In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Summary, Ghananand Ke Kavitt / Savaiya Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
घनानंद के कवित्त / सवैया Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 11 Summary
घनानंद के कवित्त / सवैया – घनानंद – कवि परिचय
जीवन-परिचय – घनानंद रीतिकालीन स्वच्छंद अथवा रीतिमुक्त काव्य-धारा के श्रेष्ठ कवि हैं, जिन्होंने अपने युग की काव्य-परंपरा का पूर्ण निर्वाह नहीं किया था। इनका जीवन-वृत्त पूरी तरह से प्रकाश में नहीं आ पाया है। इसकी जानकारी के लिए अंत:साक्ष्यों और ऐतिहासिक प्रमाणों के अतिरिक्त जन श्रुतियों का सहारा लेना पड़ता है। इनका जन्म सन 1673 ई० में हुआ था। ये जाति के कायस्थ थे तथा मुगल सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला के मीर मुंशी थे। कहा जाता है कि ये दरबार की एक वेश्या सुजान से प्रेम करते थे। इन्होंने उसी के नाम से अपने काव्य की रचना की थी। दरबारी इनके प्रेम और दरबार में व्याप्त प्रभाव के कारण इनसे ईष्ष्या करते थे।
उन्होंने इन्हें दरबार से निकलवाने की योजना बनाई। उन्होंने राजा से घनानंद का गाना दरबार में सुनने का आग्रह किया। राजा के कहने पर भी इन्होंने गाना नहीं सुनाया पर सुजान के कहने पर इतनी तन्मयता से गाया कि सारा राज-परिवार मंत्र मुग्ध हो गया। राजा ने इसे अपना अपमान समझकर इन्हें अपने दरबार से नहीं अपितु दिल्ली से भी निकल जाने का आदेश दे दिया था। बाद में ये सांसारिक मोह त्याग कर वृंदावन चले गए थे और निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित हो गए। इनकी मृत्यु के विषय में भी मतभेद है। इनकी मृत्यु का कारण नादिरशाही आक्रमण माना जाता है। इस आधार पर इनकी मृत्यु सन 1760 ई० में मानी गई है। ये भक्त नगरीदास के पक्के मित्र थे।
रचनाएँ – घनानंद द्वारा रचित पुस्तकें ‘सुजान हित, कृपाकंद, वियोग बेलि, इश्क लता, यमुना यश, प्रीति प्रवास, प्रेम पत्रिका, प्रेम सरोवर, ब्रज विलास, सरस वसंत, अनुभव चंद्रिका, रंग बधाई, प्रेम पद्धति, वृषाभानपुर, सुषमा वर्णन, गोकुल गीत, नाम माधुरी, गिरि पूजन, विचार सार, दान घटा, भावना प्रकाश, कृष्ण कौमुदी, धाम चमत्कार, प्रिया प्रसाद, वृंदावन मुद्रा, ब्रज स्वरूप, गोकुल चरित्र, प्रेम पहेली, रसना यश, गोकुल विनोद, ब्रज प्रसाद, मुरली का मोद, मनोरथ, मंजीर, ब्रज व्यवहार, गिरि गाथा, छंदाष्टक, त्रिभंगी, परम हंसावली और पदावली हैं। इन सभी रचनाओं को तीन संग्रहों घनानंद कवित्त, संग्रह और घनानंद ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित किया गया है।
काव्य की विशेषताएँ – घनानंद के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
