Refer to the 12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana नाटक लिखने का व्याकरण to develop Hindi language and skills among the students.
CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana नाटक लिखने का व्याकरण
प्रश्न 1.
नाटक किसे कहते हैं ?
उत्तर :
भारतीय काव्य – शास्त्र में नाटक को दृश्य-काव्य माना गया है। इस आधार पर नाटक साहित्य की ऐसी विधा है, जो पाठ्य होने के साथ- साथ देखी भी जा सकती है। नाटक संवाद – प्रधान प्रस्तुति होती है। सफल एवं श्रेष्ठ नाटक वही माना जाता है जो अभिनय के साथ- साथ पठनीय भी होता है। अभिनेयता का गुण ही नाटक को साहित्य की अन्य विधाओं से अलग करता है। नाटक को संपूर्णता रंगमंच पर सफल हो जाने पर ही मिलती है। इसलिए कह सकते हैं कि नाटक साहित्य की वह विधा है, जिसे पढ़ा, सुना और देखा भी जा सकता है। एक निर्देशक द्वारा निर्देशित, विभिन्न अभिनेताओं द्वारा अभिनीत तथा अन्य रंगकर्मियों की सहायता से इसे दर्शकों के लिए रंगमंच पर प्रस्तुत किया जाता है।
प्रश्न 2.
नाटक में चित्रित पात्र कैसे होने चाहिए ?
उत्तर :
नाटककार नाटक के माध्यम से जीवन के किसी पक्ष – विशेष को प्रस्तुत करता है। इसलिए नाटक में चित्रित – पात्र भी जीवन से जुड़े हुए तथा अपने आस-पास के परिवेश के ही होने चाहिए। नाटकों में इस प्रकार के चरित्र नहीं प्रस्तुत किए जाने चाहिए जो सपाट, सतही अथवा एक विशेष टाइप के हों, जैसे हम अपनी जिंदगी जीते हैं। हम और हमारे पास के लोग अच्छे और बुरे भी हैं। उनमें से कुछ अच्छे-बुरे बन जाते हैं और बुरे अच्छे बन जाते हैं, उसी प्रकार से नाटक में चित्रित पात्र भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होने चाहिए। उनके चरित्र का विकास तथा बदलाव भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में होना चाहिए। अकस्मात अथवा अलौकिक रूप से पात्रों के चरित्र में हुए परिवर्तनों से दर्शक प्रभावित नहीं होता। इस प्रकार नाटक में चित्रित पात्र जीवंत तथा जीवन से जुड़े होने चाहिए।
प्रश्न 3.
नाटक की भाषा-शैली कैसी होनी चाहिए?
उत्तर :
नाटक की रचना मुख्य रूप से रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए की जाती है। इसलिए इसकी भाषा सहज, स्वाभाविक तथा प्रसंगानुकूल होनी चाहिए। यदि नाटक में चित्रित परिवेश पौराणिक है तो उसकी भाषा तत्सम प्रधान हो सकती है। इसी प्रकार से मुगलकालीन वातावरण में रचित नाटकों में उर्दू शब्दों का अधिक प्रयोग देखा जा सकता है। आधुनिक काल के नाटकों में खड़ी बोली के साथ- साथ लोक प्रचलित अंग्रेजी, उर्दू, अरबी-फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का सहज रूप से प्रयोग प्राप्त होता है। नाटक की भाषा कोई भी क्यों न हो यदि वह नाटक में चित्रित परिवेश के अनुसार है तो उसकी संप्रेषणीयता में किसी प्रकार की भी कोई कठिनाई नहीं आती है। दर्शक स्वयं को नाटक में चित्रित परिवेश के साथ ताल-मेल बैठाकर नाटक के संवादों का पूर्ण रसास्वादन कर लेता है।
प्रश्न 4.
नाटक और साहित्य की अन्य विधाओं में क्या अंतर है ? संक्षेप में बताइए।
उत्तर :
साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि अनेक विधाएँ आती हैं। नाटक भी इन्हीं विधाओं के समान साहित्य के अंतर्गत आता है किंतु नाटक में कुछ निजी विशेषताएँ होती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण वह साहित्य की अन्य विधाओं से अलग हो जाता है। नाटक को दृश्य-काव्य भी कहा जाता है। यही नाटक की सबसे प्रमुख विशेषता है। साहित्य की अन्य विधाएँ तो केवल लिखित रूप में हमारे सामने आती हैं।
वे सभी विधाएँ लिखित रूप में ही अपनी संपूर्णता को प्राप्त करती हैं। लेकिन नाटक अपने लिखित रूप में केवल एक आयामी होता है। जब नाटक का मंचन होता है और दर्शक उसका आनंद उठाते हैं तभी वह संपूर्णता को प्राप्त करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ साहित्य की अन्य विधाएँ केवल पढ़ने या सुनने तक ही सीमित है वहीं नाटक पढ़ने, सुनने के साथ-साथ देखने के तत्व को भी अपने भीतर समेटे रखता है। नाटक की दृश्यता ही उसे साहित्य की अन्य विधाओं से अलग करती है।
प्रश्न 5.
