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देवसेना का गीत Summary – कार्नेलिया का गीत Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary

देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत – जयशंकर प्रसाद – कवि परिचय

कवि-परिचय :

जीवन-परिचय – श्री जयशंकर प्रसाद आधुनिक युग के श्रेष्ठ कलाकारों में गिने जाते हैं। उन्होंने अपने काव्य को सौँदर्य एवं प्रेम से विभुषित कर आकर्षक बना दिया। प्रसाद जी का जन्म सन 1888 ई० में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम देवी प्रसाद था। वे सूँघनी साहु के नाम से प्रसिद्ध थे। उनमें कविता-प्रेम और रसिकता भी थी। इस प्रकार सरस्वती एवं लक्ष्मी के संयुक्त मंदिर में प्रसाद जी का शैशव व्यतीत हुआ।

प्रम्नाद जी की शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया गया। उन्होंने संस्कृत, हिंदी और अंग्रेज्जी का विशद अध्ययन किया। वेदों और उपनिषदों में उनका विशेष चिंतन और मनन रहा। इस प्रकार उन्होंने अध्ययन के बल पर साहित्य जगत में खड़े होने के लिए एक दृढ़ आधार बना लिया। यही कारण है कि जब उन्होंने कलम उठाई तो सभी मंत्र-मुग्ध हो गए। संवत 1994 अर्थांत सन 1937 में साहित्य का यह देवता सदा के लिए निद्रा में लीन हो गया।

रचनाएँ – प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने साहित्य के प्रत्येक अंग को समृद्ध बनाया। वे कहानीकार, उपन्यास-प्रणेता, नाटककार और श्रेष्ठ कवि थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
काव्य-संग्रह – चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, करुणालय, महाराणा का महत्व, झरना, आँसु, लहर, कामायनी।
नाटक – राज्यश्री, विशाख, सज्जन, प्रायश्चित, जनमेजय का नाम यज्ञ, अजातशत्रु, समुद्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी।
उपन्यास – कंकाल, तित्ली, इरावती (अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह – छाया, प्रतिध्वनि, आँधी, इंद्रजाल, आकाशदीप।
निबंध – काव्य-कला तथा अन्य निबंध।

कामायनी श्री जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कृति है और आधुनिक युग का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें आदिपुरुष मनु और आदिस्त्री श्रद्धा के माध्यम से मानव-विकास की कथा पर प्रकाश डाला गया है। इस कथा में रूपक की भी सुंदर योजना है। बुद्धिवाद और हददयवाद का समन्वय कामायनी का प्रमुख संदेश है। भाव पक्ष एवं कला पक्ष दोनों दृष्टियों से यह एक सुंदर रचना है। छायावादी काव्य-सरोवर में कामायनी सरोज के समान शोभायमान है जिसपर रसिक भ्रमरी की गुंजार सुनाई देती रहती है।

काव्यगत विशेषताएँ – प्रसाद जी का काव्य विविध विशेषताओं का पुंज है जिसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) प्राकृतिक सौँदर्य का चित्रण – छायावादी कवि प्रकृति के अनन्य उपासक रहे हैं और प्रकृति के प्रति उनका अगाध आकर्षण शतशः गीतों में फूटा है। प्रसाद जी का प्रकृति-चित्रण भाव संचालित होता रहा है। प्रसाद का काव्य प्रकृति के मनोरम दृश्यों एवं पदार्थों की रंगीन चित्रशाला है। प्रकृति के कोमल तथा कठोर रूपों का अंकन समान रूप से उन्होंने किया है। ‘कामायनी’ में प्राकृतिक सँदयर्य के शतशः चित्र अंकित किए गए हैं। ‘ऊषा’ का साँदर्य द्रष्ठव्य है-

ऊषा सुनहले तीर बरसती जल लक्ष्मी-सी उदित हुई।

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(ii) मानव प्रेम – प्रसाद जी उदार विचारों के आध्यात्मिक व्यक्ति थे। मानवमात्र से प्रेम उनके काव्य का गुण है। प्रेम के आदर्श रूप को आँसू, कामायनी तथा प्रेम-पथिक में देखा जा सकता है। कवि का कोमल हुदय किसी भी दुखी मनुष्य को देखकर पिघल जाता है। आप लिखते हैं कि –

जल उठा स्नेह दीपक-सा नवनीत हइदय था मेरा
अवशेष धूम रेखा-सा, चित्रित कर रहा अँधेरा।