i. प्रेमानुभूति – घनानंद के काव्य में प्रेमानुभूति का प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छे ढंग से हुआ है। इसमें वर्णित संयोग सुख मादक और उल्लास से परिपूर्ण है जो प्रत्येक सहदय को आनंद-विभोर कर देता है। कवि के प्रेम का मूल आधार सुजान नामक वेश्या है। लॉकिक प्रेम में असफलता प्राप्त करने के बाद इन्होंने अपने भाव भगवान कृष्ण के प्रति अर्पित कर दिए थे। उनके प्रेम में पूर्ण निश्छलता है। चाहे इनकी प्रेमिका ने इन्हें धोखा दिया पर इन्होंने मृत्यु-पयंत मन-ही-मन उससे प्रेम का नाता बनाए रखा था क्योंकि ये प्रेम में सयानापन पसंद नहीं करते थे। ये स्वाभाविक प्रेम के पुजारी थे।
अति सूधो सनेह कौ मारग है जहां नेकु सयानप बाकै नहीं।
तहा सांचे चलें आपुनपौं झझकै कपटी जे निसांक नहीं॥
ii. भक्ति-भावना – प्रेम की दिव्य अनुभूति का नाम ही भक्ति है। घनानंद लैकिक प्रेम में धोखा खाकर अलॉकिक प्रेम की ओर मुड़ गए थे। इसकी भक्ति-भावना में सात्विकता के भाव हैं। सुजान से धोखा खाने के बाद ये वृंदावन आकर बस गए थे। इनके हृदय में ‘सुजान’ का नाम तो अवश्य रहा पर वही नाम श्रीकृष्ण के रूप में भक्ति का आलंबन बन गया था। ये सभी से नाता तोड़कर एकमात्र कृष्ण चंद्र के चकोर बन गए थे तथा लौकिक नायिका की प्रीति को छोड़कर दिव्य आत्मा की प्रेम डोरी में बँध गए थे।
iii. साँदर्य-चित्रण – घनानंद ने रूप-साँदर्य के कितने ही अत्यंत मनोहारी चित्र अंकित किए हैं, जिनमें अपनी प्राण प्रिया ‘अलवेली सुजान’ की विधि रूप छवियाँ अत्यंत माधुर्य के साथ विद्यमान हैं। घनानंद के इन रूप-चित्रों में आँख, नाक, कान, मुख, अंग-प्रत्यंग आदि को अलग-अलग दिखाने की उतनी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, जितनी कि उन्होंने संपूर्ण अंग की रमणीयता को दिखाने का प्रयास किया है। घनानंद के इन साँदर्य-चित्रों में सुजान का रूप, लावण्य, यौवन, छवि, कांति, अंग दीप्ति आदि मानो साकार हो उठी हैं और ये सभी चित्र साँदर्य से परिपूर्ण हैं, जिनमें संश्लिष्टता है, मादकता है, अतिशयता है और सर्वाधिक भाव-प्रेषणीयता है।
iv. विरहानुभूति – प्रेम के अंतर्गत वियोग को संयोग की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। घनानंद के शृंगार वर्णन में वियोग की प्रवृत्ति को प्रधानता दी गई है। अपनी निष्ठुर प्रेमिका सुजान से धोखा खाकर उसका हददय पीड़ा से भर उठा था पर सुंदर प्रेमिका का स्वरूप उसे बार-बार आकृष्ट करता है। वह उसके रूप का दीवाना है-
रावरे रूप को रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्यौं-ज्यां निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखि अयानि कहूँ नहि आन हारियै ॥
v. प्रकृति-चित्रण – घनानंद ने प्रकृति के अत्यंत सुंदर चित्र अंकित किए हैं। वे सच्चे प्रकृति प्रेमी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था, क्योंकि वृंदावन की प्रकृति सुषमा निहारने एवं अन्य ब्रज के वनों को देखने का अवसर उन्हें अनेक बार प्राप्त हुआ था। प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा कवि ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण अधिक सरसता एवं मार्मिकता के साथ किया है, क्योंकि इनका काव्य विरह प्रधान है –
लहकि लहकि आवै ज्यौं ज्यौं पुरवाई पौन,
दहकि दहकि त्यौं त्यौं तन तांबरे तचै।
