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रामचंद्रचंद्रिका Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 10 Summary

रामचंद्रचंद्रिका – केशवदास – कवि परिचय

जीवन-परिचय – केशवदास के वंशजों का मूल निवास-स्थान ब्रज और राजस्थान के देहली-डीग कुम्हेर गाँव को माना जाता है। केशव के पूर्वज गोपांचल में राज्याश्रित रहे थे। इनके पूर्वजों को राजा रुद्रप्रताप और ओरछा नरेशों ने आश्रय दिया था। इनके पूर्वज संस्कृत साहित्य के प्रकांड पंडित थे। केशवदास का जन्म भारद्वाज गोत्रीय सनाद्य ब्राह्मण परिवार में ओरछा नगर में सन 1555 ई० में हुआ था। इन्हें वेदांतवादी मिश्र कहा जाता था। केशवदास ने विधिपूर्वक अपने गृहस्थ जीवन का निर्वाह किया। पिता पं० काशीनाथ के प्रति केशव की अगाध श्रद्धा थी।

कवि-आचार्य केशवदास को महाराजा रामशाह के छोटे भाई इंद्रजीत सिंह से राज्याश्रय प्राप्त हुआ। अकबर बादशाह से बड़े हुए झगड़े को आचार्य केशव ने ही अपनी चतुरता से निपटा दिया था, इसलिए केशवदास को महाराज इंद्रजीत सिंह सदा सम्मान देते रहे। इन्होंने केशवदास को इक्कीस गाँब भेंट किए थे। इंद्रजीत सिंह के पश्चात राजा वीरसिंह देव ओरछा नरेश बने। उनके राज्यकाल में भी केशवदास का सम्मान बना रहा। ये कवि होने के साथ-साथ स्वभाव के रसिक भी थे। सन 1617 ई० में इनका स्वर्गवास हो गया।

रचनाएँ – महाकवि केशव की प्रसिद्ध रचनाएँ-रामचंद्रिका, रसिकप्रिया, कविप्रिया, विज्ञान गीता, वीरसिंहदेव चरित, रतन बावनी, जहाँगीर जसचंद्रिका तथा छंद।

इन रचनाओं में ‘रामचंद्रिका’ प्रबंध काव्य है। केशव ने परंपरागत राम-चरित्र को अनेक छंदों में सशक्त काव्यकौशल से चित्रित किया है। ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘कविप्रिया’ काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं, जिनमें रस, नायिका, काव्य-दोष एवं अलंकार आदि का वर्णन किया गया है। ‘विज्ञानगीता’ आत्मज्ञान से संबंधित है।’ वीरसिंहदेव चरित’, ‘रतन बावनी’ एवं ‘जहाँगीर जसचंद्रिका’ दोनों राजाओं के चरित के विविध पक्षों को लेकर लिखे गए चरित ग्रंथ हैं। ‘छंदमाला’ केशव के छंदशास्त्र ज्ञान का बोधक ग्रंध है।

काव्य की विशेषताएँ-केशव को एक युग तक ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा जाता रहा है परंतु इनका काव्य-रस पूर्ण है। केशव के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

i. प्रबंधात्मकता – केशव ने प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार के काव्यों की रचना की है, परंतु मुक्तक-रचना में वे अधिक सफल रहे हैं। ‘रामचंद्रिका’ के कथानक में सुसंबद्धता नहीं है। इनका कवित्व की अपेक्षा पंडित्य-प्रदर्शन की ओर ध्यान अधिक रहा है।

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ii. भाव-व्यंजना – केशव दरबारी कवि थे, इसलिए उन्होंने शृंगार रस को अधिक महत्व दिया। उन्होंने शृंगार रस को रसराज सिद्ध करने का प्रयास किया। इस प्रयत्ल में अनेक स्थलों पर रस-दोष आ गया है। शृंगार-वर्णन में उनमें संयम और मर्यदादा का अभाव है। भृंगार के अतिरिक्त वीर, रौद्र, भयानक, वत्सल आदि रसों के उदाहरण भी उनके काव्य में मिलते हैं।