(iii) ईश्वर-प्रेम – छायावादी कवि रहस्यवादी भी हैं और प्रकृति में प्रभु के दर्शन करते हैं। प्रसाद जी के काव्य में रहस्यवादी तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। जिज्ञासा, प्रेम, विरह तथा मिलन के सोपानों से गुज्जरने वाली ईश्वर प्रेम की भावना का कवि ने वर्णन किया है। कवि, ईश्वर के अस्तित्व के विषय में जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ कहता है-

हे अनंत रमणीय ! कौन तुम ? यह मैं कैसे कह सकता।
कैसे हो? क्या हो ? इसका तो भार विच्चार न सह सकता।

(iv) देश-प्रेम – प्रसाद जी का उत्कृष्ट देश-प्रेम उनकी देश-भक्तिपूर्ण रचनाओं में झलकता है। देश की परंपराओं, इतिहसस एवं संस्कृति में अटूट आस्था होने के कारण उन्होंने देश-प्रेम के अनेक गीत लिखे। उनका अमर गीत है-

अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

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(v) मानव-साँदर्य – छायावादी कवियों की अदम्य सँददर्य लालसा केवल प्रकृति और राष्ट्र के साँदर्य को अंकित करके ही समाप्त नहीं हो गई बल्कि मनुष्यों के शारीरिक साँदर्य के साथ-साथ उनके कर्म तथा भाव-सँददर्य का चित्रण भी उन्होंने विस्तारपूर्वक किया है। ‘आँसू’ खंडकाव्य में अपनी प्रेयसी के सौँदर्य का चित्रण करते हुए कविवर लिखते हैं कि-

चंचला स्नान कर आवे चंड्रिका पर्व में जैसी,
उस पावन तन की शोभा आलोक मधुर थी ऐसी।

प्रेम और साँदर्य के साथ-साथ प्रसाद जी के काव्य में विश्व-बंधुत्व, सर्वजन हिताय तथा व्यापक मानवतावाद से ओत-प्रोत रचनाएँ भी हैं। प्रसाद जी मूलत: आंतरिक अनुभूतियों के कवि हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनका काव्य समकालीन हलचलों को अनदेखा करता है। प्रसाद औ की कविता मानव में ईश्वर और ईश्वर में मानव को देखती है।

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(vi) भाषा-शैली – प्रसाद जी की भाषा-शैली परिष्कृत, स्वाभाविक, तत्सम शब्दावली प्रधान एवं सरस है। छोटे-छोटे पदों में गंभीर भाव भर देना और उनमें संगीत लय का विधान करना उनकी शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

देश-प्रेम की रचनाओं में ओज-गुण प्रधान शब्दावली, भृंगार रस प्रधान रचनाओं में माधुर्य-गुण से युक्त शब्दावली तथा प्रसाद-गुणयुक्त शब्दावली का प्रयोग किया गया है। शब्द-चित्रों की सुंदर योजना प्रसाद जी की रचनाओं में रहती है। रसवादी होने के कारण उनकी रचनाओं में सभी रसों का पूर्ण परिपाक देखा जा सकता है। प्रसाद जी की रचनाओं में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।

Devsena Ka Geet Class 12 Hindi Summary

देवसेना का गीत :

‘देवसेना का गीत’ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से लिया गया है। देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन थी। हूर्णों के आक्रमण से बंधु वर्मा का सारा परिवार मारा गया था। देवसेना बच गई थी। वह राष्ट्र की सेवा में लगी हुई थी। वह स्कंदगुप्त से प्रेम करती थी परंतु स्कंदगुप्त विजया को चाहता था। जीवन के अंतिम दिनों में स्कंदगुप्त देवसेना से विवाह करना चाहता है। देवसेना मना कर देती है। वह अपनी समस्त कोमल भावनाओं को दबाकर यह गीत गाती है-‘आह।

वेदना मिली विदाई !’ अपने जीवन की इस संध्याबेला पर अपने यौवन को देवसेना भ्रमवश किए गए क्रियाकलापों की श्रेणी में रखती है। उन दिनों की नादानियों को याद करके उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकलती है। उसे लगता है मानो परिश्रम करके थक कर सोए हुए पथिक को स्वप्न लोक में ही किसी ने विरह की रागिनी सुना दी हो। उसे लगता है जैसे वह अपनी बचाई हुई समस्त पूँजी लुटा चुकी है। वह जीवन संघर्षों से निरंतर जूझती रही है। वह चाहती है कि संसार के लोगों ने उसे जो इतनी करुणा दी है उसे वह वापस ले ले क्योंकि वह इसे और नहीं सँभाल सकती।

Karneliya Ka Geet Class 12 Hindi Summary

कार्नेलिया का गीत :