घनानंद ने अलंकारों के लिए तो प्रकृति का अत्यधिक प्रयोग किया है। उनके इन प्रयोगों में चमत्कार के साथ-साथ सरसता भी है और कला-कौशल के साथ-साथ भाव भी अत्यधिक मात्रा में दिखाई देते हैं। घनानंद ने प्रकृति का दूत के रूप में भी सुंदर प्रयोग किया है। उन्होंने पवन को दूत बनाकर अपने प्राणप्रिय के पास भेजने की कामना व्यक्त की है, जो निर्मोही प्रियतम के समीप जाकर उनके चरणों की धूल लाए और जिसे अपनी आँखों में लगाकर विरहिणी आत्मा अपनी विरह-व्यथा कम कर सके –
एरे बीन पौन ! तेरौ सबै और गौन, बारी
तो सो और कौन, मन बरकौं ही बानि दै।
vi. रस-निरूपण – घनानंद मुख्य रूप से प्रेम-साँदर्य, शृंगार और भक्ति के कवि हैं। इनका वियोग शृंगार तो वास्तव में ही अनूठा है। इसका मार्मिकता और सजीवता से चित्रण किया गया है। इन्होंने संयोग शृंगार के सरस चित्र अंकित किए हैं पर इनमें वैसी वक्रता नहीं है जैसी वियोग शृंगार में विद्यमान है। इन्होंने भक्ति रस का पूर्ण परिपाक किया है। श्रीकृष्ण की भक्ति का सुंदर अंकन करते हुए इन्होंने भक्ति के उत्कृष्ट रूप को प्रकट किया है। इनके काव्य में भृंगार और भक्ति ही रसों के रूप में प्रमुख हैं।
vii. शिल्प पक्ष – घनानंद की भाषा ब्रज है जो पूर्ण रूप से स्वच्छता, एकरूपता और सुषड़ता ग्रहण किए हुए है। इनकी भाषा में भावों के अनुरूप गति करने की क्षमता है। इनका उक्ति-चमत्कार दर्शनीय है, जैसे-
प्यास भरी बरसैं तरसैं मुख देखन को औंखियाँ दुःखाई।
इनके काव्य में अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की अधिकता है। इससे भावों को गहन बनाने तथा सरसता उत्पन्न करने में इन्हें सहायता मिलती है। व्यंजना शब्दों, अलंकारों का इन्होंने स्वाभाविक प्रयोग किया है। इनके शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही मोहृ हैं। माधुर्य गुण की इनमें प्रधानता है। इन्होंने सवैया, कवित्त, चौपाई, पद, त्रिलोकी, ताटंक, त्रिभंगी, शोभन आदि छंदों का सुंदर प्रयोग किया है।
घनानंद के काव्य में लाक्षणिक मूर्तिमत्ता विद्यमान है। इन्होंने इससे ऐसे सजीव शब्द-चित्रों का निर्माण किया जिनमें गत्यात्मक संँदर्य के साथ-साथ संस्लिष्टता है। आचार्य शुक्ल ने इस विषय में लिखा है, “लक्षणा का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिंदी कवियों ने उसके भीतर कम ही पैर बढ़ाया। एक घनानंद ही ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई।’ इन्होंने भाव और रस के अनुकूल अपनी शब्दावली का प्रयोग किया है। इसमें नाद-साँदर्य विद्यमान है –
घूँटे घटा चहुँधा धिरि ज्यौ गहि काठ़ै कर जो कलापिनी कूकें।
सारी समीर सरीर दह, चहके चपला चख लै करि ऊकैं।
वस्तुत: घनानंद भाव और कला-पक्ष की दृष्टि से अत्यंत उच्चकोटि के कवि हैं। उनके जैसा सरल और स्तिग्ध भाषा प्रवाह और कहीं दिखाई नहीं देता।
Ghananand Ke Kavitt / Savaiya Class 12 Hindi Summary
