CBSE Class 12 Sanskrit सामान्यः संस्कृतसाहित्यपरिचयः गद्य-पद्य-नाटकादिविधानां मुख्यः विशेषताः

पद्य-विधायाः मुख्यः विशेषताः

प्रश्न:-
संस्कृत पद्य साहित्यस्य सरल परिचयः दीयताम् –
उत्तरः
संस्कृत पद्य साहित्य : एक परिचय
संस्कृत काव्य साहित्य के प्रमुखतया दो भेद हैं – दृश्य तथा श्रव्य। दृश्य काव्य के अन्तर्गत नाटक आते हैं तथा श्रव्य काव्य के तीन उपभेद हैं –
(i) पद्य काव्य
(ii) गद्य काव्य
(iii) चम्पू काव्य
पद्य काव्य के पुनः दो भेद हैं –

  1. महाकाव्य
  2. मुक्तक या गीतिकाव्य

2. महाकाव्य-भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने महाकाव्य के लक्षण निम्नलिखित बताए हैं –

  1. महाकाव्य की कथा सर्गों में विभाजित होती है।
  2. इसका नायक कोई देवता अथवा धीरोदात्त गुणों से युक्त कोई उच्च कुल में उत्पन्न क्षत्रिय होना चाहिए। एक ही वंश में उत्पन्न अनेक राजा भी इसके नायक हो सकते हैं।
  3. शांत, शृंगार या वीर में से कोई एक रस प्रधान होना चाहिए व अन्य रस सहायक होने चाहिए।
  4. कथानक कविकल्पनाप्रसूत नहीं अपितु ऐहतिहासिक होना चाहिए। अथवा किसी सज्जन व्यक्ति से सम्बन्ध रखने वाला होना चाहिए।
  5. आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वचन तथा मुख्य कथा की ओर संकेत करने वाला मंचलाचरण हो।
  6. सर्गों की संख्या आठ से अधिक हो। सर्गों का आकार न अधिक बड़ा हो न छोटा। प्रायः प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए है तथा सर्ग में छन्द परिवर्तन हो सकता है। प्रत्येक सर्ग के अन्त में आगे आने वाली कथा की सूचना होनी चाहिए है।
  7. इसमें प्रकृति वर्णन, युद्ध, यात्रा, विवाह, मुनि, स्वर्ग, नगर, पुत्र, अभ्युदय आदि का यथावसर वर्णन होना चाहिए।
  8. महाकाव्य का नामकरण कवि, कथावस्तु, नायक अथवा किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर होना चाहिए।

2. मुक्तक या गीतिकाव्य – जिन काव्यों में महाकाव्य के सभी लक्षण नहीं पाए जाते हैं उन्हें मुक्तक या गीतिकाव्य कहते हैं। गीतिकाव्य विषय या भावप्रधान होते हैं। इसमें समग्र मानवजीवन का चित्रण नहीं होता अपितु जीवन के किसी एक ही पक्ष का चित्रण रहता है। इनका आकार-प्रकार महाकाव्यों से छोटा होता है। प्रधानतः उनमें एक ही विषय वर्णित होता है-शृंगारिक, धार्मिक अथवा नैतिक। गीतिकाव्यों में लालित्य एवं माधुर्य का विशेष पुट दिखाई देता है क्योंकि इनमें व्यक्तिगत अनुभूतियों, भावनाओं व आदर्शों की प्रधानता रहती है।

प्रश्न: –
संस्कृताख्यायिकायाः परिचयं दातव्यम् –
उत्तरः
संस्कृत आख्यायिका-संस्कृत साहित्य में श्रव्य काव्य के गद्य तथा पद्य दो भेद किए गए हैं। फिर गद्य काव्य के भी दो भेद होते हैं –
(i) कथा
(ii) आख्यायिका

(i) आख्यायिका – गद्यकाव्य के उस भेद को आख्यायिका कहते हैं जिसमें किसी ऐतिहासिक पुरुष या घटना घटनाओं का वर्णन किया जाता है तथा इसमें नायक स्वयं वक्ता होता है। दूसरे शब्दों में इसे आत्मकथा भी कहा जा सकता है।
परन्तु संस्कृत साहित्य में कथा तथा आख्यायिका के भेद के लिए गद्य लेखकों ने विशेष नियमों में बँधकर गद्यरचना नहीं की। ऐसा प्रतीत होता है कि ये गद्य-काव्य के ही दो नाम-मात्र हैं।
संस्कृत आख्यायिका गद्य का प्रारम्भ ई.पू. चतुर्थ शताब्दी से माना जाता है। कात्यायन के वार्तिक में तथा पतंजलि (200 ई.पू.) के महाभाष्य में वासवदत्ता, सुमनोत्तरा तथा भैमरथी आख्यायिकाओं की चर्चा की गई है। आख्यायिका क्षेत्र में प्रसिद्धतम रचना बाणभट्ट कृत हर्षचरित है।

हर्षचरित आठ उच्छवासों में विभक्त है। आरम्भिक ढाई उच्छवासों में बाण ने अपने वंश का तथा अपना वृत्तान्त दिया है। राजा हर्षवर्धन की पैतृक राजधानी स्थाण्वीश्वर का वर्णन कर वे हर्षवर्धन के पूर्वजों का वर्णन करते हैं। इसके बाद राजा प्रभाकरवर्धन के पूरे जीवन का विवरण देकर वे राज्यवर्धन, हर्षवर्धन तथा राज्यश्री-इन तीनों भाई-बहन के जन्म का भी रोचक वृत्तान्त देते हैं। पञ्चम उच्छ्वास से इस परिवार के संकटों का प्रारम्भ होता है। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु, राज्यश्री का विधवा होना, राजवर्धन की हत्या, राज्यश्री का विन्ध्याटवी में पलायन, हर्षवर्धन द्वारा उसकी रक्षा। ये सभी घटनाएँ क्रमशः वर्णित हैं। दिवाकर मिश्र नामक बौद्ध संन्यासी के आश्रम में हर्षवर्धन व्रत लेता है कि दिग्विजय के बाद वह बौद्ध हो जाएगा। यहीं हर्षचरित का कथानक समाप्त हो जाता है।

प्रश्न: –
प्रमुख संस्कृतप्रहसनानां परिचयं संक्षेपेण दातव्यम् –
उत्तरः
संस्कृत प्रहसन – रूपक के दस भेदों में से प्रहसन भी एक भेद है। संस्कृत साहित्य के प्राचीन प्रहसन काव्य की दृष्टि से विशुद्ध हास्य के पोषक हैं तथा अश्लीलता की छाया से दूर हैं। प्राचीन प्रहसनों में वैदिक धर्म को न मानने वाले चार्वाक, जैन, बौद्ध, शैव, कापालिकों के मतों का उपहास किया गया है। इन प्रहसनों का उपयोग तत्कालीन समाज तथा धर्म की स्थिति जानने के लिए होता है।

संस्कृत के प्रमुख प्रहसन हैं –

  1. मत्तविलास-इसके लेखक महेन्द्रविक्रम वर्मा हैं। इसका समय सप्तम शताब्दी का प्रथमार्ध है। इस प्रहसन में कापालिक, शाक्यभिक्षु तथा पाशुपात का परस्पर संघर्ष बहुत संयत भाषा में दिखाया गया है।
  2. लटकमेलक-यह बहुत लोकप्रिय प्रहसन है। इसके लेखक कवि शंखधर हैं। इसकी रचना कान्यकुब्ज के महाराज गोविन्दचन्द्र (11वीं शताब्दी) के राज्यकाल में की गई थी। लटकमेलक शब्द का अर्थ है-धूतों का सम्मेलन।
  3. भगवदज्जुकीय-इसके लेखक व रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है तथापि इसके लेखक बोधायन व रचनाकाल 11वीं-12वीं शती के लगभग माना जाता है। इसमें सांख्य व योगदर्शन के अनेक विचारों, सिद्धान्तों का वर्णन है। गणिका के सन्दर्भ में वैद्य व शिष्य आदि के क्रियाकलापों में उच्चकोटि का हास्य प्राप्त होता है। यमदूत का पात्र बनाकर एक व्यक्ति के प्राणों का संचार दूसरे व्यक्ति में करवाकर हास्य उत्पन्न किया गया है।
  4. धूर्त समागम-इसके लेखक मिथिला के कर्नटवंशीय राजा हरिसिंह देव के आश्रित कवि ज्योतिरीश्वर कविशेखर थे। इनका समय 1300 ई. से 1325 ई. माना जाता है।
  5. कौतुकसर्वस्व-इसके लेखक गोपनीय चक्रवर्ती हैं। यह प्रहसन दुर्गापूजा के शारदीय महोत्सव के लिए लिखा गया था, जो अन्य प्रहसनों की अपेक्षा अधिक रोचक व कम अश्लील है।
  6. हास्य चूड़ामणि-इसके लेखक वत्सराज हैं। इसका प्रथम मंचन नीलकण्ठ यात्रा महोत्सव के अवसर पर किया गया था। इसमें समाज के यथार्थ रूप का और समाज में प्राप्त कुसंगतियों का बेबाक चित्र प्राप्त होता है। यह प्रहसन साहित्य में विशिष्ट स्थान रखता है।
  7. धूर्तनर्तक-इसके लेखक रामराज दीक्षित हैं तथा रचनाकाल सत्रहवीं शताब्दी है।