नाटक के विभिन्न तत्वों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
नाटक की रचना में विभिन्न तत्वों का योगदान होता है। इन तत्वों को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत देखा जा सकता है-
i. समय का बंधन – नाटक लिखते समय नाटककार को समय के बंधन का विशेष ध्यान रखना होता है। इनका नाटक की रचना पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। नाटककार को नाटक शुरू से लेकर अंत तक एक निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरा करना होता है। नाटककार को यह भी सोचना पड़ता है कि दर्शक कितनी देर तक किसी कहानी को अपने सामने घटित होते देख सकता है। नाटक में तीन अंक होते हैं और नाटककार को इन्हें भी समय को ध्यान में रखकर बाँटना पड़ता है। इस प्रकार नाटक में समय का बंधन अपनी विशेष भूमिका निभाता है।
ii. शब्द – नाटक का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व शब्द है। वैसे तो साहित्य की सभी विधाओं में ‘शब्द’ का महत्व होता है किंतु नाटक में तो शब्द को नाटक का शरीर कहा गया है। नाटक में नाटककार को संक्षिप्त और सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना पड़ता है। उसे ऐसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है जो दृश्य बनाने की क्षमता रखते हों। उसके शब्द शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा व्यंजना करने वाले अधिक होने चाहिए।
iii. कथ्य – नाटक के लिए कथ्य का भी अपना महत्व होता है। नाटक की पूरी कहानी को एक क्रम में समायोजित करना आवश्यक होता है। नाटककार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नाटक को मंच पर मंचित होना है। अतः उसे एक कुशल संपादक की भाँति नाटक की सभी घटनाओं को क्रम में रखना होता है। उसे पहले घटनाओं, स्थितियों और दृश्यों का चुनाव करना चाहिए और उन्हें इस क्रम में रखना चाहिए कि उसका नाटक शून्य से शिखर की ओर विकास करे। इस प्रकार कथ्य को सही ढंग से प्रस्तुत करने में ही नाटक की सफलता होती है।
iv. संवाद – नाटक में संवादों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संवादों के बिना नाटक की कल्पना नहीं की जा सकती है। संवाद ही नाटक में चरित्रों का विकास करते हैं और कथ्य को गतिशील बनाते हैं। संवाद जितने ज़्यादा सहज और स्वाभाविक होंगे उतना ही दर्शकों के मर्म को छुएँगे। नाटक के संवाद यदि स्थिति परिवेश की माँग के अनुसार स्वाभाविक हों तो वे दर्शकों तक सरलता से पहुँचते हैं और नाटक को सफल बनाते हैं।
v. शिल्प – नाटककार जिसके माध्यम से अपने कथ्य को व्यंजित करता है, उसे शिल्प कहा जाता है। नाटककार विभिन्न शिल्पों के माध्यम से अपने नाटक को प्रस्तुत कर सकता है। जैसे शास्त्रीय शिल्प, पारसी शिल्प, नुक्कड़ नाटक का शिल्प आदि। यदि नाटककार परंपरागत शिल्प को छोड़कर अपने कथ्य के अनुसार नए शिल्प का निर्माण करता है तो उसके नाटक के सफल होने की संभावना अधिक होती है।
प्रश्न 6.
नाटक में स्वीकार एवं अस्वीकार की अवधारणा से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
नाटक में स्वीकार के स्थान पर अस्वीकार का अधिक महत्व होता है। नाटक में स्वीकार तत्व के आ जाने से नाटक सशक्त हो जाता है। कोई भी दो चरित्र जब आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट पैदा होना स्वाभाविक है। रंगमंच में कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जाता। वर्तमान स्थिति के प्रति असंतुष्टि, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्वों के समावेश से ही नाटक सशक्त बनता है।
यही कारण है कि हमारे नाटककारों को राम की अपेक्षा रावण और प्रह्लाद की अपेक्षा हिरण्यकश्यप का चरित्र अधिक आकर्षित करता है। इसके विपरीत जब-जब किसी विचार, व्यवस्था या तात्कालिक समस्या को किसी नाटक में सहज स्वीकार किया गया है, वह नाटक अधिक सशक्त और लोगों के आकर्षण का केंद्र नहीं बन पाया है।
प्रश्न 7.