iii. प्रकृति-चित्रण – केशव का प्रकृति के प्रति विशेष अनुराग न था, इसलिए उनके काव्य में प्राकृतिक दृश्यों के सरस वर्णन का अभाव है। कुछ स्थलों पर उन्होंने नाम-परिगणन शैली में विभिन्न वस्तुओं के नामों की गणना की है। उनका प्रकृति-वर्णन आलंकारिक है।

iv. संवाद-योजना-संवाद-योजना की दृष्टि से केशव को अभूतपूर्व सफलता मिली है। संवाद तो केशव की सभी रचनाओं में उपलन्ध हैं, परंतु रामचंद्रिका में उनकी संवाद-योजना अनूठी है। वाक्चतुरता, व्यंग्य, राजनीति के दाँव-पेच, भावानुकूल छंद-योजना तथा नाटकीयता उनके संवादों की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

v. अलंकार-विधान-केशव चमत्कारी कवि थे, इसलिए उनके काव्य में अलंकारों का प्रमुख स्थान था। अलंकारों में सुसिद्ध, प्रसिद्ध, विपरीत एवं प्रेमादि नए अलंकार सोदाहरण ‘कविप्रिया’ में प्रतिपादित किए हैं। अपने काव्य में केशवदास श्लेष अलंकार के श्रेष्ठ काव्याशास्त्री सिद्ध होते हैं। ‘रामचंद्रिका’ में समन्वित श्लेषालंकार के उदाहरण आकर्षक हैं। ‘कविप्रिया’ में श्लेषभेदों का निरूपण भी अवलोकनीय है, इसीलिए केशव को ‘श्लेषदक्ष आचार्य’ माना जा सकता है। उनकी यह उक्ति भी श्लेष के कारण प्रसिद्ध है –

यदपि सुजाति सुलक्षणी सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषन बिनु न विराजई कविता बनिता मित्त॥

केशव की काव्य-शैली अलंकार प्रधान है और उससे कहीं-कहीं अलंकारों के प्रयोग का मोह भी दृष्टिगत होता है।

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vi. भाषा – केशव की भाषा ब्रज है, परंतु उसमें तत्समप्रधान शब्दों का प्रयोग दृष्टिगत होता है और कहीं बुंदेलखंडी शब्द भी दिखाई देते हैं। कवि ने चमत्कार और अलंकारिकता के मोह में पड़कर भाषा को तरोड़ा-मरोड़ा भी है। वास्तव में केशवदास ने ब्रजभाषा को काव्य एवं काव्यशास्त्रीय स्तर की भाषा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

Ramchandra Chandrika Class 12 Hindi Summary

पाठ्यक्रम में तीन छंद दिए गए हैं। प्रथम छंद ‘कविप्रिया’ से उद्धृत है जिसे में कवि ने सरस्वती की आराधना करते हुए उन्हें अत्यंत उदार बताया है और कहा है कि उनकी उदारता अवर्णनीय है। कवि तो क्या है सिद्ध मुनि, ब्रहमा, शिव, कातिकेय तक उनकी उदारता का वर्णन नहीं कर सके है। द्वितीय छंद ‘रामचंद्रिका’ के ‘पंचवटी’ प्रसंग से लिया गया है। इसमें लक्ष्मण उर्मिला को पंचवटी का महत्व बताते हैं कि पंचवटी के दर्शन से वही लाभ प्राप्त होते हैं जो शिव के दर्शन से होते हैं।

तृतीय छंद ‘रामचंद्रिका’ के ‘राबण-अंगद’ प्रसंग से लिया गया है। इस छंद में अंगद रावण को राम की महिमा बताता है कि कैसे उन्होंने समुद्र पर पुल बना लिया है। जबकि रावण से तो उनके दूत बंदर हनुमान को भी बाँधा नहीं गया था। वह राम को सशक्त और रावण को अशक्त बताता है।

रामचंद्रचंद्रिका सप्रसंग व्याख्या

सरस्वती वंदना

1. बानी जगरानी की उद्शरता बखानी जाइ ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध रिघिराज तपबृंद कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई।
भावी भूत बर्तमान जगत बखानत है ‘ केसोदास’ क्यों हू ना बखानी काहू पै गई।
पति बर्ने चारमुख पूत बनें पाँचमुख नाती बर्ने घटमुख तदपि नई नई।।