प्रस्तुत कविता जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक ‘ चंद्रगुप्त’ से अवतरित है। इस गीत में यूनान के सम्राट सिकंदर महान के उत्तराधिकारी सैल्यूकस की पुत्री कानेंलिया भारत-भूमि के साँदर्य को देखकर मुग्ध हो जाती है और उसके मुख से यह गीत प्रस्युटित हो जाता है। वह भारत देश की प्रशंसा करते हुए कहती है कि वास्तव में यह देश मधुमय है। हमारा देश राग एवं प्रेम की भूमि है। भारत वह देश है जहाँ अपरिचित व्यक्ति को भी आश्रय मिलता है। हमारा देश वह स्थान है जहाँ पर तरु-शिखाएँ नाचती हुई प्रतीत होती हैं। कमल की पीली-पीली पंखुडियों के समान पक्षी वृक्ष की सुंदर शाखाओं पर नृत्य करते हैं।

छोटे-से इंद्रधनुष के समान रंग-बिरंगे पंखोंवाले पक्षी अपने पंखों को फैलाकर शीतल-मंद वायु के सहारे उड़ते हुए इस देश को अपना रैनबसेरा समझकर यही आकर विश्राम करते हैं। यहाँ के लोगों में करुणा का भाव भरा रहता है। प्रातःकाल के समय रातभर जागने के कारण जब तारे ऊँघने लगते हैं तो उषा रूपी सुंदरी सूर्य रूपी स्वर्ण कलश से यहाँ के जन जीवन पर सुख और साँदर्य की वर्षा करती है।

देवसेना का गीत सप्रसंग व्याख्या

1 आहा! वेदना मिली विदाई!
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी-
नीरवता अनंत अँगड़ाई।

शब्दार्थ : विदाई – बिछड़ने या जुदा होने की अवस्था। वेदना – व्यथा, पीड़ा, दुख। संचित – एकत्र करना। श्रमकण – परिश्रम की बूँदें, आँसू। नीरवता – खामोशी।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ के पाँचवें अंक के छठे दृश्य में देवसेना द्वारा गाए गए गीत ‘अाह। वेदना मिली विदाई!’ से ली गई हैं। देवसेना अपनी समस्त साधना के फल को अपने प्रिय के चरणों में समर्पित कर जीवन के भावी सुखों, आशाओं और आकाक्षाओं सबसे विदा लेते हुए यह गीत गाती है।

व्याख्या – देवसेना अपने हुदय की वेदना के गीत को वाणी देते हुए कहती है कि यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है कि मुझे विदा के समय भी वेदना मिली है। मैं जीवनभर जिन भावनाओं को श्रमवश अपने हुदय में सँजोए रही अंत में उन्हीं को भीख में लुटा रही हूँ। विदा के इस समय संध्या भी दिनभर श्रम करने के बहाने से आसूू बहा रही है। विदाई की इस वेला में जुदाई के कारण संध्या भी मानो आँसू बहा रही है। मेरी इस यात्रा के समय चारों ओर केवल खामोशी ही खामोशी थी। एक विचित्र-सी शांति थी, जिसका कहीं कोई अंत नहीं था। ऐसा लगता था जैसे नीरवता अंगड़ाइयाँ ले रही थी।

विशेष :

  1. देवसेना के हूदय की वेदना सजीव बनकर शब्दों के माध्यम से व्यक्त हुई है।
  2. भाषा तत्सम प्रधान एवं लाक्षणिकता से युक्त है।
  3. उपमा, अनुप्रास और मानवीकरण अलंकार हैं।
  4. छायावादी काव्य के दुखवाद और निराशा के साक्षात दर्शन होते हैं।

Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary - Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Summary Vyakhya

2 श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनीदी श्रुति में किसने-
यह विछाग की तान उठाई।
लगी सतुष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।

शब्दार्थ : श्रमित – परिश्रम करके थका हुआ। मधुमाया – मधुर मोह। गहन – घने, बहुत। विपिन – जंगल, वन। तर – वृक्ष। पधिक – मुसाफ़िर, यात्री। उर्नीदी – ऊँचती हुई। श्रुति – सुनने की क्रिया। विहाग – विदा का गीत, विरह का गीत। सतृष्ण – प्यासी, अतृप्त। दीठ – दृष्टि, निगाह।

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प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद द्वारा रंचित नाटक ‘स्कंदगुप्त’ के पाँचवें अंक के छठे दृश्य में देवसेना द्वारा गाए गीत आह। बेदना मिली विदाई !’ से ली गई हैं। इस गीत में देवसेना अपनी साधना के फल को प्रिय के चरणों में समर्पित कर अपने भावी जीवन के सभी सुखों से विदा लेते हुए अपनी भावनाओं को व्यक्त करती है।