प्रश्नः –
संस्कृत गीतिकाव्यस्य संक्षिप्त परिचयः दीयताम्उत्तरम्- संस्कृत पद्यकाव्य के प्रमुखतया तीन भेद किए गए हैं –
(i) महाकाव्य
(ii) खण्डकाव्य
(iii) गीतिकाव्य
जिस काव्य में गीति अथवा गेयता का तत्त्व प्रधान हो, विषय की अपेक्षा विषयी प्रधान हो, कथावस्तु प्रधान न हो अपितु भाव, अनुभूति, व्यक्तिगत मानसिक अवस्था प्रधान हो वह काव्य गीतिकाव्य कहलाता है। इस काव्य में मानवजीवन की समग्रता का चित्रण नहीं होता अपितु जीवन के किसी एक पक्ष का ही गीत रूप में उद्घाटन किया जाता है। गीतिकाव्यों में प्रायः तीन विषयों का वर्णन रहता है।
(i) शृंगार
(ii) धर्म
(iii) नीति
परम विद्वान् वरदाचार्य का कहना है-“गीतिकाव्य काव्य का वह रूप है जो वाद्यों के साथ संगीतात्मक रूप में गाया जाता है। यह मानव हृदय का स्वाभाविक रूप है। गेयता इसका प्रधान गुण है। इसकी रचना अत्यन्त सरल गेय छन्दों में होती है।” संस्कृत साहित्य में गीतिकाव्य की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। ऋग्वेद के सूक्तों में, ऋचाओं में गीतिकाव्य के तत्त्व विद्यमान हैं। ऋग्वेद में उषा की स्तुति में गाई गई ऋचाओं में सरमा शुनि के सन्दर्भ में वर्णित मन्त्रों में गीतात्मकता, रागात्मकता के गुण स्पष्ट दर्शित होते हैं।

सामवेद तो संगीत का ही वेद माना जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें अनेक ऐसे सूक्त हैं जिनमें प्रकृति-चित्रण तथा व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। वैदिक काल के उपरान्त बौद्ध व जैन साहित्य में भी वैराग्य व प्राकृतिक दृश्यों के सन्दर्भ में सुन्दर गीतों की रचना प्राप्त होती है। लौकिक संस्कृत साहित्य में सर्वप्रथम नाम वाल्मीकीय रामायण का आता है। रामायण के अनेक प्रसंग उच्चकोटि के गीत हैं। महाकवि कालिदास तो गीत-सम्राट थे। उनका मेघदूत तथा ऋतुसंहार गीतिकाव्यों के आदर्श मापदण्ड हैं।

भर्तहरि के शतकत्रय-नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक तथा कवि अमरु का अमरुशतक, पण्डितराज जगन्नाथ का भामिनीविलास गीतिकाव्य के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखते हैं। इसकी भाषा व भाव अत्यन्त मधुर, सुन्दर तथा लालित्यपूर्ण है।
गीतिकाव्य के क्षेत्र में घोयी, घटकर्पर, हाल, विल्हण आदि कवियों का योगदान भी सराहनीय है। जयदेव रचित गीतगोविन्द के पद तो संगीत के क्षेत्र में अनूठा स्थान रखते हैं। उसके बिना संगीत का शिक्षण ही नहीं होता। इन पदों की लय-ताल व मधुर संगीतात्मक झंकार पाठक व श्रोता को आत्मविभोर कर देती हैं।

अभ्यासार्थ

प्रश्न –
मञ्जूषायाः सहायतया रिक्त स्थान पूर्तिः कर्तव्या – (1/2 x 10 = 5)

1. (i) ……………………नामके ग्रन्थे भाषा सम्बन्धी नियमाः वर्णिताः सन्ति। एषः मुनेः . रचनाऽस्ति।
(ii) …………………… भाषया एव हिन्दी भाषायाः विकासोऽभवत् तस्य प्रथमो लौकिको ग्रन्थः . रामायणम् अस्ति ।
(iii) संस्कृत नाटकेषु …………………… भाषायाः अपि प्रयोगोऽभवत्। इयं भाषा लौकिक ……………………विकासमलभत।
(iv) आरम्भिको बौद्धसाहित्यः …………………… भाषायाम् जैनसाहित्यश्च …………………… भाषायाम् लिखितौ वर्तेते।
(v) वैदिक-संस्कृतस्य लौकिक-संस्कृतस्य च सन्धिकाले वयं …………………… च सदृशौ ग्रन्थौ लभामहे।
मञ्जूषा – पालि, रामायणं, अष्टाध्यायी, प्राकृत, पाणिनेः, महाभारतम्, संस्कृतात्, अर्धमागधी प्राकृत, वाल्मीकि, संस्कृत।
उत्तरः
(i) अष्टाध्यायी, पाणिनेः
(ii) सस्कृत, वाल्मीकि
(iii) प्राकृत, संस्कृतात्
(iv) पालि, प्राकृत
(v) रामायण, महाभारतम्।

2. (i) …………………… मन्त्राणां पाठं कुर्वन् यज्ञे देवतानाम् आह्वान-कर्ता ……………………कथ्यते।
(ii) …………………… मन्त्राणां पाठं कुर्वन् यज्ञविधेः सम्यक् सम्पादन-कर्ता …………………… कथ्यते।
(iii) पद नामाख्यः ऋत्विक् यज्ञस्य निरीक्षणं कुर्वन् …………………… वेदेषु प्रवीणः भवति।
(iv) यज्ञेषु भक्तिभावनया …………………… संग्रहीतानाम् ऋचाणाम् पाठकर्ता ऋत्विक् …………………… कथ्यते।
(v) …………………… एव भारतीयस्य संगीतस्य उत्पत्तिरभवत् तथा धार्मिकी-सांस्कृतिकी च उभयोः दृष्ट्योः सामवेदस्य …………………… विकासोऽभवत्।
मञ्जूषा – ऋग्वेदस्य, सामवेदे, चतुर्यु, यजुर्वेदस्य, रागाणाम्, सामवेदात्, उद्गाता, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु।
उत्तरः
(i) ऋग्वेदस्य, होता
(ii) यजुर्वेदस्य, अध्वर्यु
(iii) बह्मा, चतुर्यु
(iv) सामवेदे, उद्गाता
(v) सामवेदात्, रागाणाम्

3. (i) दार्शनिक दृष्ट्याः महत्त्वपूर्णः … .. अध्यायः ईश्वरं जगन्नियामकं कथयति अयं लोके ……………………नाम्ना प्रसिद्धोऽस्ति।
(ii) ऋग्वेदे …………………… दासानाञ्च परस्पर-संघर्षस्य वर्णनमस्ति तत्र आर्याय दानी …………………… च कृपणः अकथयत्।
(iii) ब्राह्मण सृष्टि-व्याख्या एवं सांस्कृतिक महत्त्वस्य …………………… सम्मिलिताः सन्ति।
(iv) वेदमन्त्राणाम् …………………… परक व्याख्याकर्तारः ग्रन्थाः …………………… कथ्यन्ते।
(v) प्राचीन भारतीय …………………… मन्त्रं च ब्राह्मणं च मिलित्वा …………………… भवन्ति स्म।
मञ्जूषा – वेदाः, ब्राह्मणाः, विषय.:, ग्रन्थेषु, कर्मकाण्ड, परम्परानुसारेण, आर्याणाम्, ईशावास्योपनिषद्, दासेभ्यः, चत्वारिंशत्तमः।
उत्तरः
(i) चत्वारिंशत्तमः, ईशावास्योपनिषद्
(ii) आर्याणाम्, दासेभ्यः
(iii) ग्रन्थेषु, विषयाः
(iv) कर्मकाण्ड, ब्राह्मणाः
(v) परम्परानुसारेण, वेदाः।

