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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana आलेख लेखन

आलेख का लेख से गहरा नाता है। इन दोनों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है। आलेख को निबंध का ही रूप स्वीकार किया जाना चाहिए। ‘लेख’ के आगे लगा ‘आ’ उपसर्ग लेख के सम्यक और सर्वांगपूर्ण होने का द्योतक है। आलेख मन की जिज्ञासा को तृप्त करने की क्षमता रखता है। यह ताज़गी से युक्त भावों से समाहित होता है जिसमें निम्नलिखित गुण विद्यमान होने चाहिए –

  1. आलेख की भाषा सरल, सरस और भावपूर्ण होनी चाहिए।
  2. इसमें पुरानी जिज्ञासाओं को तृप्त करने व नई जिज्ञासाएँ जागृत करने की क्षमता होनी चाहिए।
  3. इसमें विचारों की प्रधानता होनी चाहिए।
  4. इसमें विश्लेषणात्मकता होनी चाहिए।
  5. यह महत्वपूर्ण विषयों, अवसरों, चरित्रों और व्यक्तियों से संबंधित होना चाहिए।
  6. इसमें किसी बात को बार-बार दोहराना नहीं चाहिए।
  7. यह नवीनता और ताज़गी से युक्त होना चाहिए।
  8. इसका आकार बहुत बड़ा नहीं होना चाहिए।

आलेख के महत्वपूर्ण उदाहरण –

1. क्या है तन-मन की थकान ?

आज के समय में हर उम्र और वर्ग के लोग यदि थके-हारे और दुखी हैं तो केवल अपनी इच्छाओं के कारण। इसी कारण वे ऊर्जा के नैसर्गिक स्रोत से दूर होते जा रहे हैं। खान-पान की बिगड़ी आदतें, आहार-विहार का असंयम, अव्यवस्थित कार्य-पद्धति और भावनात्मक जटिलताएँ उनकी जीवनी शक्ति को निचोड़कर उन्हें थकान की अधेरी खोह में धकेल रही हैं। हमारे शरीर में स्वाभाविक रूप से शक्ति सीमित मात्रा में ही होती है। इसी से हमारा जीवन चलता रहता है। हम तभी तक कार्य कर सकते हैं जब तक यह शक्ति विद्यमान रहती है। शक्ति की कमी के साथ हमारी कार्य कुशलता में गिरावट आने लगती है। इसी से हर कार्य में अरुचि होने लगती है। स्वभाव में चिड़चिड़ापन, खीझ उत्पन्न होते हैं और कभी-कभी सिरदर्द भी होने लगता है। ये सब थकान के लक्षण हैं। शारीरिक ऊर्जा का प्रमुख स्रोत आहार है और इसी से शरीर को प्रचुर मात्रा में ऊर्जा मिलती है।

थकान का शरीर से अधिक मन से गहरा संबंध होता है। कोई भी व्यक्ति काम की अधिकता से नहीं, बल्कि काम की नीरसता और उसे भार समझ कर करने से ज्यादा थकता है। साथ ही भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से उत्पन्न तनाव शरीर को थका देता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि तनाव, भय या उदासीनताजनक स्थिति में मस्तिष्क में ऐसे रसायनों का स्राव होता है, जो शरीर को दुर्बल बनाते हैं।

कोई भी व्यक्ति इस थकान को निम्नलिखित तरीके से दूर कर सकता है –

  1. उसे अपनी जीवन शैली को देखना चाहिए और तनाव के कारक तत्वों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। थकान का सबसे महत्वपूर्ण उपचार आराम है।
  2. कार्य को यदि हम अच्छे ढंग से करें तो तनाव एवं थकान से बच सकते हैं। रुचिकर काम करने से थकान कम महसूस होती है।
  3. कार्य करते समय बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर के लिए आराम कर लेना चाहिए।
  4. काम करते समय बीच-बीच में मनोरंजन की व्यवस्था भी थकान को कम कर देती है।
  5. कार्य की एकरसता को मिटाकर उसमें परिवर्तन करने से थकान दूर हो जाती है। शारीरिक कार्य के बाद मानसिक कार्य और मानसिक कार्य के बाद शारीरिक कार्य बदलते रहने से थकान दूर होती रहती है।
  6. छोटी-छोटी सफलताएँ मन को उत्साहित बनाए रखती हैं। कभी-कभी पिछली सफलताओं को याद करना भी थके-हारे मन को उत्साह से भरने का प्रभावशाली उपाय है।

थकान को मामूली समझ इसे नज़रअंदाज़ न करें। आराम और नींद के बाद भी यदि तन-मन का हल्कापन एवं ताज़गी आप महसूस नहीं कर रहे तो निश्चित है कि आप स्थाई थकान की गंभीर समस्या के शिकार हैं। सतर्क हो जाइए, क्योंकि यह थकान एनीमिया, थायरॉइड, मधुमेह, टी०बी० या अन्य किसी जीर्ण रोग का कारण बन सकता है। इनसे जीवनी-शक्ति का तेजी से ह्रास होता है। देर न करें और किसी डॉक्टर से उपचार कराएँ।