शब्दार्थ बानी – वाणी, सरस्वती। मति – बुद्धि, वर्णन शक्ति। तपबृंद – बड़े-बड़े तपस्वी। भावी – भविष्य। भूत – अतीत। पति – सरस्वती के पति, ब्रहम जी। पूत – सरस्वती-पुत्र, शिव जी। नाती – सरस्वती का पौत्र, शिव का पुत्र-कार्तिकेय। घटमुख – छह मुखों वाला अर्थात कात्तिकेय।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ केशवदास द्वारा रचित ‘कविप्रिया’ से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने सरस्वती की वंदना करते हुए उनकी उदारता की प्रशंसा की है।

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व्याख्या : कवि केशव कहते हैं कि जगत की रानी सरस्वती की उदारता का वर्णन कर सकने की सामथ्थ्य बताओ, किसमें है अर्थात् ऐसी बुद्धि किसी की नहीं है जो सरस्वती की उदारता का वर्णन कर सके। देवता, प्रसिद्ध सिद्धगण, ऋषिवृंद और बड़े-बड़े तपस्वी भी इनकी उदारता का वर्णन करते थक गए, पर कोई भी उनकी उदारता का वर्णन नहीं कर सका। अतीत में उनकी उदारता का वर्णन किया गया था, वर्तमान काल में भी किया जा रहा है और भविष्य में भी लोग ऐसा करेंगे, परंतु उनकी पूरी प्रशंसा न हुई और न हो सकेगी। लौकिक सामान्य जनों की तो बात ही क्या है, उनके पति ब्रह्मा अपने चार मुखों से, पुत्र शिव पाँच मुखों से और नाती कार्तिकेय छह मुखों से उनका वर्णन करते

हैं, परंतु बे उनकी उदारता का वर्णन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उनमें नित्य कोई न कोई नवीनता उत्पन्न हो जाती है और वह वर्णन करने से रह जाती है। इस प्रकार सरस्वती की उदारता का वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है।

विशेष :

  1. कवि सरस्वती को अत्यंत उदार देवी बताकर उनकी वंदना करता है तथा स्वयं को उनकी उदारता का वर्णन करने में असमर्थ जान कर उनकी उदारता को अवर्णनीय बताता है।
  2. ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया गया है।
  3. अनुप्रास, पुनरक्तिप्रकाश तथा यमक अलंकार हैं।
  4. घनाक्षरी मुक्तक दंडक छंद का प्रयोग किया गया है।
  5. शांत रस एवं प्रसाद गुण विद्यमान है।
  6. अभिधा शब्द-शक्ति के साथ-साथ भाव-गहनता के लिए कवि ने लाक्षणिकता का प्रयोग किया है।
  7. माधुर्य गुण विद्यमान है।
  8. तत्सम और तद्भव शब्दावली का सहज प्रयोग किया गया है।

पंचवटी-वन-वर्णन

2. सब जाति फटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहै एक घटी।
निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन की छूटी तटी।
अघओघ की बेरी कटी बिकटी निकटी प्रकटी गुरुज्ञान-गटी।
चहुँ ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी बन पंचबटी।।

शब्दार्थ : दुपटी – चद्दर। निघटी – कम होना, घट गई। मीचु – मृत्यु। जतीन – योगी। अघओघ – पापों का समूह। गटी – गठरी। धूरजटी – शिव। जटी – जटा।

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प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ केशवदास द्वारा रचित ‘रामचंद्रिका’ के पंचवटी प्रसंग से ली गई है। इन पंक्तियों में कवि ने लक्ष्मण के मुख से पंचवटी के महत्व को व्यक्त कराया है।

व्याख्या : लक्ष्मण पंचवटी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह पंचवटी नामक वन शिव के दर्शन के समान फलदायक है। यहाँ आते ही दुख की चादर फट जाती है। समस्त दुख दूर हो जाते हैं। यहाँ कपटी व्यक्ति एक घड़ी भी नही टिक सकता है, क्योंकि इसकी शोभा के कारण मन में सात्विक भावों का उदय हो जाता है। यहाँ के सौँदर्य से आनंदित होकर प्रत्येक यांस्पारिक व्यक्ति को जीवन आकर्षित प्रतीत होने लगता है और वह मरना नहीं चाहता है।