4. (i) पुराणानां वर्गीकरणं सत्त्व …………. , ……….. च एतेषां त्रयाणाम् गुणानामाधारेणैव क्रियते।
(ii) पुराणेषु …………………… सामान्यजनान् …………………… शिक्षा प्राप्यते।
(iii) महाभारते …………………… च युद्धस्य वर्णनमस्ति।
(iv) गीता …………………… प्रेरणादायक : …………………… अस्ति।
(v) पुराण-पदस्य अर्थ …………………… वर्णनं …………………… आख्यानञ्चास्ति।
मञ्जूषा – दार्शनिकग्रन्थश्च, कर्त्तव्यस्य, रजस्, तमस्, प्राचीनं, पुरातनम्, कौरवाणाम्, प्राचीनमुदाहरणेन, धर्मस्य, पाण्डवानाम्।
उत्तरः
(i) रजस्, तमस्
(ii) प्राचीनमुदाहरणेन, धर्मस्य
(iii) कौरवाणाम्, पाण्डवानाम्
(iv) कर्त्तव्यस्य, दार्शनिकग्रन्थश्च
(v) प्राचीनं, पुरातनम्।

5. (i) …………………… संस्कृत भाषायां काव्यरचनायाः आरम्भणं …………………… ऋषेरभवत्।
(ii) …………………… नायक मत्वा वाल्मीकिः ऋषिः …………………… प्रस्तुतवान्।
(iii) महाकाव्याणामुद्देश्यरूपे धर्मः, …………………… , कामः …………………… च एतेषु किञ्चिद् एकं फलं भवति।
(iv) महाकाव्ये …………………… संख्या …………………… इत्यस्मात् अधिका भवेत्।
(v) ……………….. जीवनोपदेशानाम् च वर्णनं …………………… इति महाकाव्ये प्राप्यते।
मञ्जूषा – लौकिक, श्रीराम, मोक्षः, वाल्मीकि, रामायणं, अर्थः, अष्ट, बुद्धचरितम्, सर्गाणाम्, भगवतः बुद्धस्य।
उत्तरः
(i) लौकिक, वाल्मीकि
(ii) श्रीराम, रामायणं
(iii) अर्थः, मोक्षः
(iv) सर्गाणाम्, अष्ट
(v) भगवतः बुद्धस्य, बुद्धचरितम्।

6. (i) …………………… संस्कृत साहित्यस्य श्रेष्ठः …………………… ग्रन्थः वर्तते।
(ii) राजतरंगिणी ग्रन्थस्यकर्ता ……………………, …………………… देशस्य-वास्तव्यः आसीत्।
(iii) परिक्रिया नामके इतिहास ग्रन्थे एकस्यैव ……………………. नायकरूपे तस्य …………………… चित्रणं क्रियते। यथा-रामायणम्, पुराणम् आदि।
(iv) पुराकल्प नामके इतिहास ग्रन्थे …………………… वंशस्य अनेकेषां …………………… चरित्र-चित्रणं क्रियते। यथा–महाभारतम् आदि।
(v) विक्रमांकदेवचरितम् इति …………………… महाकाव्यस्य कर्ता काश्मीर देशीयः कविः …………………… आसीत्।
मञ्जूषा – बिल्हणः, कल्हणः, राजतरंगिणी, नृपस्य, ऐतिहासिकः, काश्मीर, चरित्र, एकस्य, ऐतिहासिकस्य, नृपाणाम्।
उत्तरः
(i) राजतरंगिणी, ऐतिहासिकः
(ii) कल्हणः, काश्मीर
(iii) नृपस्य, चरित्र
(iv) एकस्य, नृपाणाम्
(v) ऐतिहासिकस्य, बिल्हणः।

7. (i) कल्हणस्य रचनायाः …………………… नृपाणाम् …………………… कार्याणाम् वर्णनम् अस्ति।
(ii) सम्राट अकबरः …………………… अनुवादं ……………………. भाषायाम् अकारयत्।
(iii) महाकाव्य-परम्परायाः …………………… महाकाव्यं पद्मगुप्तेन (परिमलेन) रचितम् …………………… अस्ति।
(iv) महाकाव्यमतिरिच्य काव्य परम्परायां …………………… गीतिकाव्यं, …………………… स्तोत्रकाव्यञ्च सम्मिलितानि अकुर्वन्।
(v) कविवरः, बिल्हणः स्व …………………… वर्णनं …………………… नामके ऐतिहासिके महाकाव्ये अकरोत्।
मञ्जूषा – उद्देश्यम्, उत्तमानुत्तम, फारसी, भारतयात्रायाः, विक्रमांकदेव चरितम्, राजतरंगिण्याः, नवसाहसांकचरितम्, खण्डकाव्यं, सर्वप्रथम, मुक्तककाव्यं।
उत्तरः
(i) उद्देश्यम्, उत्तमानुत्तम
(ii) राजतरंगिण्याः , फारसी
(iii) सर्वप्रथम, नवसाहसांकचरितम्
(iv) खण्डकाव्यं, मुक्तकाव्यं
(v) भारतयात्रायाः, विक्रमांकदेवचरितम्।

8. (i) भर्तृहरिणा रचितं ……………………मुक्तककाव्यपरम्परायाः …………………… उदाहरणमस्ति।
(ii) …………………… नामके कालिदासस्य गीतिकाव्ये (खण्डकाव्ये) पूर्वमेघे पञ्चाशत् श्लोकाः …………………… सप्ततिः श्लोकाः सन्ति।
(iii) संस्कृतभाषायां …………………… अनुकरणे …………………… परम्परा अचलत्।
(iv) दैनन्दिन-प्रयुक्तायां भाषायाम् यदा छन्दानां …………….. लयानाम् च सीमाः न भवन्ति तदा तद् …………………… कथ्यते।
(v) रस …………………… दृष्ट्या दशकुमारचरितमद्भुता, चमत्कारपूर्णा, विस्मययुक्ता घटना कारणेन एकम् …………………… रसप्रधानं ग्रन्थमस्ति।
मञ्जूषा – सर्वोत्तमम्, दण्डेः, गद्यकाव्यं, बन्धनं, अद्भुतं, दूतकाव्य, उत्तरमेघे, शतकत्रयम्, मेघदूत, मेघदूतस्य।
उत्तरः
(i) शतकत्रयम्, सर्वोत्तमम्
(ii) मेघदूत, उत्तरमेघे
(iii) मेघदूतस्य, दूतकाव्य
(iv) बन्धनं, गद्यकाव्यं
(v) दण्डः, अद्भुतं।

9. (i) संस्कृत-ग्रन्थस्य आरम्भणं …………….’ ग्रन्थेभ्यः …………. च मन्यते।
(ii) संस्कृत ग्रन्थसाहित्ये सर्वाधिक : . प्रतिभाशाली च गद्यकार: . .. एवास्ति।
(iii) ‘वाणी बाणो बभूव’ इति सूक्त्यानुसारेण … ..संस्कृत भाषायाः अद्भुतः ………………… च कविः अमन्यता ।
(iv) श्री अम्बिकादत्त व्यासेन विरचितः .. . संस्कृत भाषायाः अनन्यतमः . .. अस्ति ।
(v) बाणभट्टः हर्षचरितस्य प्रस्तावनायां . कवीनां दर्पत्रोटिका .. अकथयत्।
मञ्जूषा – ब्राह्मणेभ्यः, उत्कृष्टः, बाणभट्टः, वैदिक, वासवदत्ता, रचना, प्रतिभासम्पन्नः, शिवराजविजयः, बाणः, उपन्यासः।
उत्तरः
(i) वैदिक, ब्राह्मणेभ्यः
(ii) उत्कृष्टः, बाणभट्टः
(iii) बाणः, प्रतिभारसम्पन्नः
(iv) शिवराजविजयः, उपन्यासः
(v) वासवदत्ताः, रचना।

10. (i) …………………… प्राचीनतमः कथासंग्रहः …………………… मन्यते।
(ii) कवेः …………………… आश्रयदाता बंगालदेशस्य नृपः …………………… आसीत्।
(iii) बृहत्कथायाः रचना …………………… भाषायाम् अकरोत्।
(iv) बौद्ध ………………. प्राचीनतमः ग्रन्थः …………………… शतकं वर्तते।
(v) ……………. पुत्रस्य कुणालस्य करुणकथा ………… कथा ग्रन्थे आगता।
(vi) …………………… सीरियायाः भाषायामनुवादो 570 तमे ईस्वीयाब्दे …………………… नामके ग्रन्थरूपेऽभवत्।
मञ्जूषा – कलिलह दिमनह, पंचतंत्रस्य, संसारस्य, नारायण पण्डितस्य, पञ्चतन्त्रः, पैशाची, गुणाढ्यः, अवदान, कथानाम्, दिव्यावदान, सम्राट अशोकस्य, धवलचन्द्रः।
उत्तरः
(i) संसारस्य, पञ्चतन्त्रः
(ii) नारायण पण्डितस्य, घवलचन्द्रः
(iii) गुणाढ्यः, पैशाची
(iv) कथानाम्, अवदान
(v) सम्राट अशोकस्य, दिव्यावदान
(vi) पंचतंत्रस्य, कलिलह दिमनह।