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2. प्राकृतिक सुंदरता से संपन्न पन्ना

मध्य प्रदेश का पन्ना नगर सारे भारतवर्ष में हीरे की खानों तथा मंदिरों के लिए जाना जाता है। विंध्याचल पर्वतों के प्राकृतिक सौंदर्य से संपन्न पन्ना, सतना रेलवे स्टेशन से लगभग साठ किलोमीटर और छतरपुर से भी लगभग षचास किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ है। मान्यता है कि पन्ना राज्य की नींव भगवान राम के पुत्र कुश के वंशजों ने रखी थी। महाराजा छत्रसाल ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। यह भारत में ‘प्रणामी संप्रदाय’ का एकमात्र तीर्थस्थल है। यहाँ के मंदिर बुंदेला शासकों की कलाप्रियता और सौंदर्य-प्रेम को प्रकट करते हैं।

पद्मावती देवी का मंदिर, बलदाऊजी मंदिर, जुगल किशोर मंदिर, राम-जानकी मंदिर, गोविंद देव मंदिर, गणेश मंदिर, जगदीश मंदिर एवं प्राणनाथ मंदिर इस नगर की शोभा एवं आस्था के आधार हैं। ये सभी मंदिर कला की दृष्टि से अति आकर्षक हैं। बलदाऊजी का मंदिर वृंदावन के रंगनाथ मंदिर और इंग्लैंड के कैथोलिक सेंट पॉल गिरजाघर का मिला-जुला रूप प्रकट करता है। कलापूर्ण मेहराबों तथा शीर्ष पर कमल एवं कलश से युक्त जगदीश स्वामी का मंदिर, रोमन तथा मुग़लकालीन स्थापत्य कला का संगम प्रतीत होता है।

पन्ना का तीर्थस्थल ‘प्रणामी मंदिर’ यहाँ के प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। इसकी प्रदक्षिणा में चारों ओर राधाकृष्ण की रास लीलाएँ रंगों की आकर्षक छटा बिखेरती चित्रित हैं। यह मंदिर मुग़लकाल और राजपूताना लोककला संस्कृति को प्रदर्शित करता प्रतीत होता है। गोल गुंबद तथा पंचायतन शैली में बने मंदिर के ऊपर गुंबदों में बने गवाक्ष आदि आकर्षक लगते हैं। प्रत्येक वर्ष शरद पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ पूरे भारत से ‘प्रणामी संप्रदाय’ के अनुयायी इकट्ठे होते हैं। गीत, संगीत, नृत्य के रंग से सराबोर इस मंदिर की सुंदरता पूर्णमासी की रात में और भी मोहक लगती है।

मंदिरों के अतिरिक्त इस नगर का आकर्षण यहाँ की विश्व प्रसिद्ध हीरा खदानें हैं। सत्रहवीं शताब्दी में यहाँ हीरा खनन का कार्य शुरू हुआ था। सागौन, शीशम, तेंदू, महुआ, चिरौंजी, बाँस जैसी प्राकृतिक वन-संपदा के धनी पन्ना की शोभा यहाँ के अनगिनत तालाबों से और बढ़ जाती है। पन्ना की ऐतिहासिक इमारत महेंद्र भवन, कलात्मक शिल्प का अद्भुत नमूना है। पन्ना का राजमहल, बृहस्पति कुंड, सुतीक्ष्ण आश्रम, केन अभयारण्य, पांडव फाल आदि यहाँ के उल्लेखनीय दर्शनीय स्थल हैं। विश्वप्रसिद्ध खजुराहो यहाँ से मात्र 50 किमी० की दूरी पर है। वास्तुकला, शिल्प कला, ऐतिहासिकता, पुरातत्व, प्राकृतिक सौंदर्य, धार्मिकता को अपने भीतर समेटे हुए पन्ना वास्तव में बेजोड़ है।

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3. भुला दो कड़वी यादों को

पिछले वर्ष पता नहीं किस बात पर नीरज और राजेश के बीच झगड़ा हो गया था। साल भर तक दोनों पड़ोसियों के बीच बोलचाल बंद थी। अभी कुछ दिनों पूर्व नीरज को हार्टअटैक आया और वे दर्द से तड़पने लगे। घर पर सिर्फ़ उनकी पत्नी थी। पति को बुरी तरह छटपटाते देख उसने पड़ोसी राजेश की घंटी बजाई और दरवाज़ा खोलते ही उनसे सहायता की पुकार की। एक पल तो राजेश को पुरानी कड़वी यादें ताज़ा हो आईं, जब दोनों में गाली-गलौच हुआ था। इस कारण तो किसी भी तरह की मदद करने का कोई प्रश्न भी नहीं था। उनका एक मन कह रहा था, ‘मरने दो उस घमंडी को।’ लेकिन तभी उनके भीतर छिपी इंसानियत जागी और उसने उन्हें धिक्कारा। वे शीघ्र पुरानी कड़वी यादें भुलाकर नीरज को अस्पताल ले गए। समय पर चिकित्सा मिल जाने से उनकी जान बच गई।

