Refer to the 12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers Chapter 11 घनानंद के कवित्त / सवैया to develop Hindi language and comprehension skills among the students.
NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 11 घनानंद के कवित्त / सवैया
Class 12 Hindi Chapter 11 Question Answer Antra घनानंद के कवित्त / सवैया
प्रश्न 1.
कवि ने ‘चाहत चलन ये सँदेसो ले सुजान को’ क्यों कहा है ?
उत्तर :
कवि की प्रेमिका का नाम सुजान है। वह उससे बहुत प्रेम करता है। वह उससे मिलना चाहता है, परंतु वह मिल नहीं रही है। उसके द्वारा भेजे गए संदेश भी वह ले तो लेती है परंतु कोई उत्तर नहीं देती। कवि मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया है। उसे लगता है कि कभी भी उसके प्राण निकल सकते हैं। वह अपनी प्रेमिका सुजान तक यह संदेसा पहुँचाना चाहता है कि उसके दर्शनों की अभिलाषा में ही उसके प्राण अब तक अटके हुए हैं इसलिए वह आकर उसे दर्शन दे।
प्रश्न 2.
कवि मौन होकर प्रेमिका के कौन-से प्रण पालन को देखना चाहता है ?
उत्तर :
कवि अपनी प्रेमिका के न मिलने से बहुत व्याकुल है। वह उसके वचनों को सुनकर भी अनसुना कर देती है। वह अब अपने हृदय से उसे पुकारता है, मुख से मौन रहता है। वह अब यह देखना चाहता है कि उसकी खामोशी तथा हृदय की पुकार का उसकी प्रेमिका पर क्या प्रभाव होता है। वह कब तक उससे न बोलने की अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहती है ? उसे विश्वास है कि उसके हृदय की पुकार उसकी प्रेमिका को बोलने पर विवश कर देगी।
प्रश्न 3.
कवि ने किस प्रकार की पुकार से ‘कान खोलिहै’ की बात कही है ?
अथवा
‘रुई दिए रहौगे कहाँ लौ बहरायबे की ?
कब हूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै।’ निहित व्यंजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कवि अपनी प्रेमिका को पुकार-पुकारकर हार गया है। वह उसे कोई उत्तर नहीं देती तथा सुनी-अनसुनी कर देती है। अब कवि ने यह निश्चय किया है कि वह मूक रहेगा तथा उसका हृदय प्रतिपल उसे पुकारता रहेगा। उसे विश्वास है कि उसके हृदय की सच्ची पुकार से अवश्य ही एक दिन उसकी प्रेमिका के कान खुल जाएँगे और वह उसके प्रेम की पुकार को सुन लेगी।
प्रश्न 4.
प्रथम सवैये के आधार पर बताइए कि प्राण पहले कैसे पल रहे थे और अब क्यों दुखी हैं?
उत्तर :
पहले संयोग की अवस्था थी। प्रेमी-प्रेमिका साथ-साथ थे। दोनों एक-दूसरे के सौंदर्य का पान करते हुए मग्न रहते थे। वे प्रेम के पोषण से संतुष्ट रहते थे। सर्वत्र सुख के साधन बिखरे हुए थे। उनकी प्रेम-क्रीड़ा में कोई भी व्यवधान नहीं था। अब प्रेमी-प्रेमिका बिछुड़ गए हैं। इन वियोग के क्षणों में सब कुछ दुखदायी प्रतीत होता है। नेत्र शोकाग्नि में जल रहे हैं। सुख के सभी साधन नष्ट हो गए हैं। दोनों के मध्य वियोग रूपी पहाड़ आकर खड़े हो गए हैं। संयोग की घड़ियाँ सुखद थीं तथा वियोग के पल दुखद बन गए हैं।
प्रश्न 5.
घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
भाषा पर घनानंद का अद्भुत अधिकार था। इनकी काव्य-भाषा के संबंध में कहा गया है-
‘नेही यहा ब्रजभाषा प्रवीण औ सुंदर तानि के भेद को जानै,
जोग वियोग की रीति मैं कोविद भावना-भेद-स्वरूप को ठानै।
चाह के रंग मैं भी ज्यौ हियो, बिछुुें-मिलें प्रीतम सांति न मानै,
भाषा-प्रबीन सुछंद सदा रहै, सो घन जी के कवित्त बखानै।’
इससे स्पष्ट है कि इनकी रचनाओं में ब्रजभाषा की प्रधानता है, जिसमें सर्वत्र कोमलकांत पदावली तथा भावों के अनुरूप शब्दावली प्राप्त होती है। इन्होंने तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी आदि सभी प्रकार के शब्दों का अवसरानुकूल प्रयोग किया है। जैसेलोचन, पोष, दोष, छबीले, पयान, आरसी। इन्होंने यथास्थान सूक्तियों, मुहावरों और लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है। इनकी काव्य-भाषा में लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मकता, चित्रात्मकता के भी दर्शन होते हैं। इनके काव्य में विरह का वर्णन अधिक है इसलिए इनकी शब्दावली माधुर्य-गुण से युक्त हो गई है। शब्दालंकारों के चमत्कार इनके काव्य में सर्वत्र दिखाई देते हैं। इनकी रचनाएँ कवित्त, सवैया, धनाक्षरी आदि छंदों में आबद्ध होने के कारण गेय हैं।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों की पहचान कीजिए –
(क) कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दैं दैं सनमान को।
(ख) कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
(ग) अब न घिरत घन आनँद निदान को।
उत्तर
(क) पुनरुक्तिप्रकाश और वक्रोक्ति
(ख) विरोधाभास और अनुप्रास
(ग) अनुप्रास और श्लेष।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए –
(क) बहुत दिनान को अवधि आसपास परे/खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।
(ख) मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू/कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
(ग) तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।
(घ) सो घनआनँद जान अजान लौं दूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।
(ङ) तब हार पहार से लागत हे, अब आनि कै बीच पहार परे।
उत्तर :
(क) अब तो मृत्यु का समय निकट आ गया है यह जानकर मन बहुत व्याकुल और विचलित हो उठता है।
(ख) अब चुप रहकर यह देखना है कि मेरे हृदय की पुकार सुनकर भी वह कब तक न बोलने की अपनी प्रतिज्ञा का पालन करती है क्योंकि मेरे प्रेमभरे हृदय की मूक पुकार तो उसे अवश्य ही स्वत: बोलने पर विवश कर देगी।
(ग) संयोग के क्षणों में नेत्रों से प्रेमिका के सौंदर्य का पान करते हुए जीते थे तथा आनंदमग्न रहते थे परंतु अब वियोग के क्षणों में विरह से संतृप्त नेत्र वियोगाग्नि में जले जा रहे हैं। संयोग के क्षणों की सुखद अनुभूतियाँ वियोग के क्षणों में दुखद बन गई हैं।
(घ) प्रेमी ने प्रेमिका को अपने हृदय की समस्त प्रेम-भावनाओं से भरकर पत्र लिखा था जो उसने पढ़ने के स्थान पर फाड़कर फेंक दिया।
(ङ) संयोग के क्षणों में प्रेम-क्रीड़ा करते हुए प्रेमिका के गले का जो हार पहाड़ जैसा लगता था अब इन वियोग के क्षणों में उन दोनों के बीच वियोग पहाड़ बनकर खड़ा हो गया है।
प्रश्न 8.
संदर्भ संहित व्याख्या कीजिए –
(क) झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास हूवै, कै चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।
(ख) जान घनआनँद यों मोहिं तुम्हे पैज परी
(ग) तब तौ छबि पीवत जीवन हे विलात महा दुख दोष भेरे।
(घ) ऐसो हियौ हित पत्र पवित्र दूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।
उत्तर :
उत्तर के लिए इस पाठ का सप्रसंग व्याख्या भाग देखिए।
योग्यता-विस्तार –
प्रश्न 1.
निम्नलिखित कवियों के तीन-तीन कवित्त और सवैया एकत्रित कर याद कीजिएतुलसीदास, रसखान, पद्माकर, सेनापति
उत्तर :
(क) तुलसीदास :
1. खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर, को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाइ, का करी।’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम ! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥
2. भलि भारतभूमि, भले कुल जन्मु, समाजु सरीक भलो लहि कै।
करषा तजि कै परुषा बरषा हिम, मारुत, धाम सदा सहि कै॥
जो भजै भगवानु सयान सोई, ‘तुलसी’ हठ चातकु ज्यों गहि कै।
नतु और सबै विषबीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
3. को भरिहै हरि के रितएं, रितवै पुनि को, हरि जो भरिहै।
उथपै तेहि को, जोहि राम थपै, थपिहै तेहि को हरि जौं टरिहै ?