11. (i) जातकमाला नाम …………………… कथा साहित्ये …………………… स्थानं धारयति।
(ii) पुरुषपरीक्षा नाम …………………… श्रीमत: …………………… रचनाऽस्ति।
(iii) गद्य-पद्य मिश्रितं …………………… कविभिः …………………… कथ्यते।
(iv) चम्पूकाव्ये गद्यकाव्यम् इव सौन्दर्यं …………………… च भवतः एवं महाकाव्यम् इव …………………… श्लोकानि च भवन्ति।
(v) यशस्तिलकचम्पू काव्यस्य …………………… नायकः एवं …………………… धर्मस्य सिद्धान्ताः वर्णिताः।
(vi) …………………… भोजः …………………… इति चम्पूकाव्यं रचितवान्।
मञ्जूषा – नृपः, रामायणचम्पू, कथाग्रन्थः, काव्यम्, अन्यतमम्, ग्रन्थः, जैन, विद्यापतेः, लालित्यं, अलंकारं, यशोधरः नृपः, चम्पूकाव्यम्।
उत्तरः
(i) कथाग्रन्थः अन्यतमम्
(ii) ग्रन्थः, विद्यापतेः
(iii) काव्यम्, चम्पूकाव्यम्
(iv) लालित्यं, अलंकारं
(v) यशोधरः नृपः, जैन
(vi) नृपः, रामायणचम्पू।

12. (i) ‘…………………… नाटकं रम्यम् तेषु …………………… शकुन्तला’ इति उक्तिः जगत्प्रसिद्धा वर्तते।
(ii) मुनिः भरतः रूपकस्य …………………… भेदान् कथितवान् तेषु …………………… प्रकरणम् चैव अत्यधिक प्रचलिते लोकप्रिये च स्तः।
(iii) कवेः भासस्य रचना अभिषेक नाटके …………………… अभिषेकाणां सुग्रीवस्य, विभीषणस्य …………………… च वर्णनम् वर्तते।
(iv) …………………… भारतस्य शेक्सपियरः इति कथ्यते। तस्यानुसारम् नाटकस्य उद्देश्यं …………………… दर्पणस्य रूपे कार्यमस्ति।
(v) नाटककारः भवभूतिः कथयति यत् नाटकेषु …………………… प्रचुर प्रयोगं, मनोहराः, चेष्टाः, प्रेम्णः उपकारक साहसपूर्णं कृत्यं, रम्यवार्ता तथा …………………… एतानि तत्वानि दृष्टिगोचराणि भवन्ति।
(vi) उत्तररामचरिते …………………… छाया सीता, …………………… च एतानि दृश्यानि कवेः मौलिक प्रतिभायाः उदाहरणानि सन्ति ।
मञ्जूषा – चित्रदर्शनं, गर्भाकनाटक, कालिदासः, रसाणां, वाग्वैदग्ध्यम्, प्रकृतेः, रम्या, दश, काव्येषु, नाटकम्, श्रीरामस्य, त्रयाणाम्।
उत्तरः
(i) काव्येषु, रम्या
(ii) दश, नाटकम्
(iii) त्रयाणाम्, श्रीरामस्य
(iv) कालिदासः, प्रकृतेः
(v) रसाणां, वाग्वैदग्ध्यम्
(vi) चित्रदर्शनं, गभकिनाटकं।

13. (i) कौटिल्यस्य अपरं नाम …………………… अस्ति तस्य च राजनीति विषयकं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थम् …………………… अस्ति।
(ii) …………………… कात्यायनं …………………… च व्याकरणशास्त्रस्य मुनित्रयः कथ्यते।
(iii) पाणिनीय ………………. प्रवेशार्थम् वरदराजेन ……………….. इति व्याकरण-ग्रन्थः लिखितः।
(iv) भारतीयचिन्तनानुसारेण …………………… मनुष्यानुरूपम् आचरणमेव …………………… वर्तते।
(v) आयुर्वेद-क्षेत्रे चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता …………………… संहिता च …………………… नाम्ना प्रसिद्धाः सन्ति।
(vi) ज्योतिष विषये सर्वप्रथम-पुस्तकस्य नाम …………………… अस्ति तस्य च निर्देशम् बराहमिहिरस्य …………………… इत्यस्मिन् ग्रन्थे मिलति।
मञ्जूषा – सूर्यसिद्धान्तः, अष्टांगहृदय, बृहत्त्रयी, पंचसिद्धान्तिका, विष्णुगुप्तचाणक्यः, पाणिनिं, अर्थशास्त्रम्, पतंजलिं, लघुसिद्धान्तकौमुदी, व्याकरणे, मनुष्यस्य, धर्मः।
उत्तरः
(i) विष्णुगुप्तचाणक्यः, अर्थशास्त्रम्
(ii) पाणिनिं, पतंजलि
(iii) व्याकरणे, लघुसिद्धान्तकौमुदी
(iv)मनुष्यस्य, धर्मः
(v) अष्टांगहृदय, बृहत्त्रयी
(vi) सूर्यसिद्धान्तः, पञ्चसिद्धान्तिका।

गद्य-विधायाः मुख्य-विशेषताः

  1. गद्यकाव्यानां विधाद्वयम् अस्ति – (i) कथा (कविकल्पितम् आख्यानम् आधृत्य लिखिता), (ii) आख्यायिका (इतिहासप्रसिद्धकथानकम् आधृत्य लिखिता)। बाणस्य कादम्बरी कथा अस्ति, हर्षचरितम् आख्यायिका अस्ति।
  2. प्रायेण कथानकानां मूलस्रोतः लोककथा अस्ति।
  3. उत्कृष्ट-अलंकृत-भाषा-शैल्याः प्रयोगः यथा पद्यकाव्ये, तथैव गद्यकाव्ये अपि अस्ति। गद्यकाव्यं सम्भ्रान्त-उच्च-वर्गाणां कृते लिखितम्।
  4. ‘ओजगुणः, समासभूयस्त्वम् च गद्यस्य जीवितम्’ इति प्रसिद्धम् अस्ति।
  5. लघुता संस्कृतगद्यस्य वैशिष्ट्यम् अस्ति। अतः समासभूयस्त्वं स्वीकृतम्। चूर्णकशैल्याः अपि उदाहरणानि प्राप्यन्ते।
  6. भाववर्णनस्य अभिव्यक्तेः सामर्थ्य संस्कृतगद्ये वर्तते।
  7. नवोऽर्थः, अग्राम्या जातिः, अक्लिष्टः श्लेषः, स्फुटः रसः विकटाक्षरबन्धः-एते गुणाः बाणेन वर्णिताः, यथा –

नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्टः स्फुटोरसः।
विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नेमेकत्र दुर्लभम्॥

संस्कृतपद्यविधायाः मुख्याः विशेषताः
1. पद्यविधायाः भेदत्रयम् वर्तते –

  1. महाकाव्यम्
  2. खण्डकाव्यम्
  3. मुक्तककाव्यम्। गीतिकाव्यानि खण्डकाव्यस्य अन्तर्गतानि सन्ति।

2. महाकाव्यस्य वैशिष्ट्यम् –

  1. कथानकः सर्गबद्धः भवति।
  2. न्यूनतमाः अष्ट सर्गाः भवन्ति।
  3. एकस्मिन् सर्गे एकमेव छन्दो भवति। अन्तिमपद्ये छन्दः परिवर्तनं जायते।
  4. अग्रिम सर्गस्य कथासङ्केतः सर्गस्य अन्तिमपद्ये दीयते।
  5. महाकाव्यनाम प्रमुखघटनां नायकम् वाऽधिकृत्य भवति।
  6. महाकाव्यस्य आदौ नान्दी/मङ्गलश्लोकः भवति।
  7. प्रमुखो रसः शृंगारः, वीरः, शान्तो वा भवति।
  8. सूर्योदय-सूर्यास्त-चन्द्रोदय-रात्रि-प्रदोष-अन्धकार-मृगया-ऋतु-वन-पर्वत-समुद्र-स्वर्ग-यज्ञोदः वर्णनानि प्रायेण सन्ति। धर्मार्थकाममोक्षेषु एक फलं भवति। आदिकविना आदिकाव्यं रामायणं विरचितम्। तदनन्तरं कालिदास-अश्वघोष-भारवि-श्रीहर्ष-कुमारदास-नीलकण्ठ-मंख-हेमचन्द्र-कल्हण-विल्हण-पद्मगुप्तपरिमल,  इत्यादीनां महाकाव्यानि प्रसिद्धानि सन्ति। तेषु रघुवंशं सर्वश्रेष्ठं महाकाव्यं मन्यते।