बहनों, मित्रों, सगे-संबंधियों आदि के बीच मतभेद होने स्वाभाविक हैं। इसी प्रकार पड़ोसियों के विचारों में भी भिन्नता हो सकती है। रिश्तेदारों, नातेदारों से भी विचारों का विरोधाभास हो सकता है। इस वजह से कभी-कभी कोई अप्रिय स्थिति बन सकती है। अब इन अप्रिय प्रसंगों की गाँठ बाँध लेना और सारी जिंदगी उन्हें न खोलने में कौन-सी बुद्धिमानी है ? पुरानी कड़वी बातों को भूलने में ही भलाई है। उन अच्छे प्रसंगों को याद क्यों नहीं करते, जो आपने सामने वाले के साथ कभी बिताए थे ? अच्छा सोचेंगे तो अच्छा ही होगा और गलत सोचेंगे, तो झगड़ा बढ़ता ही जाएगा।

समय सबसे बड़ी औषधि है, मरहम है, जो बड़े-से-बड़े घाव को भी भर देता है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति उन यादों का क्लेश पालकर बैठ जाए, तो वह चाहे कितने ही जन्म क्यों न ले ले, उसे भुला नहीं पाएगा, इसलिए कड़वी यादों को जितनी जल्दी हो सके, भुला देना ही अच्छा है। कड़वी यादें व्यक्ति को सामान्य जीवन नहीं जीने देतीं। वे उसे तनावग्रस्त बना देती हैं और यही तनाव सभी रोगों की जड़ बनता है।

कड़वी यादों से चिपके रहने में कोई तुक नहीं है। अतीत की कड़वी यादों को संजोकर रखने वाले अपना वर्तमान और भविष्य दोनों ही नष्ट कर लेते हैं। गड़े मुर्दों को उखाड़ने से कोई लाभ नहीं। संबंधों को तोड़ना जितना आसान है, उन्हें जोड़ना उतना ही मुश्किल।

यदि कुछ याद ही रखना है, तो मधुर यादों को संजोकर रखें जो आपको सुखद अनुभूति देंगी। उन अच्छे पलों को याद कीजिए, जो आपने और सामने वाले ने मिलकर जिए हैं। आप पाएँगे कि जीवन वास्तव में बहुत सुंदर है जिसे हमने अपनी कुंठाओं से स्वयं ही बदसूरत बना रखा था। भुला दो पुरानी बातें और ले चलो स्वयं को सुंदर कल की ओर।

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4. आत्मविश्वास बढ़ाइए

हममें से अधिकांश लोग कुछ नया करने की इच्छा रखते हैं पर उसे कर नहीं पाते। तब मन में यही बात आती है कि कितना अच्छा होता कि दुनिया के सफल लोगों की तरह हम भी आत्मविश्वास से भरे हुए होते। अधिकतर लोगों को आत्मविश्वास उनके पारिवारिक और सामाजिक संबंधों से ही प्राप्त होता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम अपने संबंधों को सकारात्मक बनाएँ।

हमारे जीवन में संबंधों की शुरुआत माता-पिता से होती है और हमारे संबंधों की असफलता और अपूर्णता की जड़ें भी वहीं से शुरू होती हैं। बड़े होकर हम सभी का यह दायित्व बनता है कि हम अपने व्यवहार का आकलन करें। यही नहीं, अपने आसपास के उन लोगों के जीवन और व्यवहार को भी परिपक्व दृष्टिकोण से देखें, जिनसे हमें बचपन में या बाद में भी समस्याएँ मिली हों। इससे न हमें सिर्फ़ दूसरों को समझने का मौका मिलेगा, बल्कि अपने आपको भी हम बचकानी भावुकता से उबार सकते हैं।

पारिवारिक समस्याओं से गुज़रना तो एक ऐसा कटु अनुभव है, जिसे कोई भी पसंद नहीं करता। पर इन समस्याओं से बाहर निकलने के बाद हर व्यक्ति स्वयं को अधिक मज़बूत और आत्मविश्वास से पूर्ण महसूस करता है। यह ज़रूरी है कि हम समस्याओं की अनदेखी न करें। अपना प्रतिरोध या गुस्सा ज़रूर व्यक्त करें।

अधिकांश लोग अपने सामाजिक संबंधों को महत्व नहीं देते। लेकिन हमारे सामाजिक संबंध न सिर्फ हमें सामाजिक सुरक्षा देकर हमारा आत्मविश्वास बढ़ाते हैं, बल्कि हमें हमारी पहचान भी देते हैं और यह सामाजिक पहचान हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाती है। अपने भीतर आत्मविश्वास पैदा करने के लिए अपनी सामाजिक भूमिका को पहचानिए।