तुलसी यहु जानि हिएँ अपने सपनें नहिं कालहु तें डरिहै।
कुमयाँ कछु हानि न औरन की, जोपै जानकी-नाथु मया करिहै ॥
(ख) रसखान :
1. मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तौं वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर-धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन॥
2. बैन वही उनको गुन गाइ और कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरै अरू पाई वही जु वही अनुजानी॥
जान वही उन आन के संग और मान वही जु करै मनमानी।
त्यों रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो है रसखानी॥
3. मोरपंखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहें सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥
(ग) पद्माकर :
1. चंचला चलाकैं चहूं ओरन तें चाहभरी,
चरजि गई तीं फेरि चरजन लामीं री।
कहै पद्माकर लवंगन की लोनी लता,
लरजि गई तीं फेरि लरजन लागीं री।
कैसे धरौं धीर वीर त्रिविधि समीर तन,
तरजि गई तीं फेरि तरजन लागीं री।
घुमड़ि घुमड़ि घटा धन की घनेरी अबै,
गरजि गई तीं फेरि बरजन लारीं री॥
2. गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू-को-कछू भाखत भनै नहीं।
कहै पद्माकर परोस-पिछ वारन के,
द्वारन के दौरि गुन-औगुन गनै नहीं।
तौ लाँ चलि चतुर सहेली याहि कोऊ कहूँ,
नीके कै निचौरे ताहि करत मनै नीहीं।
हौं तो स्याम-रंग में चुराइ चित चोराचोरी,
बोरत तों बोर्यौ पै निचोरत बनै नहीं॥
3. फाग के भीर अभीरन तें, गहि गोबिंद लै गई भीतर मोरी।
माई करी मन की पदमाकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीन पितंबर कम्मर, तें, सु विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाइ, कही मुसकाइ, लला फिरि आइयौ खेलन होरी॥
(घ) सेनापति :
1. कुं द से दशन घन, कुं दन वरन तन,
कुंद सी उतारि धरी क्यों बने बिछुरि कै।
सोझ सुख कंद, देख्यो चाहिए बदन-चंद
प्यारी जब मंद मुसकाति नेक मुरि कै।
सेनापति कमल से फूलि रहै अंचल में,
रहै हग चंचल दुराए हू न दुरि कै।
पलकें न लागैं देखि ललकें तरून मन,
झलकैं कपोल, रहीं अलकें बिषुरि कैं।
2. लोल हैं कलोल परावार के आपार,
तऊ जमना लहरि मेरे हिय कौ हरति हैं।
सेनापति नीकी पटवास हूँ तै ब्रज रज,
पारिजात हू तै बन लता सरसति हैं।
अंग सकुमारी संग सोरह सहस रानी,
तऊ छिन एक में न राधा बिसरति हैं।
कंचन अटा पर जराऊ परजंक, तऊ,
कुजन की सेजें वे करेजे खरकति हैं।
3. मलय समीर सुभ सौर भ धरन धीर,
सरवर नीर जन मज्जन के काज कै।
मधुकर पुंज पुनि मंजुल करत गुंज,
सुधरत कुं ज सम सदन समाज कै।
व्याकुल वियोगी, जोग कैसकैन जोगी, तहाँ,
बिहरत भोगी सेनापति सुख साज कै।
सघन तरू लसत, बोलैं पिक-कुल सत,
देखौ हिय हुलसत आए रितुराज कै।
प्रश्न 2.
पठित अंश में से अनुप्रास अलंकार की पहचानकर एक सूची तैयार कीजिए।
उत्तर :
अनुप्रास अलंकार –
- अब न घिरत घन आनैंद।
- अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान।
- चाहत चलन ये।
- अवधि आसपास परे,
- आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौँ ?
- कितेक पन पालिहौ जू
- मोहिं तुम्हैं पैज परी
- जानियैगो टेक टरें कौन
- तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।
- हित तोष के तोष के प्रान पले
- सब ही सुख-साज-समाज टरे
- अब आनि कै बीच पहार परे
- पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ।
- ताहि के चारु चरित्र विचित्रनि यों पाचिकै रचि राखि बिसेख्यौ॥
- ऐसो हियो हितपत्र
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कथ्य पर आधारित प्रश्न –
प्रश्न 1.