नाटक क्या होता है? यह कहानी से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर :
नाटक हिंदी साहित्य की एक विधा है। यह लिखित रूप से दृश्यता की ओर जाता है। जब नाटक का मंचन होता है तब जाकर उसमें संपूर्णता आती है। नाटक को तीन या उससे अधिक अंकों में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक अंक दृश्यों में विभाजित होता है। नाटक में पात्रों का चरित्र चित्रण सजीव रूप से किया जाता है।
नाटक और कहानी में अंतर
– कहानी का संबंध लेखक और पाठक से जुड़ा होता है और नाटक का संबंध लेखक, निर्देशक, पात्र, श्रोता, दर्शक तथा अन्य अनेक लोगों से जुड़ता है।
– कहानी को पढ़ा या सुना जा सकता है जबकि नाटक को देखा जाता है। इसे मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। नाटक में मंच सज्जा, प्रकाश व्यवस्था, अभिनय, संगीत आदि का समावेश होता है।
प्रश्न 8.
समय का बंधन सभी के लिए आवश्यक है। नाटक लिखने के समय ‘समय के बंधन’ का औचित्य स्थापित कीजिए।
उत्तर :
‘समय का बंधन’ नाटक की रचना प्रक्रिया पर पूरा प्रभाव डालता है। इसीलिए यह निश्चित किया जाता है कि नाटक निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरा होना चाहिए। नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है भले ही वह भूतकाल या भविष्यकाल की रचनाओं पर आधारित हों। काल चाहे कोई भी हो उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर वर्तमान काल में ही घटित होना होता है।
साहित्य की अन्य विधाओं, कहानी, उपन्यास या कविता को पढ़ते या सुनते हुए हम बीच में रूक सकते हैं और कुछ समय बाद वहीं से शुरू कर सकते हैं परंतु नाटक के साथ ऐसा करना संभव नहीं है नाटककार को इस बात का ध्यान भी रखना होता है कि दर्शक कितनी देर तक किसी घटना को घटित होते हुए देख सकते हैं। नाटककार से अपेक्षा की जाती है कि नाटक के प्रत्येक अंक की अवधि कम-से-कम 48 मिनट की हो यही समय का बंधन कहलाता है।
पाठ से संवाद –
प्रश्न 1.
‘नाटक की कहानी बेशक भूतकाल या भविष्यकाल से संबद्ध हो, तब भी उसे वर्तमान काल में ही घटित होना पड़ता है- इस धारणा के पीछे क्या कारण हो सकते हैं ?’
उत्तर :
नाटक को दृश्य काव्य माना जाता है। इसे दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक नाटक का एक निश्चित समय-सीमा में समाप्त होना भी आवश्यक है। साहित्य की अन्य विधाओं जैसे – कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध को पढ़ने के लिए हम अपनी सुविधा के अनुसार समय निकाल सकते हैं। एक ही कहानी को कई दिनों में थोड़ा-थोड़ा पढ़कर समाप्त कर सकते हैं परंतु नाटक तो दर्शकों को एक निश्चित समय-सीमा में एक ही स्थान पर देखना होता है। नाटककार अपने नाटक का कथ्य भूतकाल से ले अथवा भविष्यकाल से उसे उस नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है।
कैसा भी नाटक हो उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर और वर्तमान काल में ही घटित होना होता है। कोई भी पौराणिक अथवा ऐतिहासिक कथानक भी नाटक के रूप में हमारे सम्मुख, हमारी आँखों के सामने वर्तमान में ही घटित होता है। इसलिए नाटक के मंच-निर्देश वर्तमान काल में ही लिखे जाते हैं। इन्हीं कारणों से नाटक की कहानी बेशक भूतकाल या भविष्यकाल से संबद्ध हो उसे वर्तमान काल में ही घटित होना पड़ता है।
प्रश्न 2.