पाठ्यक्रम में घनानंद द्वारा रचित दो कवित्त तथा दो सवैये दिए गए है। प्रथम कवित्त कवि ने अपनी प्रेमिका सुजान को संबोधित करके लिखा है कि वह उससे मिलने के लिए व्याकुल है। वह चाहता है कि उसकी प्रेमिका एक बार अवश्य ही उसे दर्शन दे क्योंकि उसके प्राण इसी आस में अटके हुए हैं। दूसरे कवित्त में कवि अपनी प्रेमिका को कहता है कि वह उससे मिलने में आनाकानी न करे। वह निरंतर उसे पुकारता रहेगा और उसे आशा है कि कभी तो उसकी पुकार उस तक पहुँचेगी।
प्रथम सवैये में कवि ने संयोग और वियोग की स्थितियों का तुलनात्मक रूप प्रस्तुत किया है। संयोग के समय में सुखद पल वियोग के क्षणों में दुखदायी बन जाते हैं। द्वितीय सवैये में कवि को यह दुख है कि उसने अपने बदय के समस्त प्रेमभाव से युक्त जो पत्र अपनी प्रेमिका को लिखा था वह उसने पढ़ा ही नहीं और टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया।
घनानंद के कवित्त / सवैया सप्रसंग व्याख्या
कवित्त
1. बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को ॥
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास हूँ कै,
अब ना घिरत घन आनँद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को ॥
शब्दार्थ : अवधि – सीमा। अरबरनि – भयभीत होना, विचलित होना। छबीले – सुंदर, शोभायुक्त। मनभावन – मन को अच्छा लगने वाला। सनमान – सम्मान। पत्यानि – विश्वास। निदान – उपचार। पयान – प्रस्थान।
प्रसंग : प्रस्तुत कवित्त घनानंद द्वारा रचित है। इस कवित्त में कवि ने अपनी प्रेमिका सुजान के दर्शनों की कामना व्यक्त की है। उसे लगता है कि उसके प्राण अब तक इसी आस में अटके हुए हैं कि उसे अपनी प्रेमिका के दर्शन हो जाएँगे।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि अपनी मरणावस्था की दुहाई देते हुए अपनी प्रेयसी सुजान को संबोधित करते हुए कहता है कि मैं बहुत दिनों से प्रेमिका के दर्शन के लिए प्रतीक्षारत हूँ। परंतु अब यह दिनों की सीमा समाप्त होनेवाली है और मेरे प्राण विचलित होकर निकल जाने के लिए आतुर हो उठे हैं। मेरी दयनीय दशा का संदेश मेरी सुंदर मनभावन प्रेमिका तक पहुँचा दिया जाता है और वह भी उन संदेशों को सम्मानपूर्वक लेकर रख लेती है। परंतु दर्शन देने नहीं आती है। उसकी छुठी बातों पर विश्वास करके कवि घनानंद उदास हो गया है। उसे अपनी इस प्रेम की बीमारी का कोई उपचार दिखाई नहीं देता। इसलिए उसे ऐसा लगता है कि अब तो उसके प्राण निकलने ही वाले हैं। वह चाहता है कि उसके इस प्रस्थान के संदेश को कोई उसकी प्रेमिका सुजान तक पहुँचा दे।
विशेष :
- कवि अपनी प्रेमिका के वियोग में मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया है।
- ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया गया है।
- पुनरूक्तिप्रकाश, श्लेष, अनुप्रास अलंकारों का सहज रूप से प्रयोग किया गया है।
- कवित्त छंद में गेयता का गुण विद्यमान है।
- वियोग वर्णन में मार्मिकता है। करुण रस है।
- विरह की मरणासन्न अवस्था का सजीव चित्रण किया गया है।
2. आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलाँ?
कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै ?