हम जब अपनी परेशानियों में अकेले होते हैं, तो बुरी तरह टूट जाते हैं। क्योंकि तब हमें दुनिया में सिर्फ अपनी ही परेशानी दिखलाई देती है। लगता है, बाकी सारी दुनिया मज़े कर रही है। जब हम अपने ध्यान को बाहरी दुनिया पर जमा नहीं पाते, तो घूम-फिरकर हमारा ध्यान हमारी समस्या को कुरेदने लगता है। घर तक ही सीमित रहने वाली पढ़ी-लिखी शहरी महिलाओं की यह प्रमुख समस्या है। इससे उबरने के लिए ज़रूरी है कि वे अच्छे मित्र बनाएँ, जिनसे कि उन्हें अपनी समस्याओं से बाहर निकलकर बाहरी दुनिया की व्यापक समस्याओं को देखने का भी मौका मिले। जब हम दुनिया की अपने से बड़ी समस्याओं को देखेंगे तो हमारे मन में व्यापकता के भाव उत्पन्न होंगे। इससे हमारा आत्मविश्वास बढ़ेगा, जो हमें हर कठिन काम को भी करने के लिए प्रेरित करेगा।

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5. जिम कार्बेट नेशनल पार्क

हिमालय के पहाड़ और उससे जुड़े तराई के क्षेत्र जैव-विविधता के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। कोलाहल से दूर घने जंगलों में स्वतंत्र विचरण करते जंगली जानवरों को देखना सभी को अच्छा लगता है, लेकिन जानवरों को जंगली वातावरण में देखना मुश्किल और जोखिम भरा कार्य है। जानवरों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण तथा उनकी संख्या को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही हिमालय की तराई से लगे उत्तराखंड के पौढ़ी – गढ़वाल और नैनीताल जिले में भारतीय उपमहाद्वीप के पहले राष्ट्रीय अभयारण्य की स्थापना की गई।

देश के लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैले 18 राष्ट्रीय पार्कों में सबसे चर्चित और विस्तृत इतिहास इस अभयारण्य का रहा है। यद्यपि इसका क्षेत्रफल अन्य कई राष्ट्रीय पार्कों से कम है, परंतु जैव-विविधता तथा उसके संरक्षण में जिम कार्बेट नेशनल पार्क बेहतर ही सिद्ध होता है। यहाँ की विविधतापूर्ण सुंदरता हर आने वाले पर्यटक का मन मोह लेती है। साल वृक्ष से घिरे लंबे-लंबे वनपथ और हरे-भरे घास के विस्तृत मैदान इसके प्राकृतिक सौंदर्य में चार चाँद लगा देते हैं।

समुद्र तल से 400 से 1100 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस पार्क का क्षेत्रफल 521 वर्ग किमी० में फैला है। इस पार्क का दो तिहाई क्षेत्र पौड़ी गढ़वाल ज़िले में तथा एक तिहाई क्षेत्र नैनीताल जिले में है। यह पार्क उत्तर में कांडा, मैदावन, चिमटाखाल तक, दक्षिण में ढेला, लालढांग, धारा झरना तक, पूर्व में मोहान, गर्जिया, टिकाला, रामनगर तक तथा पश्चिम में कालगढ़, तुमड़िया और चिपलघाट तक फैला हुआ है। रिज़र्व का पुराना क्षेत्रफल वाला भू-भाग सम्मिलित कर सीमा को आगे तक बढ़ाया गया है। इस पार्क का प्रमुख स्थान ढिकाला मैदानी क्षेत्र है, जबकि सबसे ऊँचाई वाला स्थान कांडा है। गरमियों में जब पार्क क्षेत्र के मैदानी हिस्सों में गरमी का प्रकोप रहता है, तब कांडा में ठंड की सिरहन दौड़ती है।

इस पार्क का इतिहास बताता है कि अंग्रेज़ों ने इन जंगलों की खोज सन 1820 में की थी। इस खोज के साथ ही उन्होंने अपने देश में पाए जाने वाले साल के वृक्ष यहाँ लगाने शुरू किए। भारी मात्रा में यहाँ लगे विविध पेड़ों को काटकर साल के पेड़ लगाए गए। इन पेड़ों के लगने से यहाँ के प्राकृतिक वन्य-जीवन और जानवर बहुत ज्यादा प्रभावित हुए। पहले इसका नाम ‘द हैली नेशनल पार्क’ था, पर आज़ादी के पश्चात् इसका नाम यहाँ बहने वाली नदी के नाम पर ‘द रामगंगा नेशनल पार्क’ कर दिया गया।