घनानंद के काव्य में प्रेमानुभूति का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
घनानंद के काव्य में प्रेमानुभुति का प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छे ढंग से हुआ है। इसमें वर्णित संयोग सुख मादक और उल्लास से परिपूर्ण है जो प्रत्येक सहृदय को आनंद विभोर कर देता है। कवि के प्रेम का मूल आधार सुजान नामक वेश्या है। लौकिक प्रेम में असफलता प्राप्त करने के बाद इन्होंने अपने भाव भगवान कृष्ण के प्रति अर्पित कर दिए थे। उनके प्रेम में पूर्ण निश्छलता है। चाहे इनकी प्रेमिका ने इन्हें धोखा दिया पर इन्होंने मृत्यु-पर्यंत मन-ही-मन उससे प्रेम नाता बनाए रखा था क्योंकि ये प्रेम में सयानापन पसंद नहीं करते थे। ये स्वाभाविक प्रेम के पुजारी थे। कवि का यह कथन इसी तथ्य की पुष्टि करता है –
अति सूधो सनेह कौ मारग है जहाँ नेकु सयानप बाकै नहीं।
तहाँ सांचे चलें आपुनपौं झझकैं कपटी जे निसांक नहीं ॥
प्रश्न 2.
घनानंद की भक्ति-भावना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
प्रेम की दिव्य अनुभूति का नाम ही भक्ति है। घनानंद लौकिक प्रेम में धोखा खाकर अलौकिक प्रेम की ओर मुड़ गए थे। इनकी भक्ति-भावना में सात्विकता के भाव हैं। सुजान से धोखा खाने के बाद ये वृंदावन आकर बस गए थे। इनके हुदय में ‘सुजान’ का नाम तो अवश्य रहा था पर वही नाम श्रीकृष्ण के रूप में भक्ति का आलंबन बन गया था। ये सभी से नाता तोड़कर एकमात्र कृष्णचंद्र के चकोर बन गए थे तथा लौकिक नायिका की प्रीति को छोड़कर दिव्य आत्मा की प्रेम डोरी में बँध गए थे।
प्रश्न 3.
घनानंद के काव्य में विरह का क्या स्थान है?
उत्तर :
घनानंद के प्रेम में जहाँ संयोग का हर्ष-उल्लास दृष्टिगोचर होता है, वहाँ विरह का अथाह सागर हिलोरें लेता हुआ दिखाई देता है। वे विरह के ही कवि हैं, क्योंकि उन्होंने प्रेम के मिलन-पक्ष की अपेक्षा विरह एवं वियोग-पक्ष को ही अधिक तल्लीनता एवं तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया है। सुजान का विरह घनानंद के लिए वरदान सिद्ध हुआ है और घनानंद ने भी अपनी विरहाकुलता का निरूपण करके सुजान एवं सुजान के प्रेम को अमर बना दिया है। घनानंद की यह विरह पीड़ा ही उनके सच्चे प्रेम की कसौटी है, क्योंकि इसी ने घनानंद के प्रेम को अमरता प्रदान की है –
रैन दिना घुटिबौं करै प्रान झरैं अँखियाँ दुखियाँ झरना-सी।
प्रीतम की सुधि अंतर में कसकै सखि ज्यौं पंसरीन मैं गांसी॥
वस्तुत: घनानंद काव्य की मूल संवेदना ही प्रेम है और उसी से सारा काव्य स्पंदित हो रहा है। उनके इस प्रेम में स्वानुभूति की तीव्रता भरी हुई है। इनके संयोग में भी वियोग भरा हुआ है। इनका प्रेम स्थूल नहीं, अपितु सूक्ष्म है। उसमें अश्लीलता एवं कामवासना नहीं है, अपितु दिव्यता एवं पवित्रता है, इनकी विरहानुभूति अनिर्वचनीय है।
प्रश्न 4.
घनानंद के काव्य में प्रेममार्ग में आनेवाली बाधाओं का कैसे वर्णन किया गया है?
