक बार फिर लेखक कौशांबी गए। वहाँ गाँव-गाँव घूमते हुए अचानक एक खेत की मेंड़्द पर उनको बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुंदर मूति मिल गई। एक वृद्ध महिला के मूर्ति पर हक जताने पर उसे दो रुपए देकर उस मूर्ति को वहाँ से ले आए।

आजकल वह मूर्ति इलाहाबाद संग्रहालय में विराजमान है। एक बार एक फ्रांसीसी डीलर उस संग्रहालय को देखने के लिए आया। वह संग्रहालय में स्थित बोधिसत्व की मूर्ति को खरीदना चाहता था लेकिन लेखक के मना करने पर वह मायूस होकर लौट आया। लेखक के लिए यह मूर्ति अनमोल है। यह मूर्ति अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। यह प्रमाण उस मूर्ति के पदस्थल पर अंकित है।

1938 के लगभग गर्वनमेंट ऑफ़ इंडिया का पुरातत्व विभाग कौशांबी श्री मजूमदार के निरीक्षण में खुदाई कर रहा था। उस समय श्री के॰ एन० दीक्षित डायरेक्टर-जनरल थे। उन्हें प्रयाग संग्रहालय के प्रति विशेष सहानुभूति थी। अतः सदैव सहायता हेतु तत्पर रहते थे। श्री मजूमदार कौशांबी के चार-पाँच मील दूर गाँव हजियापुर के एक व्यक्ति के यहाँ से भा्र मथ का बड़ा शिलालेख उठा लेना चाहते थे। इसका गाँव के ज़रीदार गुलज्ञार मियाँ ने एतराज़ किया। गुलज्ञार मियाँ लेखक के अच्छे भक्त थे। उनके भाई को लेखक ने नगर पालिका में चपरासी की नौकरी दे रखी थी। वे आसपास के गाँवों से पापाण मूर्तियाँ, शिलालेख आदि लेखक को देते रहते थे।

मजूमदार साहब के ज़बरदस्ती शिलालेख उठवाने पर वे लोग फ़ौजदारी पर उतर आए। उन्होंने कहा कि यह तो इलाहाबाद के अजायबघर को 25 रुपए में बेच दिया गया है। अतः बिना व्यास जी के पूछे नहीं उठाने देंगे। अततः गुलज्ञार मियाँ ने मजूमदार को वह शिलालेख नहीं दिया। एक दिन लेखक के पास कौशांबी से दीक्षित साहब का सरकारी पत्र आया कि आपके उकसाने पर ज्मीदार भद्रमथ का शिलालेख देने पर आपत्ति करता है। यह उनका धमकीभरा पत्र था।

लेखक ने इस पत्र के जवाब में दीक्षित साहब को एक विनम्र पत्र लिखा कि यह शिलालेख 25 रुपए देकर हमने खरीदा है आप चाहें तो 25 रुपए देकर ले सकते हैं। बाद में गुलजार ने 25 रुपए में वह शिलालेख बेच दिया। लेखक गुलजार के यहाँ गए तो उन्होंने वहाँ एक कुएँ की मुँडेर पर ब्राह्मी अक्षरों में लिखे एक लेख को पढ़ा। गुलजार के द्वारा यह लेख खोदकर उन्हें दे दिया गया। एक बार लेखक ओरियल कांफ्रेंस के अधिवेशन में मैसूर में गए। उस अधिवेशन के सभापति ठाकुर गोपाल शरण सिंह थे।

वहाँ लेखक अनेक लोगों से मिले। एक दिन संध्या के समय हाइकोर्ट के वकील श्री निवास जी के पास गए। उनके पास सिक्कों और कांस्य और पीतल की मूत्तियों का बहुत अच्छा संग्रह था। वे इनका व्यापार भी करते थे। लेखक ने उनसे चार पाँच-सौ रुपए की पीतल और कांस्य की मूर्तियाँ ली। उन्होंने अनेक सिक्के मुफ़त में दे दिए। लेखक ने बताया कि वह वस्तुओं का संग्रह करता है। कृष्णदास की तरह उनका आशिक नहीं है। कृष्णदास जी आशिक और संग्रहकर्ता दोनों हैं। संध्या के समय लेखक मैसूर जाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचा। चलती गाड़ी की खिड़की में से एक तसवीर बेचने वाले से तसवीर खरीद ली।