मौन हू सौं देखिहाँ कितेक पन पालिहौ जू,
कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घनआनँद यों मोहिं तुम्हें पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौन धौ मलोलिधै।
रुई दिए रहौगे कहाँ लौ बहरायबे की ?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै।
शब्दार्थ : आनाकानी – सुनी-अनसुनी करना, टाल-मटोल करना। आरसी – दर्पण, शीशा। निहारिबौ – देखना। कौलौं – कब तक। चकित – हैरान। दीठि – नज्रर, नेत्र, देखना। कितेक – कितने। पन – प्रण, प्रतिज्ञा। पालिहौ – निभाओंगे, पालन करोगे। मूकता – खामोशी। पैज – बहस। कूकभरी – पुकार से भरी। बहरायबे – बहरा बनना।
प्रसंग : प्रस्तुत कवित्त घनानंद द्वारा रचित है। कवित्त में कवि ने अपनी प्रमिका से मिलने का अनुरोध किया है। वह आशा करता है कि कभी तो उसकी पुकार उस तक पहुँचेगी और वह आनाकानी छोड़कर उससे मिलेगी।
ब्याख्या : इन पंक्तियों में कवि अपनी प्रियतमा सुझान से बेरुखी त्याग कर दर्शन देने का अनुरोध करता है। कवि कहता है कि तुम कब तक मेरी पुकार को अनसुना करके स्वय को अपनी अँगूठी में लगे हुए दर्पण में देखती रहोगी ? क्या मेरी इस परेशानी और हैरानी से भरी हुई दशा को देखकर भी तुम्हारी दृष्टि विचलित नहीं होगी ? तुम खामोश रहकर कितनी प्रतिज्ञाओं का पालन करोगी। मेरी खामोशी से भरी हुई पुकार सुनकर तुम अवश्य ही बोलोगी। घनानंद् कवि कहता है कि मेरी प्रिय सुजान मेरी तुमसे यह होड़ हो गई है कि मैं भी जानना चाहता हूँ कि तुम्हारी यह क्तिद कब तक चलेगी ? अपने आपको बहरा बनाकर रखने के लिए तुम कब तक अपने कानों में रूई डाले रहोगी ? कभी न कभी तो मेरी पुकार तुम्हारे कानों को खोल ही देगी।
विशेष :
- इन पंक्तियों में कवि अपनी प्रेमिका को उसकी व्यथा-कथा सुनने का अनुरोध कर रहा है।
- ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का सहज भाव से प्रयोग किया गया है।
- अनुप्रास तथा प्रश्न अलंकार शोभनीय है।
- शृंगार के विरह पक्ष का मार्मिक वर्णन किया गया है।
- नायक के अनन्य प्रेम का सजीव वर्णन किया गया है।
सवैया
1. तब तौ छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित-पोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महा दुख दोष भरे।
घनआनाँद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत है, अब आनि कै बीच पहार परे।।
शब्दार्थ : छबि पीवत – साँदर्य पीते हुए, रूप निहारते हुए। सोचन – शोक, चिंता। लोचन – औँखें। हित-पोष – प्रेम के पोषण से। तोष संतुष्ट। बिललात – व्याकुल होना। दोष – क्लेश। सुख-साज-समाज – सुखों के साज-समूह । टरे-नष्ट हो गए। आनि कै – आकर। हार – मोतियों की माला। पहार – पहाड़।
प्रसंग : प्रस्तुत सवैया घनानंद द्वारा रचित है। इस सवैये में कवि ने संयोग और वियोग के समय की प्रेमी की अनुभूतियों को एक साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। संयोग की सुखद स्मृतियाँ वियोग के क्षणों में दुखद बन जाती हैं।
क्याख्या : कवि प्रेमी युगल की संयोग और वियोग की स्थितियों का वर्णन करते हुए लिखता है कि संयोगावस्था में हम प्रिय के साँदर्य रूपी सुधा का पान अपने नेत्रों से करते हुए जी रहे थे परंतु अब वियोग की दशा में प्रिय के विरह में ये नेत्र विरह के शोक में जल रहे हैं। संयोग के क्षणों में प्रिय के प्रेम से पुष्ट होकर प्राण पल रहे थे। परंतु अब वियोग की दशा में बहुत अधिक दुख और क्लेशों से व्याकुल हो रहे हैं। घनानंद कवि कहते हैं कि प्रिय सुजान के बिना सुख के समस्त साधन नष्ट हो गए है। अपने भी अजनबियों जैसा व्यवहार करने लगे हैं। संयोग के समय मिलन के क्षणों में बीच में आने वाला हार भी पहाड़ जैसा लगता था और इन वियोग के दिनों में दोनों के बीच वियोग का पहाड़ आकर खड़ा हो गया है।