3. संस्कृतगीतिकाव्यस्य वैशिष्टयम् –

  1. गीतिकाव्यम् खण्डकाव्यान्तर्गतं जायते।
  2. खण्डकाव्ये प्रायेण महाकाव्यस्य सर्वाणि तत्त्वानि भवन्ति किन्तु सर्गसङ्ख्या अष्टतः न्यूना भवति। तत्र सम्पूर्ण जीवनवर्णनम् अपि आवश्यक नास्ति।
  3. गीतिकाव्यस्य पद्यानि सङ्गीतमयानि भवन्ति। गेयता तत्र प्रमुखं वर्तते।
  4. अत्र नीतिः, शृङ्गारः, वैराग्यम्, धर्मः इत्यादिषु एकः एव विषयः प्रमुखः वर्तते। ऋतुसंहारः, मेघदूतम्, गीतगोविन्दम् इत्यादयः खण्डकाव्यानि सन्ति।

4. मुक्त-काव्यस्य वैशिष्टयम् –
मुक्तककाव्ये अलंकृता भाषा-शैली भवति। प्रायेण एकस्मिन् एव पद्ये कोऽपि भावः पूर्णरूपेण प्रबन्धात्मकरूपेण
व्याख्यायितो भवति। भर्तृहरि-अमरूकादीनां पद्यानि मुक्तककाव्यान्तर्गतानि आयन्ति।
संस्कृतनाट्यविधायाः प्रमुखाः विशेषताः

  1. संस्कृतरूपकाणि रसप्रधानानि भवन्ति।
  2. रूपकाणां दश भेदाः उपरूपकाणां च अष्टादश भेदाः सन्ति।
  3. रूपकेषु नाटकम् सर्वेषां भेदानां प्रकृतिः भवति।
  4. नाटकस्य पात्राणां सङ्ख्या निश्चिता नास्ति।
  5. नाटके आख्यानं प्रसिद्ध पौराणिक व भवति।
  6. पात्राणि लौकिकानि दिव्यानि दिव्यादिव्यानि वा भवन्ति।
  7. संस्कृत नाटकेषु कालस्य स्थानस्य च अन्वितिः न दृश्यते।
  8. संस्कृत नाटकानि प्रायेण सुखान्तानि सन्ति।
  9. नाटकस्य आरम्भे प्रस्तावना अन्ते च भरतवाक्यम् भवति।
  10. भरतवाक्ये देश-समाजस्य उन्नतेः शुभाशंसा क्रियते।
  11. नाटकेषु न्यूनतः पञ्च अङ्काः भवन्ति, अधिकतः दश अङ्गानि भवन्ति।
  12. एकः रसः शृङ्गारो, वीरः, करुणो वा प्रमुखः स्यात्, किन्तु नाटके विविधा रसाः भावाश्च भवन्ति।
  13. नाटकानां कथानक: प्रख्यातो भवति, नायकः धीरोदात्तः भवति।
  14. संवादेषु गद्य-पद्ययोः मिश्रणं भवति। भाषायां संस्कृतस्य, प्राकृतानां च प्रयोगो भवति।
  15. नाटकानां अभिनयः वाचिकः, सात्त्विकः, आह्यर्यः आदि भवति। पुरुषार्थानां सिद्धिः भवति। मनोरञ्जनं मुख्य-प्रयोजनं भवति।

संस्कृतप्रकरणानां मुख्याः विशेषताः –
रूपकाणाम् एकः भेदः प्रकरणं वर्तते। तत्र कथावस्तु कविकल्पितं भवति। मुख्य रसः शृङ्गारो भवति। ब्राह्मण-अमात्य-वैश्येषु कोऽपि एको नायकः भवति। नायकः धीरप्रशान्तः भवति। नायिका वेश्या, अन्य पात्राणि धूर्ताः, द्यूतकाराः, विटाः, चेटाः च सन्ति। नायिका कुलीना अपि वर्तते।

नीतिकथासाहित्यस्य वैशिष्टयम् –
संस्कृतवाङ्मये पञ्चतन्त्रम्, हितोपदेशम् आदि नीतिकथासाहित्यम् प्राप्यते। तत्र व्यवहारस्य राजनीतेः वा शिक्षणार्थम्
रोचकपूर्णाः साहसपूर्णाः कथासङ्ग्रहाः लिखिताः सन्ति। तेषु पशवः पक्षिणः अपि पात्राणि सन्ति। ते च अतीव नीतिपरकान् मित्रभेदः, मित्रप्राप्तिः, सन्धिः, विग्रहः, इत्यादिकान् विषयान् अधिकृत्य सरलसंस्कृतभाषया गद्ये पद्ये च भावाभिव्यक्तिंकुर्वन्ति। हितोपदेशम् बालकानां कृते अतीव रोचक: ग्रन्थः अस्ति। बौद्धसाहित्ये जातकेषु अपि नीतिकथाः विद्यन्ते।

चम्पूसाहित्यस्य वैशिष्टयम् –
चम्पूकाव्यम् गद्यपद्यमयम् भवति। अत्र उभयोः सन्तुलितं मिश्रणं भवति। गद्ये अपि पद्ये अपि विविधानाम् अलङ्काराणां प्रयोगो भवति। कथायाः अन्तरे अवान्तर-कथाः अपि चम्पूकाव्य रोचकतां वर्धयन्ति। नायकः देवता, गन्धर्वः, मानवः, खगो वा भवितुं शक्यते। अत्र शृङ्गार, वीर, शान्तेषु कोऽपि प्रधानरसः भवति। संवादात्मकं वर्णनं तु भवति परन्तु अभिनयो न भवति।

संस्कृत वाङ्मय की विविध विधाओं का परिचय – अङ्काः 5

प्रश्न 1.
संस्कृत गीतिकाव्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तरः
गीतिकाव्य काव्य का वह रूप है जो वाद्यों के साथ सङ्गीतात्मक रूप में गाया जा सकता है। यह मानव हृदय का स्वाभाविक रूप है। गेयता इसका प्रधान गुण है। इसकी रचना सरल गेय छन्दों में होती है। यह महाकाव्य से छोटा होता है। महाकाव्य में कम-से-कम आठ सर्ग आवश्यक हैं। गीतिकाव्य में ऐसी कोई शर्त नहीं होती है। गीतिकाव्य में जीवन का एकदेशीय पक्ष होता है। वह नीति,शृङ्गार, धर्म या वैराग्य किसी एक से संबद्ध हो सकता है। मानव जीवन के एक ही पक्ष का उद्घाटन होने पर गीतिकाव्य अपने सङ्गीतात्मक शब्द-चित्रों की विलक्षणता के कारण संस्कृत साहित्य का परम रमणीय अंग है जो सङ्गीतमय हृदय की कोमल वृत्तियों के साथ-साथ अनुभूतिजन्य चित्रों को चित्रित एवं अङ्कित करता है। संक्षिप्त इतिहास की दृष्टि से गीतिकाव्य का मूलस्रोत हमें ऋग्वेद की उषा के प्रति की गई स्तुतियों में मिलता है। सरमा का दूत प्रसंग भी इसका मूलाधार कहा जा सकता है।

अन्य में भी सुख-दुःख की अभिव्यक्ति मिश्रित ऋषियों की गीत्यात्मक भावनाएँ अनेक सूक्तों में मिलती हैं। लौकिक साहित्य में कालिदास के द्वारा ‘ऋतुसंहार’ तथा ‘मेघदूत’ की रचना की गई। मेघदूत में यक्ष मेघ को दूत बनाकर पत्नी के पास अपना सन्देश भेजता है। इस काव्य ने गीतिकाव्य को एक नई दिशा प्रदान की है। उसके बाद संस्कृत में दूतकाव्यों की परम्परा मिलती है। भर्तृहरि के शतकत्रय-‘नीतिशतक’, ‘वैराग्यशतक’ और शृगारशतक’ के साथ अमरुक का ‘अमरुक-शतक’ भी गीतिकाव्य के इतिहास में अपना अनुपम स्थान रखता है। विल्हण की ‘चौरसुरतपञ्चाशिका’ भी गीतिकाव्य का उल्लेखनीय ग्रंथ है। अश्वघोष ने भी एक स्तुतिपरक ग्रंथ की रचना की थी। इसके अतिरिक्त धोयी, घटकपर (22 पद्य मात्र) हाल की अद्भुत रचनाएँ संस्कृत गीतिकाव्य की अनूठी देन हैं। गोवर्धनाचार्य की ‘आर्यासप्तशती’ में 700 आर्या छन्दों में प्रेमी-प्रेमिकाओं की कामकेलियों का वर्णन है।