मैसूर पहुँचकर एक अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिसके सभापति मैसूर युवराज थे। उसकी समाप्ति पर वे लोग रामेश्वरम पहुँचे तो अनेक पंडे पीछे पड़ गए। एक पंडे से गट्ठर तालपत्र पर लिखित पुस्तकें लेने पर लेखक ने उस पंडे को अपना तथा राजा का पंडा बनाया। लेखक के संग्रह में लगभग दो हत्तार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हज्ज़ार मृण्मूतिंयाँ, कई हज्ञार चित्र, हज़ार हस्तलिखित पुस्तकें, हज्तारों सिक्के, मनके, मोहरें आदि संग्राहित हो गए थे। धीरे-धीरे संग्रहालय का स्थान संकुचित होने लगा। लेखक को संयुक्त प्रांत की सरकार से ‘संग्रहालय निर्माण कोष’ बनाने की स्वीकृति मिल गई।

धीरे-धीरे कोष में दस वर्ष के भीतर दो लाख रुपए एकत्रित हो गए। डॉ० पन्ना लाल आई० सी० एस० परामर्शदाता सरकार के सौजन्य से कंपनी बाग में एक भूखंड भी भवन हेतु मिल गया। लेखक ने पहले से जवाहरलाल नेहरू द्वारा शिलान्यास करवाने की बात सोच रखी थी। सौभाव्य से नेहरू जी ने स्वयं ही लेखक से संग्रहालय की इमारत बनने की बात पूछ ली। उन्होंने स्वयं ही शिलान्यास की बात स्वीकार कर ली। दो-तीन दिन बाद डॉ० ताराचंद स्वयं शिलान्यास का पूरा कार्यक्रम निश्चित कर चले गए।

निश्चित समय पर जवाहरलाल जी ने संग्रहालय का शिलान्यास कर दिया। यह एक अभूतपूर्व समारोह था। नेहरू जी ने बंबई के विख्यात इंजीनियर ‘मास्टर साठे और मूता’ के द्वारा भवन का नक्शा बनधा दिया और समय से भवन बनकर तैयार हो गया। इस बात का लेखक को असीम संतोष हुआ। अंत में लेखक उन लोगों से क्षमा-याचना करते हैं जो यह सोचते हैं कि उनको छला गया है। इसके साथ-साथ लेखक राय बहादुर कामना प्रसाद, कक्कड, हिप्थ हाइनेस, श्री महेंद्र सिंहजु, देव नागौद नरेश, दीवानलाल भार्गवेंद्र सिंह आदि लोगों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। लेखक इस कार्य की पूर्ति के पीछे स्वयं को निमित्तमात्र मानते हैं। लेखक ने घर के संरक्षण एवं परिकर्तन हेतु एक सुयोग्य अभिभावक डॉ० सतीश चंद्र काला को नियुक्त कर स्वयं संन्यास ले लिया।

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कठिन शब्दों के अर्थ :

  • किंवदंती – लोगों द्वारा कही गई बात
  • छूछे – बुद्धू (बनना, बनाना) खाली
  • अंतर्ध्यान – छिप जाना, गायब हो जाना
  • इत्तिला – सूचना, खबर
  • सुरखाब का पर – लाल रंग वाले सुंदर एवं कोमल पक्षी के पंख
  • प्रतिवाद – विरोध, खंडन
  • सन्निकट – पास, नज़दीक
  • बिसात – बिछाई जाने वाली चीज़, क्षमता
  • सवारी – वाहन, यान
  • प्रख्यात – बहुत प्रसिद्ध
  • उत्कीर्ण – खुदा हुआ
  • बंडेरी – छाजन के बीचोंबीच लगाया जाने वाला बल्ला जिस पर ठाट का बोझ रहता है
  • लड़कौंध – छोटी आयु का
  • प्रभृति – इत्यादि
  • साहाय्य – सहायता, मदद, मैत्री
  • न कुकूर भूँका, न पहरू जागा – ज़रा-सा भी खटका न होना झक मारना – बेकार बात करना
  • मुँह लगना – व्यर्थ समय बरबाद करना
  • खून का घूँट पीकर रह जाना – गुस्से को दबा जाना
  • सुरखाब का पर लगना – कुछ खास बात होना
  • मुँह में खून लगना – आदत पड़ जाना
  • खाक छानना – भटकना, खोज करना
  • छक्के छूटना – घबरा जाना
  • नून-मिर्चा लगाना – भड़काना
  • डेरा डालना – अड्डा जमाना
  • रुपए में तीन अठन्नी भुनाना – अधिकतम लाभ लेना
  • मृण्मूर्तियाँ – मिट्टी की मूर्तियाँ
  • भूखंड – ज्ञमीन का कुछ अंश या हिस्सा
  • संग्रहीत – इकट्ठी की हुई
  • अथक – बिना थके हुए
  • पानी-पानी होना – शमिदा होना
  • दिल फड़कना – जोश उत्पन्न करना
  • पी जाना – छिपाना, सहन करना
  • हरजाना – दंड, जुर्माना
  • निर्मित्त मात्र – नामभर के लिए