विशेष :
- कवि के अनुसार संयोग की घड़ियों में सुखद लगनेवाली स्थितियाँ वियोग के क्षणों में दुखदायी हो जाती हैं।
- अनुप्रास, यमक, विषम और पद्वमैत्री अलंकार शोभनीय हैं।
- ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली और अनेक मुहावरों का सुंदर प्रयोग किया गया है।
- सबैया छंद में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
- श्रृंगार रस के अंतर्गत विप्रलंभ श्रृंगार का मार्मिक चित्रण किया गया है।
- कवि ने संबोग और वियोग पक्षों का मनोवैज्ञानिक निरूपण किया है।
2. पूरन प्रेम को मंत्र महापन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ।
ताही के चारु चरित्र बिचित्रनि यों पचिकै रचि राखि बिसेख्यौ।
ऐसो हियौ हितपत्र पवित्र जो आन-कथा न कहूँ अवरेख्यौ।
सो घनआाँद जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।
शब्दार्थ : पन – प्रतिज्ञा। जा मधि – जिस हृदय रूपी पत्र में। सोधि – शुद्ध करके। सुधारि – भली-भाँति। लेख्यौ – लिखा है। पचिकै – हैरान होकर। रचि राखित – बनाया गया है। बिसेख्यौ – विशेष रूप से। हियौ हितपत्र – हदय रूपी प्रेम-पत्र। आन-कथा – अन्य, दूसरी कथा। अवरेख्यौ – अंकित की। अजान लौ – अनजान की तरह। टूक कियौ – टुकड़े करना, फाड़ देना। बाँचि – पढ़ना।
प्रसंग : प्रस्तुत सवैगा घनानंद द्ववारा रचित है। जब कवि अपनी प्रेमिका को अपने हुदय के समस्त प्रेम भाव निचोड़कर प्रेम-पत्र लिखकर भेजता है, परंतु वह उसे बिना पढ़े ही फाड़ देती है। जिससे कवि का हृदय व्यथित हो जाता है। इस सवैये में कवि ने अपनी उस वेदना को व्यक्त किया है।
व्याख्या : कवि प्रेमिका द्वारा अपना प्रेम-पत्र बिना पढ़े फाड़ देने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहता है कि जिस हुदयरूपी प्रेम-पत्र में पूर्ण प्रेम के मंत्र को महान प्रतिज्ञा के साथ मैंने भली-भांति शुद्ध करके लिखा था, जिस हृदयरूपी प्रेम-पत्र को उसी प्रिय के सुंदर तथा अद्भुत चरित्रों से विशेष रूप से बनाकर रखा था, ऐसा हुदयरूपी पवित्र प्रेम-पत्र जिसमें किसी दूसरे के संबंध में मँने कहीं कुछ भी नहीं लिखा था। घनानंद कहते हैं कि ऐसे उस हृदयरूपी प्रेम-पत्र को आनंद के घन प्रेम प्यारे सुजान ने अज्ञानी व्यक्ति की तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया, किंतु उसे पढ़ा नहीं।
विशेष :
i. कवि ने अत्यंत बहुत परिश्रम से प्रेमपूर्वक अपनी प्रेमकथा अपनी प्रेमिका को लिखकर भेजी थी। उस पत्र में उसने अपनी प्रियतमा का गुणगान भी किया था। उसकी प्रेमिका इतनी निष्ठुर निकली कि उसने वह पत्र पढ़ा ही नहीं और फाड़कर फेंक दिया। कवि उसी दुख से संतृप्त है।
ii. रूपक, श्लेप, उपमा तथा अनुप्रास अलंकार की छाप दर्शनीय है।
iii. ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का भावपूर्ण प्रयोग किया गया है।
iv. सवैया छंद गेयता से परिपूर्ण है।
v. नायक के एकनिष्ठ प्रेम की मार्मिक अभिव्यक्ति की गई है।
vi. शृंगार के वियोग पक्ष का सजीव चित्रण किया गया है।
vii. माधुर्य गुण विद्यमान है।