व्याखया – देवसेना अपने हुद्य की तीव्र वेदना को स्वर प्रदान करते हुए कहती है कि स्वप्न थक गए परंतु मोह की मधुरता अभी भी बनी हुई है। आसक्ति नहीं मिट रही। इस समय भी न जाने किस पथिक ने ऊनींदी अलसाई-सी वाणी में घने वन-क्षेत्र में वृक्षों की छाया के नीचे विदा का मधुर गीत गाया है। मेरी साधना के फल की ओर न जाने कितने लोगों की प्यासी नजरें लगी हुई थी। मे सबकी दुष्टियों से उस फल को न जाने कब से बचाती फिर रही थी। फिर भी मेरी आशा पूरी नहीं हुई थी। इस प्रकार मैने जीवन में जो कुछ भी कमाया था, वह सब भी खो दिया है।

विशेष :

  1. देवसेना अपने जीवन में प्राप्त सब कुछ खो बैठी है। अतीत के क्षणों की स्मृति भी उसके लिए दुखद बन गई है।
  2. भाषा तत्सम-प्रधान और लाक्षणिक है।
  3. छायावादी दुखवाद मुखरित हुआ है।

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3 चळकर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे

शब्दार्थ : प्रलय – विनाश, मृत्यु। दुर्बल – कमज़ोर। पद – पैर। होड़ – शर्त, बाजी। थाती – अमानत।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘देवसेना का गीत’ नामक कविता से ली गई है। यह गीत कवि द्वारा रचित नाटक स्कंदगुप्त’ के पाँचवें अंक के छठे दृश्य में देवसेना गाती है। इस गीत में देवसेना के हुदय की समस्त वेदना मुखरित हो उठी है।

व्याख्या – देवसेना अपने मन की व्यथा को स्वर प्रदान करते हुए कहती है कि अब तो मेरे जीवन में केवल प्रलय ही शेष रह गई है। मेरे जीवन रूपी रथ पर प्रलय ही मेरे साथ चल रहा है। फिर भी मैं अपने दुर्बल पैरों से चलकर उसके साथ होड़ लगाकर चल रही हैं। देवसेना इस संसार के लोगों को संबोधित करते हुए कहती है कि हे निष्ठुर संसार के लोगो । अब मेंरे हुय की करुण रागिनी हाहाकार कर रही है। तुमने मुझे जो कुछ दिया है अपनी वह अमानत मुझसे वापस ले लो। इसे मैं नहीं सँभाल सकती। इसी के कारण मैं अपने मन की लग्जा की रक्षा भी न कर सकी और सबके सामने उसे खो बैठी।

Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary - Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Summary Vyakhya

विशेष :

  1. देवसेना इस विदाई की वेला में अत्यधिक संतृष्त हो उठती है और संसार से उसे जो कुछ मिला है वह उसे ही लौटा देना चाहती है।
  2. भाषा तत्सम-प्रधान एवं लाक्षणिक है।
  3. रूपक, अनुप्रास, पुनरक्तिप्रकाश अलंकार दर्शनीय हैं।
  4. छायावादी दुखवाद का सजीव अंकन है।
  5. गेयता का गुण विद्यमान है।

कार्नेलिया का गीत सप्रसंग व्याख्या

1 अरुण ! यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर-मंगल कु कुम सारा ॥
लघु सुरधनु-से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँढ किए, समझ नीड़, निज प्यारा।

शब्दार्थ : अरुण – लालिमा से युक्त। मधुमय – प्रेममय, रसमय। क्षितिज – जहाँ पृथ्वी एवं आकाश मिलते दिखाई देते हैं। तामरस – कमल। गर्भ विभा – भीतर की आभा (कांति)। लघु – छोटे। सुरधनु – इंद्रधनुष। समीर – वायु। खग – पक्षी। नीड्ड – घोंसला।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाद्य-पुस्तक की ‘कार्नेलिया का गीत’ शीर्षक कविता से अवतरित है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद हैं। यह पद्यावतरण उनके सुप्रसिद्ध नाटक ‘चंद्रगुप्त’ का एक गीत है। यूनान के सम्राट सिकंदर महान के उत्तराधिकारी सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारत-भूमि के सॉँद्य को देखकर मुण्ध हो जाती है और उसके मुख से बरबस यह गीत निकल पड़ता है। इस गीत में भारत की प्राकृतिक सुंदरता एवं सांस्कृतिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary - Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Summary Vyakhya