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कच्चा चिट्ठा सप्रसंग व्याख्या

1. चपरासी ने आकर इत्तिला की कि पसोवे के निकटस्थ एक गाँव से $15-20$ आदमी मुझसे मिलने आए हैं। चोर की दाढ़ी में तिनका। मेरा माथा ठनका। मैंने उन सबको कमरे में ही बुलवा लिया। कमरा भर गया। उसमें बुड्डे, जवान, स्व्रियाँ, बच्चे सभी थे। संभव है, धर्म पर आघात समझकर आसपास के गाँव के भी कुछ लोग साथ में चले आए हों।

प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित लेखक ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से अवतरित किया गया है। इसमें लेखक ने गाँववालों के साथ मिलन का चित्रण किया है।

व्याख्या : लेखक का कथन है कि उनके चपरासी ने आकर उन्हें सूचना दी कि पसोवे के नज़दीक के एक गाँव से 15-20 आदमी उनसे मिलने के लिए आए हैं। उन्हें तुरंत शक हुआ। उनका माथा ठनकने लगा। लेखक कहता है कि उन्होंने उन सबको अपने कमरे में बुलवा लिया। उनका कमरा पूरा भर गया। उसमें बुड्ढे, जवान, स्त्रियाँ, बच्चे सभी थे। संभव है कि अपने धर्म पर आघात समझकर आस-पास के गाँव के भी कुछ लोग उनके साथ में चले आए हों।

विशेष :

  1. लेखक ने गाँववासियों से मिलनावस्था का चित्रण किया है।
  2. भाषा सहज, सरल एवं बोधगम्य है।
  3. ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ तथा ‘माथा ठनकना’ मुहावरों का सटीक एवं सार्थक प्रयोग हुआ है।
  4. तत्सम, तद्भव एवं विदेशज शब्दावली का प्रयोग हुआ है।

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2. दूसरे की मुद्रा की झनझनाहट गरीब आदमी के द्रदय में उत्तेजना उत्पन्न करती है। उसी का आश्रय लिया। मैंने अपने जेब में पड़े हुए रुपयों को ठनठनाया। मैं ऐसी जगहों में नोट-वोट लेकर नहीं जाता। केवल ठनठनाता। उसकी बात ही और होती है। मैने कहा, ” ठीकी तो कहत हौ बुढ़िया। ई दुई रुपया लेओ। तुम्हार नुकसानौ पूर होए जाई! ई हियाँ पड़े अंडसै करिहैं। न डेहरी लायक न बँडेरी लायक।”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ब्रजमोहन व्यास विरचित ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से अवतरित किया गया है। इसमें लेखक ने बोधिसत्व की मूर्ति का विरोध करनेवाली एक बुजुर्ग महिला को आग्रह करने का चित्रण किया है।