इस पार्क की स्थापना में प्रसिद्ध अंग्रेज़ शिकारी जिम कार्बेट की विशेष भूमिका रही और पार्क की स्थापना में उन्होंने एक सलाहकार के रूप में योगदान दिया था। वह अचूक निशानेबाज और प्रकृति-प्रेमी थे, जिनकी शिकार-संबंधी कहानियाँ आज भी समूचे उत्तराखंड में दंतकथाओं की तरह प्रचलित हैं। सन् 1657 में जिम कार्बेट की मृत्यु के बाद इस पार्क का नाम उन्हीं की याद में ‘जिम कार्बेट नेशनल पार्क’ पड़ा और तब से यह इसी नाम से जाना जाता है। वर्षा प्रारंभ होते ही यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता अपने वास्तविक रूप में लौटने लगती है। यहाँ जंगली जीवन पर्याप्त मात्रा में है जिसे इस क्षेत्र की गोद में रहकर देखना अपने आप में ही रोमांचकारी है। प्रतिवर्ष लोग बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं और कभी न भूलने वाले अनुभव प्राप्त करते हैं।

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6. प्रातः जागिए और स्वस्थ रहिए

मानव के जीवन में स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है। स्वस्थ रहने के लिए मानव को प्राकृतिक नियमों के साथ समन्वय बनाए रखना आवश्यक है। इन्हीं प्राकृतिक समन्वयों में से एक है प्रातः जागना। स्वस्थ रहने के लिए सुबह सवेरे जागना सबसे अच्छा उपाय है। प्रातः काल जगने के महत्व को इसी से समझा जा सकता है कि विश्व के जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे सभी नियमित रूप प्रातः काल से जागते रहे हैं।

भारतीय सनातन संस्कृति में भी सूर्योदय से पूर्व उठने को श्रेष्ठ बताया गया है। सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटे पूर्व तक का समय ‘ब्रह्ममुहूर्त’ माना जाता है। यह वह समय होता है जब पूर्व दिशा में सूर्य की हल्की-हल्की लालिमा दिखाई देने लगती है और दो-चार ग्रह-नक्षत्र भी दिखाई देते रहते हैं। इस बेला को ही ‘अमृत बेला’ कहा गया है। इस अमृत बेला में जागने से वास्तव में यह बेला स्वास्थ्य के लिए अमृत का काम करती है।

इस अमृत बेला में ही पशु-पक्षी आदि संसार के समस्त जीव-जंतु जागकर इस अमृत बेला के वास्तविक आनंद का अनुभव करते हैं। ऐसी दशा में यदि इस संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव आलस्य एवं प्रमादवश सोता हुआ प्रकृति के इस अनमोल उपहार की अवहेलना कर दे तो उसके लिए इससे अधिक लज्जा की बात क्या हो सकती है। सूर्योदय के बाद तक जो लोग सोते रहते हैं, उनकी बुद्धि और इंद्रियाँ मंद पड़ जाती हैं। रोम-रोम में आलस्य भर जाता है एवं मुख की आभा क्षीण हो जाती है। प्रातः काल देर से जगने वाला प्राणी सदैव सुस्त ही बना रहता है।

कहानी में कहा गया है कि जिनके शरीर एवं वस्त्र मैले रहते हैं, दाँतों पर मैल जमा रहता है, बहुत अधिक भोजन करते हैं, सदा कठोर वचन बोलते हैं तथा जो सूर्य के उदय एवं अस्त के समय सोते हैं, वे महादरिद्र होते हैं, यहाँ तक कि चाहे विष्णु भगवान ही क्यों न हों, किंतु उनको भी लक्ष्मी छोड़ जाती हैं।

सूर्योदय तक सोते रहने की हानिकारक आदत का त्याग कर प्रातःकाल जागना चाहिए।

ब्रह्म मुहूर्त में उठकर धर्म-अर्थ का चिंतन करना चाहिए। प्रथम धर्म का चिंतन करना चाहिए यानी अपने मन में ईश्वर का ध्यान करके यह निश्चय करना चाहिए कि हमारे साथ से दिनभर संपूर्ण कार्य धर्मपूर्वक हो। अर्थ के चिंतन से तात्पर्य यह है कि हम दिनभर उद्योग कर ईमानदारी के साथ धनोपार्जन करें, जिससे स्वयं सुखी रहें एवं परोपकार भी कर सकें। शरीर के कष्ट एवं उनके कारणों का चिंतन इसलिए करना चाहिए ताकि स्वस्थ रहा जा सके, क्योंकि आरोग्यता ही सब धर्मों का मूल है। हमें चाहिए कि तरीके के साथ समन्वय स्थापित कर उषाकाल में जागकर स्वास्थ्य लाभ उठाकर दिनभर निर्विघ्न रूप से अपने कार्यों को संपन्न करें।

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7. स्वास्थ्य जीवन

यदि किसी से पूछा जाए कि क्या वह जीवित है तो वह प्रश्न पूछने वाले को पागल समझेगा। आम धारणा है कि जब तक हाथ-पाँव चलते हैं, साँसें चलती हैं तब तक जीवन है। निश्चय ही जीवन तो है पर इस जीवन में वह आनंद कहाँ, जिसके लिए आप जी रहे हैं। एक-दो प्रतिशत लोग ही मान पाएँगे कि वे जीवन का आनंद और सच्चा सुख भोग रहे हैं।