व्याख्या – भारत देश की प्रशंसा करते हुए कार्नेलिया कहती है कि हमारा देश लालिमा से युक्त तथा प्रेममय है। यह प्रेम एवं माधुर्य से परिपूर्ण है। भारतवर्ष में पहुँचकर सर्वथा अज्ञात एवं अपरिचित व्यक्ति को भी आश्रय मिलता है। यहाँ रस से युक्त कमल के फूलों के पराग कणों पर पेड़ों की सुंदर चोटियों से सूर्य किरणें नीचे आकर नाचती हुई दिखाई पड़ती हैं। प्रातःकाल सर्वत्र सूर्य की किरणें छा जाने से वृक्षों की सुंदर शाखाएँ लहलहाती दिखाई पड़ती है और कमल के फूलों के पराग-कोश प्रकाश की किरणों के कारण रस से परिपूर्ण दिखाई देने लगते हैं।

हरे-भरे वृक्षों पर गिरती हुई सूर्य की किरणें ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे चारों तरफ़ मंगलमय कुमकुम विखरा हुआ है जिसमें जीवन का संचार दिखाई देता है। समस्त प्रकृति सचेतन दिखाई पड़ती है। यहाँ के पक्षी इंद्रधनुष की भाँति रंग-बिरंगे पंखों को पसारे हुए शीतल पवन के सहारे इसे अपना प्यारा नीड़ समझकर इसी ओर मुख करके ठंडी-ठंडी हवा में रंग-बिंगे पक्षी उड़ते रहते हैं।

विशेष :

  1. भारत की प्रकृति असीम सँदूर्य से परिपूर्ण है। प्रकृति माधुर्य भाव से परिपूर्ण है।
  2. कवि की राष्ट्रीयता की भावना और सास्कृतिक गौरव की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है।
  3. ‘लघु सुरधनु-से’ में उपमा अलंकार है।
  4. संपूर्ण छंद संगीतात्मकता से परिपूर्ण है। प्रत्येक पद से संगीत की स्वर लहरी फूटती-सी दिखाई देती है।
  5. गीत में प्रतीकात्मकता है।’अरुणोदय’ ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है तथा पक्षियों का इस ओर उड़ने से पश्चिमी देशों के लोगों का भारत में आने का पता लगता है।
  6. लाभ्क्षणिकता का प्रयोग किया गया है।

Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary - Devsena Ka Geet, Karneliya Ka Geet Summary Vyakhya

2 बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकराती अनंत की-पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती टुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा॥

शब्दार्थ : हेम-कुंभ – सोने का घड़ा। मदिर – मस्त। रजनी – रात्रि।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कविता ‘कार्नेलिया का गीत’ से ली गई हैं। यह गीत कवि द्वारा रचित नाटक ‘ चंद्रगुप्त’ से लिया गया है। जिसमें कार्नेलिया ने भारत देश की महिमा का गुणगान किया है।

व्याख्या – इन पंक्तियों में कार्नेलिया भारत की प्राकृतिक सुषमा का गुणगान करते हुए कहती है कि यहाँ के लोगों की आँखों में वर्षा ऋतु के बादलों की तरह करुणा का जल भरा रहता है अर्थात यहाँ के जन-जन के नेत्रों में दूसरे के प्रति करुणा और स्नेह के भाव रहते हैं। जहाँ पर असीम आकाश में बहती हुई वायु की तरंगें किनारा पाकर टकराती हैं। जहाँ पर चारों ओर शीतल वायु बहती रहती है। प्रात:काल के समय रातभर जागते रहने के कारण तारे जब कुछ खुमारी में मस्त हुए से ऊँघने लगते हैं तो यह उषा रूपी सुंदरी स्वर्ण-घट से जन-जीवन पर सुख-साँदर्य और उत्साह बरसाने लगती है। तात्पर्य यह है कि उषा देवी प्रातःकाल सूर्य रूपी स्वर्णिम घट लेकर पश्चिमी सागर में से भरकर उड़ेलती है और चारों ओर सुख एवं प्रकाश का प्रसार करती है।

विशेष :

  1. भारतवर्ष के प्राकृतिक साँदर्य का वर्णन किया गया है।
  2. उषा और तारों का मानवीकरण किया गया है। वह हेम-कुंभ के माध्यम से सुख उड़ेलती है तथा ढुलकाती है।
  3. हेम-कुंभ में रूपक अलंकार है।
  4. भाषा, सहज, सरल, प्रवाहमय तथा नाटकीयता से पूर्ण है।