व्याख्या : लेखक कहता है कि दूसरे के पैसे की झनझनाहट गरीब आदमी के हूदय में उत्तेजना उत्पन्न करती है। उन्होंने उसी बात का सहारा लिया। उन्होंने अपनी जेब में पड़े हुए रुपयों को बजाया। प्राय: ऐसी जगहों वह पैसे लेकर नहीं जाते। केवल ठनठनाते हैं। ऐसा प्रदर्शन करता है कि उनके पास बहुत धन है। उनउनाने की बात ही और होती है। लेखक कहते हैं कि उन्होंने उस बुजुर्ग महिला को कहा कि वह ठीक कहती है, उनके दो रुपया ले लेने से उनका नुकसान पूरा हो जाएगा। यह मूर्ति यहाँ पड़ी हुई क्या करेगी। यह कोई काम में नहीं आएगी।

विशेष :

  1. बुजुर्ग महिला को समझा-बुझाकर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी मूर्ति लेने का वर्णन हुआ है।
  2. भाषा सरल एवं सहज है।
  3. ध्वन्यात्मक शब्दावली का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  4. देशज भाषा के शब्दों का प्रचुर प्रयोग है।

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3. कौवा भी काला होता है, कोयल भी काली होती है। दोनों में भेद ही क्या है? परंतु वसंत ॠतु के आते ही पता चल जाता है कि कौन कौवा है और कौन कोयल।

प्रसंग : गद्य ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित लेखक ब्रजमोहन व्यास द्वारा लिखित ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से अवर्तरित है। इसमें लेखक ने कौवे और कोयल के माध्यम से आदमी की प्रकृति के अंतर का वर्णन किया है।

व्याख्या : लेखक कहता है कि कौवा और कोयल दोनों का रंग काला होता है। रंग के आधार पर दोनों एक समान हैं। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो दोनों मैं अंतर पता चल जाता है कि कौवा कौन है और कोयल कौन ? अथात् कौवे और कोयल के रंग में तो काले होते हैं लेकिन गुण में अलग-अलग हैं। वसंत ऋतु पर वाणी की कठोरता तथा मधुरता के आधार पर दोनों में फ़क नज़ आता है। ठीक ऐसे ही व्यक्ति की बातों से ही उसकी प्रवृत्ति का पता चलता है।

विशेष :

  1. लेखक ने कॉवे और कोयल की उक्ति की व्याख्या की है।
  2. भाषा सहज, सरल खड़ी बोली है।

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4. पाठक यह जानने के लिए उत्कुक होंगे कि आखिर इस मूर्त में कौन-सा सुरखाय का पर लगा था जो दो रुपए में मिली और दस हुज्ञार रुपए उसपर न्योछावर कर फेंके जा रहे हैं। संभव है कि वे सोचते हों कि मूर्ति में तो केवल सिर नहीं है, (परंतु लेखक की बातें उससे भी एक पग आगे बेसिर पैर की हैं। पर बात ऐसी नहीं है।) यह मूर्ति उन बोधिसत्व की मूर्तियों में है जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। ऐसा लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर उत्कीर्ण है।

प्रसंग : यह गद्यांश अंतरा भाग-2′ में संकलित है। यह ‘कच्चा चिट्ठा ‘ नामक पाठ से अवतरित किया गया है। इसके रचयिता ‘ब्रजमोहन व्यास हैं।’ इस गद्य में लेखक ने संसार की सर्वप्राचीन बोधिसत्व की मूर्ति का अनूठा वर्णन किया है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि पाठक यह बात जानने की इच्छा करेंगे कि आखिर इस बोधिसत्व की मूर्ति में कौन-सा सुरखाब का पर लगा है था जो दो रुपए में मिली और दस हज्ञार रुपए उसपर न्योछावर करके फेंके जा रहे हैं। संभव है कि वे लोग सोचते होंगे कि मूर्ति में तो केवल सिर नहीं है लेकिन लेखक की बातें उससे भी एक पग आगे बिना सिर-पैर की है परंतु ऐसी बात भी नहीं। लेखक बताता है कि यह मूर्ति उन बोधिसत्व की मूर्तियों में से है, जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी हैं। यह मूर्ति कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। ऐसा लेख उस मूर्ति के पैरों के स्थल पर खुदा हुआ है।

विशेष :

  1. लेखक ने विश्व की प्राचीन ‘बोधिसत्व’ की मूर्ति का अनोखा चित्रण किया है।
  2. भाषा सरल, सहज और भावपूर्ण है।
  3. ऐतिह्हासिक घटना का चित्रण प्रस्तुत है।
  4. तत्सम शब्दावली की प्रचुरता है।