उत्तर :
घनानंद प्रेम के दीवाने थे। वे प्रेम-मार्ग में सभी प्रकार के कष्टों को सहन करने के लिए तैयार थे। यदि उनका प्रिय अपने प्रेमी की चिंता न करके निर्दयता का ही व्यापार कर रहा था, जो घनानंद अपने निष्ठुर एवं निर्दय प्रिय के हृदय में दया उत्पन्न करने के लिए अपने को आशा की रस्सी से बाँधकर प्रेम-सागर में डूबने को तैयार थे, वे स्वयं को विरह की लपटों में जला सकते थे, साहसपूर्वक अपने सिर को आरे से चिरवा सकते थे और भी जो लाखों प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ें, उन्हें भी सहने को तैयार थे।
आसा-गुन बाँधि कै भरोसो-मिल धरि छाती, पूरे मन-सिंधु मैं न बूढ़त सकाय हौ।
प्रश्न 5.
घनानंद के काव्य में प्रकृति-चित्रण की क्या विशेषता है ?
उत्तर :
घनानंद ने प्रकृति के अत्यंत सुंदर चित्र अंकित किए हैं। वे सच्चे प्रकृति-प्रेमी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था, क्योंकि वृंदावन की प्रकृति-सुषमा निहारने एवं अन्य ब्रज के वनों को देखने का अवसर उन्हें अनेक बार प्राप्त हुआ था। प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा कवि ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण अधिक सरसता एवं मार्मिकता के साथ किया है। इनके काव्य में विरह की अधिकता है इसलिए प्रकृति के तत्वों में वायु से वे कहते हैं कि निर्मोही प्रियतम के समीप जाकर उनके चरणों की धूल लाए और जिसे अपनी आँखों में लगाकर विरहिणी आत्मा अपनी विरह-व्यथा कम कर सके –
एरे बीर पौन ! तेरौ सबै और गौन, बारी
तो सो और कौन, मन ढरकौं ही बानि दै।
प्रश्न 6.
घनानंद के काव्य में संयोग शृंगार की अपेक्षा वियोग शृंगार का अनूठा चित्रण हुआ है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
घनानंद प्रेम-सौंदर्य और शृंगार के कवि हैं किंतु उन्होंने संयोग शृंगार की अपेक्षा वियोग शृंगार का अनूठा चित्रण किया है। इनके काव्य में वियोग का अत्यंत मार्मिक एवं सजीव चित्रांकन हुआ है। इनके संयोग शृंगार में वैसी वक्रता नहीं है जैसी वियोग शृंगार में विद्यमान है। इसका यह कारण है कि घनानंद स्वयं वियोग की अग्नि में निरंतर जलते रहे। वे आजीवन विहर-वेदना से व्यथित रहे। अतः यह सत्य है कि घनानंद के काव्य में संयोग शृंगार की अपेक्षा वियोग शृंगार का अनूठा चित्रण हुआ है।
प्रश्न 7.
घनानंद किससे प्रेम करते थे ?
उत्तर :
घनानंद सुजान नामक वेश्या से प्रेम करते थे, किंतु उसने इनके प्रेम को स्वीकार नहीं किया। इसलिए घनानंद आजीवन उसके विरह में तड़पते रहे।
प्रश्न 8.
घनानंद ने संयोग और वियोगावस्था में क्या अंतर बताया है ?
उत्तर :
घनानंद ने संयोग और वियोग दोनों अवस्थाओं का चित्रण किया है। संयोगावस्था में हम अपने प्रिय के सौंदर्य रूपी सुधा का पान नेत्रों से करते हैं किंतु वियोगावस्था में ये नेत्र विरह के शोक में जलते रहते हैं। संयोग में प्रिय के प्रेम में पुष्ट होकर प्राण पलते हैं, किंतु वियोग में प्राण दुख और क्लेश से भरकर तड़पते रहते हैं।
प्रश्न 9.
सुजान को लिखे गए ‘हितपत्र’ की विशेषता बताते हुए लिखिए कि उसने पत्र का क्या किया और क्यों ?