धोयी का ‘पवनदूत’ कालिदास के ‘मेघदूत’ से प्रेरित काव्य है। इसमें गन्धर्वकन्या पवन के माध्यम से राजा के पास प्रेम-सन्देश भेजती है। पण्डितराज जगन्नाथ की ‘गंगालहरी’ और ‘भामिनीविलास’ संस्कृत गीतिकाव्य की उत्कृष्ट रचनाओं में सम्मिलित की जाती हैं। अन्य में गीतिकाव्य की परम्परा में जयदेव के ‘गीतगोविन्द’ का स्थान आता है जो संस्कृत गीतिकाव्य साहित्य का एक उज्ज्वल रत्न है। इसकी रचना सर्वथा मौलिक है। इसमें श्लोक, गद्य और गीत के साथ संवादों की छटा देखने को मिलती है। इस तरह की शैली के सूत्रधार जयदेव ही हैं। स्तोत्र ग्रंथ भी गीतिकाव्य के महत्त्वपूर्ण भाग हैं।

प्रश्न 2.
संस्कृत नाट्यसाहित्य की विशेषताएँ बताइए।
उत्तरः
संस्कृत के नाटक रसप्रधान होते हैं। उनके पात्रों की संख्या नियत नहीं रहती। पात्र लौकिक, दिव्य तथा अर्धदिव्य भी होते हैं। संस्कृत नाटकों में समय और स्थान की अन्विति नहीं पाई जाती। संस्कृत नाटक प्रायः सुखान्त होते हैं। प्रत्येक नाटक का आरम्भ प्रस्तावना से होता है और अन्त में भरतवाक्य होता है। अङ्क की समाप्ति तक रंगमञ्च कभी खाली नहीं होता। भरतवाक्य में प्रधान पात्र देश या समाज की उन्नति की शुभकामना करता है। संस्कृत नाटकों में कम-से-कम पाँच अङ्क और अधिक-से-अधिक दस अङ्क होते हैं। संस्कृत रूपक दस प्रकार के और उपरूपक अट्ठारह प्रकार के होते हैं। रूपक की कुछ विधाओं में एकांकी रूपक होते हैं। संस्कृत नाटक में अनेक रस या भाव होते हैं, किन्तु उनमें प्रायः शृंगार, वीर या करुण रस प्रधान रस के रूप में होता है। नाटकों के कथानक प्रख्यात होते हैं।

अन्य विधाओं में कल्पित या मिश्रित कथानक भी होते हैं। संस्कृत के नाटकों में गद्य और पद्य का मिश्रण होता है। संस्कृत नाटक रस के माध्यम से श्रोताओं का मनोरञ्जन करते हैं। भाषा की दृष्टि से संस्कृत के साथ मध्यम श्रेणी तथा गौण श्रेणी के स्त्री पात्र प्रायः प्राकृत भाषा का प्रयोग करते हैं। नाटक का कथानक ऐतिहासिक और पौराणिक होता है, पर प्रकरण का कथानक कवि कल्पनाप्रसूत होता है। नाटक का नायक प्रायः राजकुल से सम्बन्धित व्यक्ति होता है, पर प्रकरण का नायक प्रायः ब्राह्मण होता है। नायक के साथ उसका विदूषक सहयोगी के रूप में होता है, जो प्रायः हास्यपूर्ण चाटुकारिता से युक्त उक्तियों के माध्यम से श्रोताओं का मनोरञ्जन करता है।

संस्कृत में अपवाद रूप में कर्णभार, उरुभंग तथा चण्डकौशिक आदि दुःखान्त नाटक हैं पर प्रायः अन्य सभी नाटक, यहाँ तक कि ‘उत्तररामचरित’ भी सुखान्त नाटक है। नाटक की रचना का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए होता है। ‘नाट्यशास्त्र’ में भरतमुनि कहते हैं कि नाटक दुःख, परिश्रम तथा शोकग्रस्त लोगों के विश्राम और मनोविनोद का साधन है। नाट्य को पञ्चम वेद के रूप में भी माना जाता है तथा चारों वेदों से कुछ-न-कुछ अंश लेकर नाट्य की उत्पत्ति की परम्परा का सिद्धांत भरतमुनि के समय से चला आ रहा है।

प्रश्न 3.
संस्कृत प्रकरणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तरः
प्रकरण रूपक के दस भेदों में नाटक के बाद आता है। यह नाटक से काफी मिलता-जुलता है। इसकी कथावस्तु प्रख्यात न होकर कविकल्पित होती है तथा इसमें शृंगार रस की प्रधानता होती है। नायक ब्राह्मण, अमात्य अथवा वैश्य और नायिका कहीं कुलीन, कहीं वेश्या और कहीं दोनों प्रकार की होती हैं। अस्तु संस्कृत के प्रसिद्ध प्रकरण निम्नलिखित हैं –

1. शारिपत्र-प्रकरण- यह अश्वघोष की रचना है। यह खण्डित अंश में ही उपलब्ध है। उपलब्ध प्रकरणों में यह सबसे प्राचीन प्रकरण है।
2. मृच्छकटिक- यह महाकवि शूद्रक की रचना है। इसका मूलाधार भास का चारुदत्त नाटक है। इसमें नायक चारुदत्त नाम का विप्र है जो दानशीलता के कारण एक धनी व्यक्ति के स्थान पर निर्धन बन गया है, पर उसने अपने गुणों को नहीं छोड़ा है। इसीलिए नगर की गणिका वसन्तसेना उसे चाहती है और राजा के साले शकार का प्रणय भी ठुकरा देती है। बदले की भावना से शकार चारुदत्त पर आभूषणों की चोरी का आरोप लगाकर उसे मृत्युदण्ड दिलाने का षड्यन्त्र रचता है, पर अन्त में वह असफल होता है तथा चारुदत्त व वसन्तसेना का सुखद मिलन हो जाता है।

चारुदत्त में मध्यमश्रेणी व निम्नवर्ग के पात्रों के वास्तविक स्वभाव का चित्र अङ्कित किया गया है जिसमें धूर्त, वेश्या, गाड़ीवान्, मालिश करनेवाला, पैर दबानेवाला, चोर, सन्यासी, पुलिस अधिकारी तथा न्यायाधीश आदि विविध प्रकार के पात्र हैं जो इस नाटक को बहुत ही रुचिकर बना देते है। कथोपकथन (संवाद) अत्यंत चुस्त हैं। कहीं करुण रस है तो कहीं शृंगार, कहीं बड़े-बड़े छन्द हैं तो कहीं नए-नए भाव, कहीं रमणीय कल्पनाएँ हैं तो कहीं नाट्यकला का प्रदर्शन। आधुनिक युग की रुचियों के यह अत्यंत अनुरूप है। यही कारण है कि विश्व की तेरह से अधिक भाषाओं में इसके अनुवाद उपलब्ध हैं।

3. मालतीमाधव- इसके लेखक भवभूति हैं। यह दस अङ्कों का प्रकरण है। इसमें मालती और माधव के प्रेम का
कथानक है जो बहुत ही रोचक बन पड़ा है। चरित्र-चित्रण यथार्थ है। मुख्य रस शृंगार है। प्रकृति चित्रण के पर्याप्त प्रसंग देखने को मिलते हैं। श्मशान-वर्णन और वन वर्णन उल्लेखनीय है। भाषा और शैली में सजीवता और सरलता है। शृंगार के साथ अन्य रसों के परिपाक का भी प्रयास किया गया है। लेखक कामशास्त्र और नाट्यशास्त्र के नियमों का विशेष पालन करते दिखाई देते हैं।

4. मल्लिकामारुत- यह उद्दण्ड कवि की रचना बताई जाती है। कुछ इसे दण्डी की रचना मानते हैं। इसका कथानक मालतीमाधव से मिलता-जुलता है।
5. कौमुदीमित्रानन्द- इसके लेखक हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र बताए जाते हैं। इसमें अभिनेयता के गुणों का अभाव
6. प्रबुद्धरौहिणेय- इसके लेखक जयप्रभसूरि के शिष्य रामभद्रमुनि हैं। इसका कथानक जैन-धर्म से संबंधित है।
7. मुद्रितकुमुदचन्द्र- इसके लेखक यशचन्द्र हैं। इसमें शास्त्रार्थ का वर्णन है। एक श्वेताम्बर मुनि दिगम्बर मुनि का शास्त्रार्थ के माध्यम से मुख बन्द कर देते हैं।