‘संवाद चाहे कितने भी तत्सम और क्लिष्ट भाषा में क्यों न लिखे गए हों। स्थिति और परिवेश की माँग के अनुसार यदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं तो उनके दर्शक तक संप्रेषित होने में कोई मुश्किल नहीं है’ क्या आप इससे सहमत हैं ? पक्ष या विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर :
हम इस कथन से सहमत हैं कि संवाद चाहे कितने भी तत्सम और क्लिष्ट भाषा में क्यों न लिखे गए हों, स्थिति और परिवेश की माँग के अनुसार यदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं तो उनके दर्शक तक संप्रेषित होने में कोई मुश्किल नहीं होती। इसका प्रमुख कारण यह है कि दर्शक नाटक देख रहा है।
वह मानसिक रूप से उस युग के परिवेश में पहुँच जाता है, जिससे संबंधित वह नाटक है। पौराणिक कथानकों पर आधारित नाटकों में तत्सम प्रधान शब्दावली को भी वह अभिनेताओं के अभिनय, हाव-भाव, संवाद बोलने के ढंग से समझ जाता है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के नाटकों में पिताश्री, भ्राताश्री, माताश्री आदि शब्दों का प्रयोग बच्चे-बच्चे को स्मरण हो गया था। इसी प्रकार से जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, सुरेंद्र वर्मा आदि के नाटकों में प्रयुक्त शब्दावली भी परिवेश के कारण सहज रूप से हृदयंगम हो जाती है।
प्रश्न 3.
समाचार-पत्र के किसी कहानीनुमा समाचार से नाटक की रचना करें।
उत्तर :
राँची दिनांक 24 मार्च – पैसों की तंगी के कारण रमेश ने अपनी पुत्री अलका का विवाह रोक दिया था कि उसके मित्र सुरेश ने उसकी बेटी के विवाह का सारा भार अपने ऊपर लेकर उसका विवाह निश्चित तिथि पर कराया। आज के युग में मित्रता की ऐसी मिसाल कम ही दिखाई देती है। सुरेश की इस पहल पर मोहल्ले वालों ने भी रमेश की सहायता की।
इस समाचार का नाट्य रूपांतरण निम्नलिखित होगा –
(स्थान घर का बरामदा। रमेश सिर पकड़कर बैठा है। उसकी पत्नी पूनम और पुत्री अलका भी उदास बैठे हैं।)
- पूनम – (रमेश को समझाते हुए) कोई बात नहीं, धंधे में नफा-नुकसान होता रहता है। अभी कुछ दिन की मोहलत माँग लेते हैं। लड़के वाले मान ही जाएँगे।
- रमेश – (रुँधे स्वर में) अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो यह विवाह रोकना ही होगा। (तभी वहाँ दौड़ता हुआ सुरेश आता है।)
- सुरेश – अरे ! रमेश ! मैं यह क्या सुन रहा हूँ ? अलका का विवाह नहीं होगा।
- रमेश – (मंद स्वर में) क्या करूँ – व्यापार में घाटा पड़ गया है। सब कुछ समाप्त हो गया।
- सुरेश – (आवेश में) क्या मैं मर गया हूँ ? अलका मेरी भी तो बेटी है। मैं करूँगा उसका विवाह।
- पूनम – इसे कहते हैं मित्र। दिल में कसक उठी तो आया भागा-भागा। (उसी समय वहाँ मुहल्ले के कुछ लोग आ जाते हैं।)
- एक बुजुर्ग – रमेश घबराओ मत अलका हम सबकी बेटी है। हम सब मिलकर इसका विवाह करेंगे। क्यों भाइयो ? (सब समवेत स्वर में हाँ करेंगे कहते हैं और परदा गिरता है।)
प्रश्न 4.
(क) अध्यापक और शिष्य के बीच गृह कार्य को लेकर पाँच-पाँच संवाद लिखिए।
(ख) एक घरेलू महिला एवं रिक्शा चालक को ध्यान में रखते हुए पाँच-पाँच संवाद लिखिए।
उत्तर :
(क) अध्यापक – रमेश, तुमने गृह-कार्य किया है ?
शिष्य – नहीं, मास्टर जी।
अध्यापक – क्यों नहीं किया ?
शिष्य – मैं किसी कारण से नहीं कर पाया।
अध्यापक – किस कारण से नहीं कर पाए ?
शिष्य – कल हमारे घर कुछ अतिथि आ गए थे।
अध्यापक – तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो ?
शिष्य – नहीं, मास्टर जी।
अध्यापक – कल गृह-कार्य ज़रूर करके लाना।
शिष्य – जी, मास्टर जी। ज़रूर करके आऊँगा।
(ख) घरेलू महिला – रिक्शा ! ओ रिक्शावाले !
रिक्शाचालक – हाँ! मेम साहब।
घरेलू महिला – अशोका कालोनी चलोगे ?
रिक्शाचालक – हाँ, चलूँगा।
घरेलू महिला – कितने पैसे लोगे ?
रिक्शाचालक – जी, बीस रुपए।
घरेलू महिला – बीस रुपए तो ज़्यादा हैं ?
रिक्शाचालक – क्या करें मेम साहब, महँगाई बहुत है।
घरेलू महिला – ठीक है, ठीक है। पंद्रह रुपए ले लेना।
रिक्शाचालक – चलो, मेम साहब, पंद्रह ही दे देना।