मनुष्य विधाता की सर्वोत्तम रचना है, सभी जड़-चेतन का नियंत्रक है। जो सुख मानव जीवन में संभव है, वह किसी आम जीवन में कठिन है, इसीलिए ऋषि-मुनियों ने मानव जीव को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना है। सामान्य मनुष्यों का जीवन में कम से कम कष्टों के साथ अधिकाधिक सुख प्राप्ति का लक्ष्य होता है। सुख की मृग मरीचिका ऐसा मायाजाल है, जिसमें मनुष्य निकल नहीं पाता। जैसे मकड़ी शिकार पकड़ने के लिए जाल बुनती है और वह जाल फैलते फैलते मकड़ी का जीवन ले लेता है।

वे करोड़ों लोग, जिन्हें जीवन उबाऊ और थकाने वाला लगता है, कस्तव में वे जीने योग्य नहीं हैं। वे तो मात्र डॉक्टरों / चिकित्सकों के भरोसे जी रहे हैं। गोलियों, टीकों और इंजेक्शनों के बीच स्वास्थ्य की प्रतिष्ठा भर देख रहे हैं। मनुष्य जब स्वस्थ होता है, तो उसे प्रातः जगने पर, खुली हवा में घूमने, चिड़ियों का कलरव सुनने और प्रकृति की विभिन्न रंगीनियों को देखने में एक रस मिलता है। एक सुखानुभूति होती है। ऐसे व्यक्ति ही वस्तुतः जीवन और जीवित रहने का मूल आनंद ले पाते हैं और अपने अस्तित्व के लिए ईश्वर के आभारी होते हैं।

जिसका मन और इंद्रियाँ अर्थात जिसके सभी शारीरिक मानसिक अंग सुचारु रूप से काम कर रहे हों, वही स्वस्थ है। जीवन का सुख, आनंद वही भोगता है। इनमें से किसी एक अंग में विकार आने पर चिंता उत्पन्न होती है, व्याकुलता बढ़ती है। व्याकुल व्यक्ति व्यथित हो सकता है, सुखी नहीं। आज बीसवीं सदी में औसत व्यक्ति डॉक्टरों के चक्कर लगाते हुए जी रहे हैं। शारीरिक रोग तो सामने से दिखाई देते हैं, मानसिक रोग अदृश्य रूप में जीवन का सत्यानाश करते हैं, किसी ने ठीक ही कहा है –

‘चिंता और चिता में बिंदु मात्र का अंतर है, चिता मरने के बाद जलाती है और चिंता जीवित रहते ही जलाती है।’
निश्चित जीवन जीने वाले अधिक सुखी रहते हैं और उनके जीवन में प्रसन्नता होती है। ऐसे लोग अन्यों की अपेक्षा अधिक कार्यक्षम होते हैं। ऐसे लोगों पर बुढ़ापे के लक्षण धीरे-धीरे आते हैं। हम अपने चारों ओर दृष्टि डालें तो पाएँगे कि औसत मध्यमवर्गीय व्यक्ति जवानी में ही बूढ़ा दिखने लगता है। इसका कारण यह है कि जीवन की भाग-दौड़ में दिनचर्या इतनी असंतुलित हो जाती है कि शरीर की सभी क्रियाएँ बिगड़ जाती हैं और व्यक्ति क्रमशः रोगों से घिरता जाता है।

जैसे-जैसे स्वास्थ्य लाभ के लिए हम अधिकाधिक औषधियों की तरफ़ भागते हैं वैसे-वैसे ही रोगों के संजाल में फँसते जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे रेशम का कीड़ा अपनी सुरक्षा के लिए कोकून बुनता जाता है और उसी में बंद हो जाता है। प्राकृतिक जीवन-शैली रोगों को मिटाती नहीं है, बल्कि शरीर और मन को ऐसा विकसित करने में सहयोग देती है कि रोग स्वतः समाप्त हो जाते हैं और नए रोग उत्पन्न नहीं होते। प्रकृति की सहायता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय प्राकृतिक जीवन शैली है और प्राकृतिक चिकित्सा इस तरफ़ हमको मोड़ती है।

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8. हरे-भरे वृक्ष

वृक्ष का एक नाम तरु भी है। आपदा एवं दुखों से छुटकारा दिलाने वाला होने के कारण वृक्ष को ‘तरु’ यानी तारने वाला कहा जाता है। वृक्ष से मनुष्य सिर्फ़ फल और छाया ही प्राप्त नहीं करता बल्कि जीवनदायिनी हवा भी प्राप्त करता है। फलों से पोषक तत्व प्राप्त करता है और अपने शरीर में सतोगुण की वृद्धि कर शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखता है या रख सकता है। आधुनिक सभ्यता में शहरीकरण के कारण बढ़ती हुई बहुमंजिली इमारतों और कल-कारखानों के निर्माण के कारण हरियाली कम होती जा रही है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से हरे-भरे जंगल कम होते जा रहे हैं और सीमेंट की इमारतों तथा कल-कारखानों के जंगल बढ़ रहे हैं।