प्रश्न: 4.
संस्कृत प्रकरणों की मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तरः
काव्य के दो भेद-श्रव्य और दृश्य होते हैं, दृश्यकाव्य के दो भेद-रूपक और उपरूपक होते हैं। रूपक के पुनः दस
भेद होते हैं-नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अङ्क, वीथी और प्रहसन। प्रकरण का स्वरूप नाटक से बहुत मिलता-जुलता है। यहाँ नाटक से जिन-जिन बातों में प्रकरण भिन्न होता है, उन्हें दर्शाया जा रहा है; जैसे –

  1. प्रकरण की कथावस्तु कविकल्पित होती है।
  2. प्रकरण में प्रमुख रस शृंगार ही होता है यद्यपि बाद में कुछ प्रकरणों में शास्त्रार्थ आदि दिखाकर रस की प्रमुखता को गौण कर दिया गया है।
  3. नायक ब्राह्मण, अमात्य या वैश्य में से कोई एक होता है। मृच्छकटिक का नायक ब्राह्मण तथा मालतीमाधव का नायक अमात्य है।
  4. नायक धीरप्रशान्त प्रकृति का होता है।
  5. नायिका कहीं कुलीन, कहीं वेश्या तो कहीं दोनों तरह की होती हैं।
  6. जहाँ नायिका वेश्या होती है वहाँ पर धूर्त, द्यूतकार, विट, चेट आदि पात्र होते हैं।
  7. शेष विशेषताएँ अङ्क आदि की दृष्टि से नाटक के समान होती हैं। प्रसिद्ध प्रकरणों में मृच्छकटिक व मालतीमाधव
    के नाम उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न: 5
प्रहसन की मुख्य विशेषताएँ बताकर संस्कृत प्रहसनों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तरः
रूपक के दस भेदों में प्रहसन भी एक भेद है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसका प्रमुख रस हास्य होता है। कथानक
कविकल्पित होता है। केवल मुख और निर्वहण दो सन्धियाँ होती हैं। इसमें विष्कम्भक और प्रवेशक का प्रयोग नहीं होता। नायक की स्वरूप भिन्नता के कारण इसके दो भेद शुद्ध एवं संकीर्ण होते हैं। उपलब्ध प्रहसनों में विविध सम्प्रदायों के आडम्बर को हास्य का प्रमुख कारण बनाया गया है। कुछ प्रसिद्ध प्रहसन निम्नलिखित हैं

  1. मत्तविलास- लेखक महेन्द्रविक्रम वर्मा हैं। इसका समय सातवीं शताब्दी का है। इसमें एक तरुणी के साथ मदिरा पीने वाले कापालिक ही हँसी उड़ाई गई है, जो बौद्ध भिक्षु से झगड़ा करता है। कापालिक का कपाल एक पागल ने कुत्ते से छीना था।
  2. लटकमेलक- इसके लेखक कविराज शंखधर हैं। इसका समय बारहवीं शताब्दी है। इसमें शाक्त व दिगम्बर जैन के वेश्याओं से संबंध दिखाए गए हैं। अन्य पात्रों में नीरस पण्डित, दार्शनिक भिक्षु हैं।
  3. भगवदज्जुकीय- इसके लेखक बोधायन 12 वीं शताब्दी के हैं। आचार्य और शिष्य के मध्य लम्बा संवाद है। प्राणिका का बीच में हास्यजनक प्रसंग है।
  4. धर्तसमागम- इसके लेखक ज्योतिरीश्वर कविशेखर थे। समय 15वीं शताब्दी का है।
  5. हास्यार्णव- इसके लेखक जगदीश्वर हैं।
  6. कौतुकसर्वस्व- इसके लेखक गोपीनाथ चक्रवर्ती हैं।
  7. धर्तनाटक- इसके लेखक सामराज दीक्षित हैं। उपर्युक्त प्रहसनों में प्रथम तीन ही अधिक प्रसिद्ध हैं। मत्तविलास और भगवदज्जुकीय का अभिनय विद्यालयों में आजकल भी किया जाता है।

प्रश्न: 6
संस्कृत के पद्य साहित्य या गद्य साहित्य का वैशिष्ट्य लिखिए।
अथवा
संस्कृत के काव्य की मुख्य विशेषताएँ बताकर किन्हीं पाँच काव्यों/महाकाव्यों के नाम लिखिए।
उत्तरः
संस्कृत पद्य साहित्य/काव्य साहित्य की विशेषताएँ – संस्कृत में गद्य, पद्य तथा मिश्र (गद्य-पद्य मिश्रित) तीनों प्रकार का साहित्य मिलता है। दृश्य काव्य में तो गद्य-पद्य का मिश्रण होता ही है, पर श्रव्यकाव्य की चम्पू नामक विधा में भी गद्य-पद्य का मिश्रण होता है। इसके अतिरिक्त केवल पद्य की दृष्टि से जो काव्य उपलब्ध हैं उनके तीन भेद किए जा सकते हैं – (1) महाकाव्य (जिनके अंतर्गत ऐतिहासिक महाकाव्य भी आ जाते हैं – ऋतुसंहार, मेघदूत आदि), (2) खंडकाव्य (जिसके अंतर्गत गीतिकाव्य आ जाते हैं), (3) मुक्तक काव्य (जिसका प्रत्येक पद्य ही स्वतन्त्र रूप से एक काव्य कहलाता है। जैसे-भर्तृहरि के शतकत्रय, अमरुक का अमरुशतक।) महाकाव्य की अलग से कुछ विशेषताएँ है; जैसे –

  1. महाकाव्य के कथानक का सर्गों में विभाजन होता है। इसलिए इसे सर्गबद्ध रचना भी कहते हैं।
  2. महाकाव्य में सर्गों की संख्या कम-से-कम आठ होती है, अन्यथा यह खण्डकाव्य की श्रेणी में चला जाता है।
  3. प्रत्येक सर्ग में सामान्यतः एक ही छंद का प्रयोग होता है। अन्तिम पद्य में छन्द में परिवर्तन कर दिया जाता है।
  4. दूसरे सर्ग में आनेवाली कथा का संकेत पहले सर्ग के अन्त में दे दिया जाता है।
  5. महाकाव्य का नाम कथावस्तु की प्रमुख घटना या नायक के नाम पर होता है।
  6. महाकाव्य के आरम्भ में नान्दी होती है।
  7. प्रमुख रस शृंगार, वीर, शान्त में से कोई एक होता है।
  8. सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्रोदय, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, मृगया, ऋतुएँ, वन, पर्वत, समुद्र, स्वर्ग तथा यज्ञ आदि के वर्णन होते हैं। कथानक प्रायः प्रसिद्ध होता है। यदि ऐतिहासिक न हो तो किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से सम्बन्धित होता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि में से कोई एक फल के रूप में होता है। वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ को आदिकाव्य माना जाता है। उसके बाद कालिदास और अश्वघोष के महाकाव्य उल्लेखनीय हैं।

कालिदास के महाकाव्य – कुमारसम्भव व रघुवंश।
भारवि का महाकाव्य – किरातार्जुनीयम्।
श्रीहर्ष का महाकाव्य – नैषधचरित।
कुमारदास का महाकाव्य – जानकीहरण।
नीलकण्ठ का महाकाव्य – शिवलीलावर्णन।
मरव का महाकाव्य – श्रीकण्ठचरित।
हेमचन्द्र का महाकाव्य – कुमारपालचरित।
अश्वघोष के महाकाव्य – बुद्धचरित व सौन्दरानन्द।
माघ का महाकाव्य – शिशुपालवध।
भट्टि का महाकाव्य – भट्टिकाव्य (रावणवध)।
रत्नाकर का महाकाव्य – हरविजय।
शिवस्वामी का महाकाव्य- कप्फणाभ्युदय।
प्रवरसेन का महाकाव्य – सेतुबन्ध।

ऐतिहासिक महाकाव्य/काव्य –

बाण- हर्षचरित (गद्यकाव्य)
पद्मगुप्त परिमाल – नवसाहसांकचरित
विल्हण- विक्रमांकदेवचरित
जयानक – पृथ्वीराजविजय
सन्ध्याकरनन्दी – रामपालचरित
वाक्पतिराज – गउड़वहो (गौडवध) प्राकृत में
कल्हण – राजतरंगिणी
हेमचन्द्र – कुमारपालचरित
सोमेश्वरदत्त – कीर्तिकौमुदी
अरिसिंह – संस्कृतसंकीर्तन