उत्तर :
कवि प्रेमिका द्वारा अपना प्रेम-पत्र बिना पढ़े फाड़ देने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहता है कि जिस हृदयूपी प्रेम-पत्र में पूर्ण प्रेम के मंत्र को महान प्रतिज्ञा के साथ मैंने भली-भाँति शुद्ध करके लिखा था, जिस हृदय रूपी प्रेम-पत्र को उसी प्रिय के सुंदर तथा अद्भुत चरित्रों से विशेष रूप से बनाकर रखा था, ऐसा हृदय रूपी पवित्र प्रेम-पत्र जिसमें किसी दूसरे के संबंध में मैंने कहीं कुछ भी नहीं लिखा था। घनानंद कहते हैं कि ऐसे उस हृदयरूपी प्रेम-पत्र को आनंद के घन प्रेम प्यारे सुजान ने अज्ञानी व्यक्ति की तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया, किंतु उसे पढ़कर नहीं देखा। कवि ने अत्यंत प्रेमपूर्वक और बहुत परिश्रम से अपनी प्रेमकथा अपनी प्रेमिका को लिखकर भेजी थी। उस पत्र में उसने अपनी प्रियतम का गुणगान भी किया था। उसकी प्रेमिका इतनी निष्ठुर निकली कि उसने वह पत्र पढ़ा ही नहीं और फाड़कर फेंक दिया। कवि उसी दुख से संतप्त है।
काव्य-सौंदर्य पर आधारित प्रश्न –
प्रश्न 1.
घनानंद के काव्य में सौंदर्य-चित्रण पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
घनानंद ने रूप-सॉददर्य के कितने ही अत्यंत मनोहारी चित्र अंकित किए हैं, जिनमें अपनी प्राण-प्रिया ‘अलवेली सुजान’ की विधि रूप-छवियाँ अत्यंत माधुर्य के साथ विद्यमान हैं। घनानंद के इन रूप-चित्रों में आँख, नाक, कान, मुख, अंग-प्रत्यंग आदि को अलग-अलग दिखाने की उतनी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, जितनी कि उन्होंने संपूर्ण अंग की रमणीयता को दिखाने का प्रयास किया है। घनानंद के इन सौंदर्य-चित्रों में सुजान का रूप, लावण्य, यौवन, छवि, कांति अंग दीप्ति आदि मानो साकार हो उठी हैं और ये सभी चित्र सौंदर्य से परिपूर्ण हैं, जिनमें संश्लिष्टता है, मादकता है, अतिशयता है और सर्वाधिक भाव-प्रेषणीयता है।
प्रश्न 2.
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
तब तौ छबि पीवत जीवत हैं, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित-पोष के तोष सुप्रान पले, बिललात महादुख दोष भरे।
घनआनँद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहरा से लागत हे, अब आनि कै बीच पहार परे॥
उत्तर :
कवि प्रेमी युगल की संयोग और वियोग की स्थितियों का वर्णन करते हुए लिखता है कि संयोगावस्था में हम प्रिय के साँदर्य रूपी सुधा का पान अपने नेत्रों से करते हुए जी रहे थे परंतु अब वियोग की दशा में प्रिय के विरह में ये नेत्र विरह के शोक में जले जा रहे हैं। संयोग के क्षणों में प्रिय के प्रेम से पुष्ट होकर प्राण पलते रहे थे। परंतु अब वियोग की दशा में बहुत अधिक दुख और क्लेशों से भरकर तड़प रहे हैं। घनानंद कवि कहते हैं कि प्रिय सुजान के बिना सुख के समस्त साधन नष्ट हो गए हैं।
अपने भी अजनबियों जैसा व्यवहार करने लगे हैं। संयोग के समय मिलन के क्षणों के बीच में आनेवाला हार भी पहाड़ जैसा लगता था और इन वियोग के दिनों में दोनों के बीच वियोग का पहाड़ आकर खड़ा हो गया है। कवि के अनुसार संयोग की घड़ियों में सुखद लगने वाली स्थितियाँ वियोग के क्षणों -ें दुखदायी हो जाती हैं। अनुप्रास, यमक, विषम और पदमैत्री अलंकार दर्शनीय हैं। ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली और अनेक मुहावरों का सुंदर प्रयोग किया गया है। सवैया छंद में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है। शृंगार रस के अंतर्गत विप्रलंभ शृंगार का मार्मिक चित्रण किया गया है। कवि ने संयोग और वियोग पक्षों का मनोवैज्ञानिक निरूपण किया है।
प्रश्न 3.
घनानंद की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
घनानंद रीतियुक्त काव्यधारा के सुप्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। उन्होंने ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया है। उनके काव्य में शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का चित्रण है। अब वियोगावस्था का चित्रण अत्यंत अनूठा एवं सजीव बन पड़ा है। उनके काव्य में अनुप्रास, श्लेष, पुनरुक्तिप्रकाश, उपमा आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग किया है। इसमें कवित्त, सवैया, छंदों का प्रयोग हुआ है। इनके काव्य में प्रवाहमयता, गेयता, संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।