इनसे जो प्रदूषण फैल रहा है और पर्यावरण की शुद्धता नष्ट हो रही है, इसे कैसे रोका जाए ? अब भारत में लगभग 19% भू-भाग में ही वृक्षों के वन शेष बचे हैं जिसके परिणामस्वरूप देश के पंद्रह हज़ार किस्म के पेड़-पौधों के विलुप्त होने की आशंका है। वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड की वृद्धि हुई है क्योंकि इस विषाक्त गैस को नियंत्रित तथा संतुलित रखने वाले वृक्षों की कमी होती जा रही है। पर्यावरण को शुद्ध रखने, प्राण वायु देने और कार्बन डाइ ऑक्साइड में कमी करने का काम वृक्ष भली-भाँति करते हैं। पृथ्वी की सतह से लगभग 40 किलोमीटर ऊपर वायुमंडल में ओजोन गैस की मोटी परत रहती है जो सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से जीव-जंतु और वनस्पति के लिए रक्षा-कवच का काम करती है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक रिचर्ड हटन के अनुसार, वनों के विनाश के कारण वायुमंडल में अतिरिक्त मात्रा में कार्बन डाइ – ऑक्साइड पहुँचकर ओजोन की परत को क्षति पहुँचा रही है। इस पद्धति को कम करने और रोकने के लिए यह ज़रूरी है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस की मात्रा कम की जाए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो सन 2050 तक ओज़ोन का एक बड़ा भाग नष्ट हो जाएगा जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होगी और कई प्रकार की बीमारियाँ बढ़ने का खतरा पैदा हो जाएगा जिनका समाधान करना इनसान के बस की बात शायद न हो।

वृक्ष की एक उपयोगिता और भी है। आजकल ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। बढ़ते हुए वाहनों, लाउडस्पीकर, कल-कारखानों आदि कई कारणों से ध्वनि प्रदूषण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जिनसे व्यक्ति अनिद्रा, स्त्रावयिक दौर्बल्य, अस्थमा, हृदय रोग, उच्च रक्त चाप, अधीरता, चिड़चिड़ापन आदि व्याधियों का शिकार हो रहा है। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि वृक्ष इस शोर का अवशोषण कर इसकी तीव्रता को उसी प्रकार कम करते हैं जैसे साइलेंसर आवाज़ को कम कर देता है। बढ़ते शोर से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए वृक्षों की संख्या लगातार बढ़ाई जानी चाहिए।

भवनों के निर्माण और कल-कारखानों की स्थापना में लकड़ी की ज़रूरत होती है और यह लकड़ी वृक्षों को काट कर ही प्राप्त की जाती है इसलिए भी वृक्षों की कटाई धड़ल्ले से की जा रही है। यही कारण है कि आज लकड़ी लोहे से महँगी हो गई है। यह बात ठीक है कि इमारती लकड़ी प्राप्त कैसे होगी, लेकिन यह भी आवश्यक है कि वृक्षों की संख्या कम न होने दी जाए। इसके लिए हम क्या कर रहे हैं? यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हरे-भरे वृक्ष हमारे स्वास्थ्य और जीवन के रक्षक हैं। हम सबको चाहिए कि वृक्षों की रक्षा में तो हम हमेशा सतर्क और सक्रिय रहे हैं, साथ ही वृक्षारोपण करने में भी भरपूर सहयोग प्रदान करें ताकि वृक्षों की कमी न हो।

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9. एड्स का फैलता मकड़जाल

एड्स का प्रेत हमारे देश को ग्रसने को तैयार बैठा है। भारत एड्स पीड़ितों के लिहाज से पहले नंबर का देश बनने वाला है। फिलहाल यह पीड़ादायक अपमान दक्षिणी अफ्रीका के पास है जहाँ एड्स के 53 लाख रोगी हैं। भारत के 51 लाख रोगियों का हाल इस तरह बेहाल है कि वे दक्षिणी अफ्रीका को जल्द ही पछाड़ देंगे। भारत के 27 लाख पैदा होने वाले बच्चों में 27 हज़ार एड्स पीड़ित माताओं के होते हैं और वे जन्म से ही एड्स पाते हैं। एड्स का इलाज अभी तक ढूँढ़ा नहीं जा सका है। यह पक्का है कि ये सारे रोगी ठीक नहीं होंगे और शायद यौन संबंधों, ब्लड सफ्यूजन आदि के कारण औरों को भी बीमार कर जाएँगे।