संस्कृत गद्य का संक्षिप्त परिचय
अथवा
संस्कृत गद्यकाव्य की परम्परा
संस्कृत गद्य की परम्परा बहुत प्राचीन है। कृष्ण यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का छठा अंश गद्यमय है। ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों में वैदिक गद्य का उत्तरोत्तर विकास मिलता है। उपनिषदों में जाकर गद्य-शैली अधिक सरल और स्पष्ट दिखाई देती है तथा यहाँ अलंकार का प्रयोग भी आरम्भ हो जाता है। वेदांग की सूत्र-शैली संस्कृत गद्य की एक शास्त्रीय विधा है। बाद का गद्य साहित्य लौकिक तथा शास्त्रीय गद्य दोनों प्रकार का है। शास्त्रीय गद्य का नमूना चरकसंहिता में मिलता है। ‘सुश्रुतसंहिता’ आदि इसके अन्य उदाहरण हैं। गिरनार का शिलालेख, हरिषेण कृत ‘समुद्रगुप्त प्रशस्ति’ का गद्य भाग शिलालेखीय गद्य के नमूने प्रदर्शित करते हैं। गद्य के स्वर्णयुग के समय दण्डी, सुबन्धु और बाण के नाम उल्लेखनीय हैं। इनका समय छठी-सातवीं शताब्दी का है। दण्डी का ‘दशकुमारचरित’ एक आख्यायिका है। सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’ एक कथा है तथा बाण की ‘कादम्बरी’ (कथा) और ‘हर्षचरित’ (आख्यायिका) सर्वप्रसिद्ध हैं। परवर्ती गद्यकाव्यों के नाम निम्नलिखित हैं –

मन्दारमञ्जरी – विश्वेश्वर कृत।
शिवराजविजय – अम्बिकादत्त व्यास कृत।
प्रबन्धमंजरी – हृषीकेशभट्टाचार्य कृत।
कथामुक्तावली – पण्डित क्षमाराव कृत।

आधुनिक गद्य संस्कृत की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों के रूप में मिलता है। ‘सम्भावना संदेश’ पत्रिका ने समासरहित अनुपम शैली के गद्य का उदाहरण रखा है।

संस्कृत गद्यकाव्य की विशेषताएँ –
यद्यपि गद्य की अपेक्षा संस्कृत में पद्यकाव्य अधिक लिखा गया है, पर गद्यकाव्य भी अत्यंत उत्कृष्ट कोटि का है और इसका मूल स्रोत वैदिक गद्य तथा शास्त्रीय गद्य के रूप में उपलब्ध है। गद्य को कवियों की कसौटी माना जाता है। गद्य काव्य की प्रमुख रूप से दो विधाएँ हैं-कथा और आख्यायिका। कथा का कथानक कविकल्पित होता है तथा आख्यायिका का इतिहास प्रसिद्ध। संस्कृत गद्य काव्य की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. प्रायः संस्कृत गद्यकाव्यों के कथानकों का मूलस्रोत लोककथाएँ हैं।
  2. श्रेष्ठ तथा सम्भ्रान्त वर्ग के लिए लिखा जाने के कारण गद्यकाव्य में भी उत्कृष्ट व अलंकृत भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है।
  3. ओज गुण तथा समासों की अधिकता संस्कृत, गद्य का वैशिष्ट्य माना जाता है। पर पाञ्चाली रीति का गद्य विषयानुसार प्रसाद गुण तथा वस्तुपरक शैली से युक्त रहता है। दण्डी के काव्य में ललित पदावली मिलती है। सुबन्धु का गद्य प्रत्यक्षलेष गद्य माना गया है। ‘ओजः समास भूयस्त्वयेत गद्यस्य जीवितमे।’
  4. लाघव या लघुता संस्कृत गद्य की विशेषता है। इसी कारण संस्कृत गद्य में समासयुक्त शैली को अपनाया गया है। वैसे चूर्णक शैली व अल्पसमास के गद्य-प्रबन्ध भी संस्कृत में उपलब्ध हैं।
  5. संस्कृत गद्य में भाव-वर्णन की अभिव्यक्ति एक सशक्त गद्य को जन्म देने का कारण बनी है। दर्शनशास्त्र के दुरूह तथ्यों को भी अभिव्यक्त करने की क्षमता संस्कृत गद्य में उपलब्ध है।
  6. उत्तम संस्कृत गद्य की विशेषताएँ बाण के द्वारा निम्न पद्य में दर्शायी गई हैं

नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्टः स्फुटो रसः।
विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम्॥

नवीन अर्थ की मौलिकता भी हो, स्वभावोक्ति तथा शिष्ट पदावली भी हो, श्लेष तथा कष्टरहित पदावली का भी मेल हो, रस की अभिव्यक्ति स्पष्ट हो तथा समास के कारण विकटाक्षरबंध भी हो-ये सब गुण एक ही काव्य में हों, ऐसा होना अत्यन्त दुष्कर एवं दुर्लभ है, किन्तु बाण ने अपने ‘हर्षचरित’ व ‘कादम्बरी’ नामक गद्य काव्यों में इन सब गुणों
को एकत्र लाने का सफल प्रयास किया है।

संस्कृत गद्य के मुख्य भेदों का वर्णन –
संस्कृत गद्य के दो मुख्य भेद-कथा और आख्यायिका हैं। लक्षण ग्रंथों के आधार पर उनके जो आन्तरिक गुण हैं. वे इस प्रकार हैं

  1. कथा कविकल्पित होती है, पर आख्यायिका आत्मकथा के रूप में या प्रसिद्ध आख्यान के आधार पर होती है।
  2. कथा का वक्ता नायक स्वयं होता है अथवा अन्य कोई, पर आख्यायिका में ऐसा कोई नियम नहीं है।
  3. कथा में वक्त्र तथा अपरवक्त्र छन्दों का प्रयोग नहीं होता, पर आख्यायिका में इन छन्दों द्वारा भावी घटनाओं का सङ्केत होता है।
  4. कथा में केवल गद्य होता है, पर आख्यायिका में कहीं-कहीं पद्य भी मिल जाता है।
  5. कथा में कन्याहरण, कन्यालाभ, संग्राम, विप्रलम्भ और प्राकृतिक वर्णन अधिक होते हैं। आख्यायिका में ऐतिहासिक घटनाएँ ही प्रायः होती हैं।

संस्कृत के चम्पूकाव्यों का संक्षिप्त परिचय –
संस्कृत में गद्य तथा पद्य से युक्त काव्य को चम्पू कहते हैं। इन दोनों का सन्तुलित मिश्रण चम्पू काव्य का वैशिष्ट्य है। चम्पू एक प्रबन्धात्मक रचना है। इसका विभाजन स्तवकों, उच्छ्वासों तथा उल्लासों में होता है। इसमें कथा के अन्तर अवान्तर कथाएँ चलती हैं। इसका नायक देवता, गन्धर्व, मनुष्य या पक्षी आदि हो सकता है। इसमें शृंगार, वीर या शान्त रस प्रधान है। संवाद-शैली में होने पर भी यह नाटक की तरह अभिनीत नहीं होता।

प्रमुख चम्पू रचनाएँ –

  1. नलचम्पू-इसमें सात उच्छ्वास हैं। यह दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की कृति है। इसके लेखक त्रिविक्रमभट्ट हैं। इसमें नल और दमयन्ती की प्रेमकथा वर्णित है। इसमें श्लेष अलंकार का विशेष प्रयोग मिलता है।
  2. मदालसाचम्पू-इसके लेखक त्रिविक्रमभट्ट हैं। इसमें कुवलयाश्व और मदालसा की प्रेमकथा वर्णित है।
  3. यशस्तिलकचम्पू-लेखक जैन कवि सोमदेवसूरि हैं। इसमें जैन धर्म के सिद्धांतों को काव्य का चोला पहनाया गया है। इसका नायक राजा यशोधर है।
  4. रामायणचम्पू-इसके लेखक धारा नगरी के भोजराज (11वीं शताब्दी) हैं। रामायण की कथा का चम्पू शैली में वर्णन
  5. उदयसुन्दरीकथा-इसके लेखक कवि सोड्ढल हैं। इनका समय 1404 ईस्वी है। इसमें उदयसुंदरी तथा मलयवाहन के विवाह का प्रसङ्ग है।
  6. भारतचम्पू-इसके लेखक अनन्त भट्ट हैं। यह महाभारत की कथा से संबद्ध है।
  7. अमोघराघवचम्पू-लेखक दिवाकर हैं। यह रामायण कथा से संबद्ध है।
  8. आनन्दवृन्दावनचम्पू-लेखक कर्णपूर हैं। यह भगवत्कथा से संबद्ध है।
  9. पारिजातहरणचम्पू-इसके लेखक शेषश्रीकृष्ण हैं।
  10. वरदाम्बिकापरिणयचम्पू-इसकी लेखिका तिरुमलाम्बा हैं। अन्य चम्पुओं में ‘नीलकण्ठविजय’, ‘विश्वगुणादर्श’ तथा ‘गोपालनचम्पू’ उल्लेखनीय हैं।

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