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5. मैं संग्रह करता हँ, आशिक नहीं। यही अंतर मुझमें और भाई कृष्णदास में है। वे संग्रहकर्ता भी हैं और आशिक भी। संग्रह कर लेने और उसे हरम (प्रयाग संग्रहालय) में डाल देने के बाद मेरा सुख समाप्त हो जाता है। भाई़ कृष्णदास संग्रह करने के बाद भी चींजों को बार-बार हर पहलू से देखकर उसके सुख सागर में डूबते-उतराते रहते हैं। यदि संग्रहकर्ता आशिक भी हुआ तो भगवान ही उसकी रक्षा करें।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है। ये पंक्तियाँ ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से ली गई है। इनके लेखक ‘ब्रजमोहन व्यास’ हैं। इसमें लेखक ने संग्रहकर्ता और आशिक के अंतर को बताया है।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि वे वस्तुओं का संग्रह करते हैं। उनके आशिक नहीं है। यही अंतर उनमें और भाई कृष्णदास में है। वे संग्रहकर्ता है और भाई कृष्पादास संग्रहकर्ता और आशिक दोनों हैं। लेखक कहता है कि वस्तुओं को इकह्ठा कर लेने पर तथा उन्हें हरम (प्रयाग संग्रहालय) में रख देने के बाद उसका सुख समाप्त हो जाता है। लेकिन भाई कृष्णदास संग्रह करने के बाद भी वस्तुओं को बार-बार प्रत्येक पहलू से देखकर उसके सुख रूपी सागर में डूबते-उतरते रहते हैं। लेखक के कहने का अभिप्राय है वे केवल वस्तुओं का संग्रह करते हैं। संग्रह के बाद उनकी वस्तुओं के प्रति ज़्यादा रुचि नहीं रहती लेकिन भाई कृष्णदास। संग्रहकर्ती के साथ आशिक भी हैं। इसलिए वे प्रत्येक वस्तु से गहन लगाव रखते हैं। लेखक कहता है कि यदि संग्रहकर्ता आशिक भी हुआ तो भगवान ही उसकी रक्षा करे।

विशेष :

  1. लेखक ने एक संग्रहकर्ता तथा आशिक के अंतर का चित्रण किया है।
  2. भाषा सरल और सरस है।
  3. रोचक शैली का प्रयोग हुआ है।
  4. लेखक का भक्तिभाव भी प्रकट हुआ है।
  5. तत्सम शब्दावली का समायोजन है।

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6. मैं तो केवल निमित्त मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था। मैंने पुत्र को जन्म दिया, उसका लालन-पालन किया बड़ा हो जाने पर उसके रहने के लिए विशाल भवन बनका दिया, उसमें उसका गृह-प्रवेश करा दिया, उसके संरक्षण एवं परिवर्धन के लिए एक सुयोग्य अभिभावक डॉं० सतीश चंद्र काला को नियुक्त कर दिया और फिर मैंने संन्यास ले लिया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यावतरण पं० ब्रजमोहन व्यास द्वारा रचित है। इसमें लेखक ने संग्रहालय के निर्माण, रख-रखाव के प्रति अपनी ज्विम्मेदारी का चित्रांकन किया है।

व्याख्या : लेखक का कथन है कि संग्रहालय के निर्माण में केवल उसी का ही श्रेय नहीं है। यह तो सब निश्चित रूप से होना ही था। वे तो केवल उसका एक माध्यम थे। उसने पुत्र को जन्म देकर केवल उसका पालन-पोषण किया। बड़ा होने पर उसके रहन-सहन हेतु एक विशाल भवन बनवाया और उसमें उसका गृहप्रवेश करा दिया। इसके संरक्षण एवं देखरेख हेतु एक सुयोग्य अभिभावक डॉ० सतीश चंद्र काला को नियुक्त कर तत्पश्चात मँने संन्यास ले लिया।

विशेष :

  1. भाषा सरल एवं सहज है।
  2. चित्रात्मक शैली है।
  3. तत्सम शब्दावली की अधिकता है।