हमारे देश में जहाँ गरीबी की मार और अंधविश्वासों की बीमारी एड्स से भी ज्यादा गंभीर है, वहाँ रोगियों की देखभाल करना तो दूर उन्हें रोग न फैलाने के लिए सावधान करना भी सरल नहीं है। यह महामारी केवल गरीबों में ही हो, कोई ज़रूरी नहीं। यह समाज के हर वर्ग में हो सकती है क्योंकि कितनी ही बार बाज़ार में पहले इस्तेमाल की हुई सिरिंजें पहुँच जाती हैं। अगर उनमें एड्स के विषाणु जीवित हों तो निर्दोष लोग भी काल के ग्रास बन सकते हैं।

एड्स के बारे में जनजागरण अभियान चलाने वाले ज़्यादातर पैसा अंग्रेज़ी के माध्यमों में प्रचार करने में फूँक रहे हैं जिसका असर लगभग नहीं होता है। समाज में एड्स को छूत का रोग मानकर रोगियों का बहिष्कार किया जाता है। एड्स के रोगियों को अब तिलतिल कर मरना पड़ता है क्योंकि कोई उनसे व्यवहार नहीं रखना चाहता। अस्पतालों ने भी दरवाज़े बंद करने शुरू कर दिए हैं क्योंकि अस्पताल में एड्स के रोगी होने की बात सुनकर दूसरे सब भाग जाते हैं।

हमारे देश में शिक्षित मध्यवर्गीय समाज अभी इस एड्स रूपी मकड़जाल से बचा हुआ है। निम्न वर्ग में जहाँ यह सामान्य होता जा रहा है, वहीं तरह- तरह की समस्याएँ भी पैदा कर रहा है। एड्स के विषाणु वर्षों शरीर में सुप्त पड़े रहते हैं। विवाह के समय माँग करना कि दोनों टेस्ट कराएँ अव्यावहारिक और मानसिक वेदना देने वाला होगा, फिर क्या किया जाए ? एड्स के इलाज पर काफ़ी खोज चल रही है पर इसका कोई सुराग नहीं मिल रहा। पति – पत्नी संबंधों को तो इसने सुदृढ़ कर दिया पर जो लोग जोखिम लेने के आदी हैं उनकी वजह से उनका पूरा परिवार झंझावात में आ सकता है। इस बीमारी के बारे में सतर्क रहना अब सबके लिए ज़रूरी हो गया है। यह अनैतिक संबंधों से ही नहीं, खून लेने पर भी हो सकती है क्योंकि पेशेवर खून दान करने वाले प्रायः एड्स के शिकार होते हैं।

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10. भारी बस्तों के बोझ से दबता बचपन

वर्तमान युग प्रतियोगिताओं एवं प्रतिस्पर्धाओं का युग है। इस युग में प्रत्येक मनुष्य प्रतिस्पर्धात्मक रूप से कर्म कर रहा है। इसी तरह आज की स्कूली शिक्षा भी प्रतिस्पर्धा से ओत-प्रोत है। इसी कारण आज नर्सरी से ही बच्चों पर भारी बस्तों का बोझ बढ़ जाता है। स्कूलों में भी इतनी प्रतिस्पर्धा है कि हर स्कूल अपने बच्चों के लिए भारी से भारी पुस्तकें लगवाना चाहता है। इसी कारण बच्चों के बस्तों का बोझ बढ़ जाता है और धीरे-धीरे इसी बोझ से बचपन भी दबता जा रहा है। जो बचपन हँसने, खेलने, मौज-मस्ती के लिए होता है। वह बचपन आज भारी बस्तों के बोझ से दबने के कारण हँसना, खेलना, कूदना भूल गया है। भारी बस्तों ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। की नैसर्गिकता खत्म होती जा रही है। यदि ऐसा ही होता रहा तो एक दिन बचपन अवश्य ही दबकर रह जाएगा।

11. बाढ़ से जूझते गाँव

पर्यावरण-प्रदूषण, वन-कटाव, ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण पर्यावरण में नित्य परिवर्तन हो रहे हैं। इनमें से एक है बाढ़। बाढ़ प्रकृति की भयावहता एवं विकरालता का प्रतीक है जिससे हमारे देश के गाँव निरंतर जूझ रहे हैं। देश में प्रतिवर्ष ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि किसी राज्य में बाढ़ से सैकड़ों गाँव जूझ रहे हैं। हर वर्ष हज़ारों गाँव बाढ़ के पानी में डूब जाते हैं। जहाँ का जनमानस अनथक संघर्ष करता है। इन बाढ़-पीड़ित गाँवों में सबकुछ स्वाहा हो जाता है। जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। हज़ारों मवेशी बाढ़ की भेंट चढ़ जाते हैं। गाँव-के-गाँव पानी में डूब जाते हैं। ग्रामीण भूखे नंगे रहकर जूझते रहते हैं और एक-दूसरे का सहारा बनने का प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं बाढ़ के पश्चात जब गाँव में हैजा – प्लेग, टीबी, मलेरिया आदि भयानक बीमारियाँ फैल जाती हैं जब गाँव पहले की अपेक्षा कहीं ज़्यादा संघर्ष करता है। इस प्रकार बाढ़ से जन-जीवन जूझता रहता है।