यहाँ आकर योगियों की समाधि भी टूट जाती है, क्योंँक यहाँ के सौँदर्य-दर्शन से योग-साधना से भी अधिक आनंद प्राप्त हो जाता है। पंचवटी में आने से महापापों की बेड़ियाँ कट जाती हैं और गुरु-ज्ञान रूपी गठरी प्राप्त हो जाती है। यहाँ आने से समस्त पापों के बंधनों से व्यक्ति मुक्त हो जाता है। यहाँ मुक्ति चारों ओर नर्तकी की भाँति नाचती हुई दिखाई देती है। इन्हीं गुणों के कारण पंचवटी वन शिवजी की जटाओं के समान बना हुआ है।

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विशेष :

  1. कवि ने पंचवटी को शिव के दर्शन के समान मानते हुए सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्रदान करने वाला स्थान माना है।
  2. सहज, स्वाभाविक तथा कोमलकांत पदावली से युक्त ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. अनुप्रास, यमक, उपमा तथा रूपक अलंकार हैं।
  4. प्रकृति का आलंकारिक रूप में वर्णन किया गया है।
  5. ‘ट’ वर्ग की अधिकता होते हुए भी लयात्मकता का गुण विद्यमान है।
  6. शांत रस का वर्णन है।
  7. अभिधात्मकता ने कवि के कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है।
  8. स्वरमँत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है।
  9. तद्भव शब्दावली की अधिकता है।

अंगद

3. सिंधु तरूयो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधिकै बाट करी।
श्रीरघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूंछि जरी न जरी, जरी लंक जराइ-जरी॥

शब्दार्थ तर्यो – पार करना, तैर जाना। धनुरेख – धनुष से बनाई गई रेखा। पै – से। बाँधोई – बाँधते हुए। बारिधि – समुद्र। बाट – रास्ता। तूलनि – रईई। जराइ-जरी – सोने और रत्नों से जड़ी हुई।

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प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ केशवदास द्वारा रचित ‘रामचंद्रिका’ के ‘रावण-अंगद’ संवाद से ली गई हैं। श्री राम के द्वारा दूत बनाकर भेजा गया अंगद रावण के दरबार में आकर रावण को राम से क्षमा माँगकर उन्हें सीता लौटाने के लिए कहता है, परंतु रावण अपने अहंकार के कारण राम को तुच्छ मानता है। तब अंगद रावण को राम की महिमा बताता है।

व्याख्या : अंगद रावण को राम की महिमा बताते हुए कहता है कि श्रीराम द्वारा भेजा गया बंदर सागर पार कर गया, किंतु तुमसे तो धनुष द्वारा खींची गई रेखा भी पार नहीं हो सकी। तुमने उनके बंदर को बाँधने की कोशिश की, किंतु तुम उसको भी न बाँध सके और राम ने सागर को बाँधकर उसके ऊपर पुल बना लिया है। अरे दस कंठों वाले रावण ! इतने पर भी तुम श्रीराम के प्रताप को नहीं समझ पा रहे हो ? तेल और रुई से युक्त उस बंदर हनुमान की पूँछ तो तुम जला न सके, किंतु उस पूँछ से तुम्हारी सोने और रत्नों से जड़ी हुई लंका जल गई।

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विशेष :

  1. इन पंक्तियों में कवि ने श्रीराम की महिमा का गुणगान करते हुए रावण की कमज़ोरियों की ओर संकेत किया है। कवि ने राम को सशक्त और रावण को अशक्त सिद्ध किया हैं।
  2. कोमलकांत ब्रजभाषा की पदावली में बुंदेलखंडी प्रभाव दिखाई देता है।
  3. अनुप्रास और यमक अलंकार हैं।
  4. वीर रस की प्रधानता है।
  5. स्वरमैत्री के कारण संगीतात्मकता विद्यमान है।
  6. व्यंग्यात्मक स्वर प्रधान है।
  7. तद्भव शब्दावली का अधिकता से प्रयोग किया गया है।
  8. ओज गुण प्रधान है।
  9. तुकांत छंद लयात्मकता का आधार बना है।